आदरणीय साथिओ,
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आद० उस्मानी साहब अच्छी सामयिक लघु कथा लिखी है बहुत बहुत बधाई
आदाब। आपकी यहां उपस्थिति और मेरी यूं हौसला अफ़ज़ाई मेरे लेखन के वास्ते बहुत ही महत्वपूर्ण है। विचार साझा कर प्रोत्साहित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया राजेश कुमारी साहिबा।
समसामयिक राजनीति और परिदृश्य में वोट का इस्तेमाल सोच समझ कर करने को प्रेरित करती लघुकथा। उत्तम
वर्तमान राजनीति के परिदृश्य में आपने एक मतदाता की मानसिकता और वोट के प्रयोग पर बहुत सुंदर कथ्य शब्दों में ढाला हैं उस्मानी भाई..... हालांकि रचना में आपसी संवादों को सीमित किया जा सकता है, फिर भी इस उम्दा लघुकथा के लिए बधाई देना तो बनता है. सादर शेख शहजाद उस्मानी भाई
वाह, बहुत प्रभावशाली रचना है आज के जनतंत्र के उत्सव पर और प्रदत्त विषय पर. राजनेताओं ने तो लोगों को उनके रंग और धर्म के चलते ऐसे खांचों में बाँट रखा है की किसी के द्वारा सही फैसला लेना दुरूह हो गया है. NOTA भी एक विकल्प है लेकिन अपने मत को व्यर्थ करने से बेहतर है कि किसी काबिल प्रत्याशी को चुना जाये. बहुत बहुत बधाई इस बढ़िया रचना के लिए आ मुहतरम शेख शहज़ाद उस्मानी साहब
मेरी इस रचना की गहराई व मर्म और सकारात्मक उद्देश्य को भली-भांति लेकर रचना का अनुमोदन करने और हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब विनय कुमार साहिब।
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी आदाब,
सामयिकता का पुट लिए एक अच्छी लघुकथा और साथ ही कटाक्ष भी । कहना चाहूँगा कि:-
(1) कोई अन्य धर्म का धर्मावलंबी अन्य धर्म के व्यक्ति से सीधे तौर पर आक्षेप लगाते एकदम सवाल नहीं कर बैठता है । आपने तो सीधे तौर पर ही हमला बोल दिया ।
लक्षणा और व्यंजना मूलक शब्द-शक्ति के माध्यम से बात कही होती तो और बेहतर होता । यहाँ तो दो पा. हिंदू-मुस्लिम आपस में विद्वेषपूर्ण तरीक़े बात कर रहे हैं । लघुकथा का तंतु यह तो कतई नहीं हो सकता ।
(2) लघुकथा
वर्तमान गंदी राजनीति को उजागर करने में सफल है।
(3) सनवादों में आक्रामकता है जो कि आपकी प्राय: अधिकांश लघुकथाओं में पाता हूँ, यहाँ भी ऐसा है ।
(4) दो पात्रोंं के संवादों से यह भी पता चलता है कि हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है और उर्दू भी हमारे देश ही भाषा है । अच्छा प्रबल पक्ष लिया गया है । लेकिन कुछ ओछी मानसिकता वाले भाषाई आधार पर एक वर्ग विशेष को देखते हैं और साथ ही उर्दू को एक वर्ग विशेष तक सीमित कर दिया है जो सरासर ग़लत है ।
हार्दिक बधाई स्वीकार करेंं ।
ं
रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर यूं बेहतरीन बिंदुवार अपनी बात व राय और इस्लाह से मुझे प्रोत्साहित करने और लाभांवित करने के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब।
1- देश में धर्म चर्चाओं के माहौल में यह जिज्ञासा उभारना आवश्यक व उचित लगा। हालांकि दूसरे पात्र का धर्य स्पष्ट नहीं है; वह किसी भी धर्म का हो सकता है। मुस्लिम शब्द से यह स्पष्ट नहीं होता कि पात्र भी मुस्लिम ही है। केवल एक संवाद में 'हम मुसलमानों' से ऐसा लगता है, सो वहां 'हम' शब्द हटाया जा सकता है। दूसरी बात यही रचना आजकल के वातावरण में "मुस्लिम/मुसलमान" शब्द की जगह "हिंदू/अल्पसंख्यक/पिछड़ा वर्ग" शब्द का इस्तेमाल भी किया जा सकता था और मस्जिद के स्थान पर "मंदिर/धार्मिक स्थल" शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता था। लेकिन इन पांच सालों में देश में बने माहौल से हर गैर-मुस्लिम की जिज्ञासा है कि अबकी बार मुसलमान मतदाता किस पार्टी को वोट देंगे! इसी कारण समसामयिक रचना में इस तरह एक सच्चे लोकतंत्र समर्थक मुस्लिम मतदाता का पक्ष रखना मैंने ज़रूरी समझा जो सकारात्मकता बढ़ा रहा न कि रचना भाव को संकुचित। सादर।
2- जब हमारे मुल्क में महामहिम पदाधिकारी या लेखकगण एक बहुसंख्यक धर्म का ही लेवल लगा कर केवल अपने ही धर्म के पक्ष में बड़बोलापन कर रहे हैं और आम जनता सहमत है, तो एक पीड़ित धर्म का लेखक अपने लोकतांत्रिक सच्चे मुस्लिम नागरिक मतदाता का पक्ष इस तरह क्यों नहीं रख सकता? संवादों में आक्रामकता लगना इसी कारण स्वाभाविक व आवश्यक भी है। मैं ऐसे माहौल में इस बात से सहमत नहीं हूं कि लेखक/कलाकार/अभिनेता/नेता आदि का कोई धर्म नहीं होता। पीड़ित धर्मावलंबियों को अपनी बात साहित्य में भी रखने का अधिकार है अभिव्यक्ति व जनसंचार से लाभान्वित होने व कराने के लिए। मेरी ऐसी रचनाओं में एक नैतिक आह्वान का प्रयास किया गया है संवाद-आक्रामकता नहीं।
अपने विचार साझा करने और इस्लाह/हिदायत हेतु बहुत-बहुत शुक्रिया।
बढिया कथा के लिए हार्दिक बधाई आ. उस्मानी जी ,धर्म का उल्लेख कथा के विस्तृत दायरे को संकुचित कर रही हैं।
हार्दिक आभार आदरणीया अर्चना त्रिपाठी साहिबा। देश में धर्म चर्चाओं के माहौल में यह जिज्ञासा उभारना आवश्यक व उचित लगा। हालांकि दूसरे पात्र का धर्य स्पष्ट नहीं है; वह किसी भी धर्म का हो सकता है। मुस्लिम शब्द से यह स्पष्ट नहीं होता कि पात्र भी मुस्लिम ही है। केवल एक संवाद में 'हम मुसलमानों' से ऐसा लगता है, सो वहां 'हम' शब्द हटाया जा सकता है। दूसरी बात यही रचना आजकल के वातावरण में "मुस्लिम/मुसलमान" शब्द की जगह "हिंदू/अल्पसंख्यक/पिछड़ा वर्ग" शब्द का इस्तेमाल भी किया जा सकता था और मस्जिद के स्थान पर "मंदिर/धार्मिक स्थल" शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता था। लेकिन इन पांच सालों में देश में बने माहौल से हर गैर-मुस्लिम की जिज्ञासा है कि अबकी बार मुसलमान मतदाता किस पार्टी को वोट देंगे! इसी कारण समसामयिक रचना में इस तरह एक सच्चे लोकतंत्र समर्थक मुस्लिम मतदाता का पक्ष रखना मैंने ज़रूरी समझा जो सकारात्मकता बढ़ा रहा न कि रचना भाव को संकुचित। सादर।
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें शेख शहज़ाद उस्मानी साहब .
रचना पटल पर समय देकर हौसला अफ़ज़ाई हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीया नीलम उपाध्याय साहिबा।
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