आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय विनय कुमार जी, प्रदत्त विषय पर उम्दा लघुकथा हुई है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
1. //बेटी ने उठकर चरनी पर जाना चाहा लेकिन रानी ने उसे कस कर भींच लिया// यह वाक्य लघुकथा का केन्द्रीय वाक्य है जो यह इशारा करता है कि मनुष्य अपनी संतान के रूप में बेटे को पसन्द करता है और गाय की संतान में रूप में बेटी को जो कि उसके स्वार्थपरक दोहरे चरित्र का परिचायक है. पर यदि इसे थोड़ा और उभरा जाए (मतलब इशारा थोड़ा साफ़ हो) तो ज़्यादा उचित होगा.
2.. //उधर गाय भी अपने बछड़े को ममता से चाट रही थी. // इसमें से "भी" शब्द हटा दें तो बेहतर होगा.
सादर.
आदरणीय श्री विनय कुमार जी बहुत बहुत बधाई अच्छी लघुकथा के लिये किन्तु महेंद्र कुमार जी की टिप्पणी से सहमत हूँ सादर
मानसिक संकीर्णता को बयां करती बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय विनय सरजी।
उम्दा कथानक, बढ़िया प्रस्तुति ऊपर से आंचलिकता का तड़का. लघुकथा बहुत प्रभावशाली हुई है भाई विनय कुमार सिंह जी. हार्दिक बधाई प्रेषित है.
मोह
सरकारी लिफाफा हाथ मे लिए नवीन , अपनी पत्नी के साथ हड्बड़ाते हुये,अपने बड़े भाई,प्रवीण के घर पहुंचा.वो कुछ कहता ,इससे पहले प्रवीण ने कागज उसे दिखाया. दोनों पढ़कर अपने आप को कोस रहे थे,अपने अम्मा –बापू के साथ किए दुर्व्यवहार पर मन ग्लानि से भर गया. उस दिन की घटना का चलचित्र आँखों मे घूम गया,जब दोनों ने अपनी पत्नियों के साथ अपने ही बेसहारा,पराधीन बुजुर्ग जन्मदाता को किसी कोने मे पड़े रहने की गुहार करने पर भी, बेघर करके दर-दर की ठोकरे खाने के लिए छोड़ दिया था.
दोनों नालायक बेटों के दुखित पिता,किशन ने न्याय की गुहार अदालत में की ,तो फैसला उसके पक्ष में सुनाया गया , -‘कोर्ट फैसला किशन दास के पक्ष में सुनाते हुये,उनके दोनों बेटो को आदेश देती हैं कि कल अपराहन दो बजे तक जबरदस्त कब्जा किए घर को किशन और उनकी पत्नी सुजना को सुपुर्द करे। साथ ही फरियादी के विशेष आग्रह पर दोनों बेटों को उनकी जायदाद से बेदखल करती हैं।’
आदेश को सुन किशन की आँखों मे खुशी थी,पर दूर खड़े बेटों बहुओं की निगाहें वितृष्णा से भरी घूर रही थी।उसके बाद से दोनों ने अपने माँ-बापू की कोई खोजबीन नही की. लेकिन आज इस कागज ने उन्हे जड़वत कर दिया. अपने आप को कोस रहे थे.
तभी प्रवीण की पत्नी अंदर घुसी तो,कमरे मे मातम-सी पसरी चुप्पी को देख,प्रश्नभरी दृष्टि से प्रवीण को झकझोरते हुये पूछा तो उसने लिफाफा थमा दिया,जिसे खोलकर, पढ़ा,तो वो माथा पकड़कर बैठ गई,कागज में उनके महीना भर पूर्व सड़क दुर्घटना में गुजरे माँ-बापू की सूचना के साथ ,दोनों बेटो के नाम घर वसीयत के कागजात थे.
सभी की आँखों मे पश्चाताप के आँसू झलक रहे थे,जैसे कह रहे हो ,कि औलाद कितनी भी निर्दयी,स्वार्थी निकल जाये पर,माँ-बाप की ममता कभी नहीं मरती ,ये उनका मोह ही तो होता हैं, मोह ही...तो.............
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय बबीता गुप्ता जी बहुत अच्छी लघुकथा के लिये बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें सादर
बहुत-बहुत धन्यबयाद ।
बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा है आ० बबिता गुप्ता जीI संतान के प्रति माँ-बाप के मोह को बहुत उम्दा ढंग से चित्रित किया हैI मेरी तरफ से ढेरों ढेर बधाई स्वीकार करेंI
रचना का मर्म समझ टिप्पणी करने के लिए सधन्यबाद।
बढ़िया भावपूर्ण रचना प्रदत्त विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको आ बबिता गुप्ता जी
बहुत-बहुत सधन्यबाद।
बहुत मार्मिक लघुकथा आदरणीय बबीता जी ,बधाई आपको इस रचना के लिए ,सादर
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