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व्यंग्य मुक्तिका:
मौका मिलते ही.....
संजीव 'सलिल'
*
मौका मिलते ही मँहगाई बढ़ाई जाए.
बैठ सत्ता में 'सलिल' मौज मनाई जाए..
आओ मिलजुल के कोई बात बनाई जाए.
रिश्वतों की है रकम, मिलके पचाई जाए..
देश के धन को विदेशों में छिपाना है कला.
ये कलाकारी भी अब सीखी-सिखाई जाए..
फाका करती है अगर जनता करे फ़िक्र नहीं.
नेता घोटाला करे, खाई मलाई जाए..
आई. ए. एस. के अफसर हैं बुराई की जड़.
लोग जागें तो कबर इनकी खुदाई जाए..
शाद रहना है अगर शादियाँ करो-तोड़ो.
लूट ससुराल को, बीबी भी जलाई जाए..
कोशिशें कितनी करें?, काम न कोई होता.
काम होगा अगर कीमत भी चुकाई जाए..
चोर-आतंकियों का, कीजिये सत्कार 'सलिल'.
लाठियाँ पुलिस की, संतों पे चलाई जाए..
मीरा, राधा या भगतसिंह हो पड़ोसी के यहाँ.
अपने घर में 'सलिल', लछमी ही बसाई जाए..
*****
आचार्य संजीवसलिलजी, व्यंगात्मक तेवर के साथ पढ़ी गयी आपकी इस मुक्तिका के सभी बंद मजेदार और अपने रंग के अनुरूप चोखे हैं.
महोदय, चौर्य-कला को अपने यहाँ मान्यता तो मिली ही हुई है. अलबत्ता ये जानना अवश्य रोचक होगा कि क्या आज के कलाकार कुछ अधिक माहिर नहीं हो गये हैं..!
मेरी हार्दिक बधाइयाँ.
आपका हार्दिक आभार आदरणीय सलिलजी.
//फाका करती है अगर जनता करे फ़िक्र नहीं.
नेता घोटाला करे, खाई मलाई जाए.. //
"खाई मलाई" तुकांत की दृष्टि से तो सही है, मगर शब्दों का क्रम आगे पीछे होने से थोड़ा अटपटा लग रहा है ! इल्म-ए-अरूज़ में इसे "ऐब-ए-तअकीब" कहा जाता है !
//चोर-आतंकियों का, कीजिये सत्कार 'सलिल'.
लाठियाँ पुलिस की, संतों पे चलाई जाए..//
बहुत करारा तंज़ किया है आचार्य जी - वाह वाह वाह !
//मीरा, राधा या भगतसिंह हो पड़ोसी के यहाँ.
अपने घर में 'सलिल', लछमी ही बसाई जाए..//
हासिल-ए-ग़ज़ल शेअर - मन मोह ले गया ! बधाई स्वीकार करें मान्यवर !
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