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बंधू ! बहुत दिनों बाद महफ़िल में आपका आना सुखकर लगा , रचना अच्छी है, ख्याल बढ़िया है, जैसा की प्रधान संपादक जी ने कहा , तिलक सर की ग़ज़ल कक्षा उपयोगी है |
राकेश जी! काफी दिनों बाद आपकी उपस्थिति से हर्ष हुआ. और हाँ... ग़ज़ल कहने के लिए बहुत हताश होने की जरूरत नहीं. यह एक मुसलसल प्रक्रिया है. शुरुआत में सभी ऐसे ही लिखते हैं और फिर दूसरों को पढ़-पढ़ कर अपनी कमियाँ खुद-ब-खुद मालूम होती हैं. मैं स्वयं भी सीखने के क्रम में हूँ. आदरणीय तिलकराज सर की कक्षाओं से काफी कुछ सीखने को मिलता है. और बकौल, प्रभाकर सर- 'जब गंगा घर में ही बह रही हो तो बाहर की आस क्यों देखनी'.
श्रद्धेय गुणीजनों और आत्मीय सुधीपाठकों के मध्य अपनी उपस्थिति को निजी थाती समझता हूँ.
अपनी पंक्तियों को प्रस्तुत करने की धृष्ठता कर रहा हूँ. यथोचित सलाह की अपेक्षा के साथ... ..
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आओ मिलजुल के कोई बात बनाई जाए
मसल रहे आजीवन, वो बात निभाई जाए..
बंद हुआ व्यापार, तो हो शिक्षा का उद्धार
है छोटी बात मगर कैसे मनवाई जाए..?
चौखट-खिड़की घर-आँगन हैं जीवन के आधार
शर्त मग़र है मध्य बनी दीवार गिराई जाए.
नहीं परश्तिश कभी रही थी बात दिखावे की
चाल अचानक क्यों बदली, क्या बतलाई जाए!?
घर-आँगन को रखती पावन बेटी है संस्कार
हर आँगन इस तुलसी की पौध बचाई जाए.
तपती धरती, रातें भीगी दिन अलसे भिनसार
औंधे-लेटे पीपल-तर ताश जमाई जाए..
खुले उजाले जेबी काटे मँहगाई है चोर
किन्तु, चल रही गाड़ी है, क्या रुकवाई जाए?!!
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आभार.
प्रतीक्षा रहेगी.
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