आदरणीय साथिओ,
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वाह वाह बहुत ख़ूब मुबारकबाद जनाब तस्दीक साहब,
शुरू से आखि़र तक ख़ूबसूरत ..
फ़िर वो बगीचे में खड़े पेड़ की तरफ़ इशारा करते हुए बोले,
"उसमें जो पिछले साल पत्ते आए वो पेड़ को छोड़ कर जारहे हैं, नए पत्ते आ रहे हैं, वो ये ग़म हर साल उठाता है मगर हिम्मत नहीं हारता है, हम सबको भी बुढ़ापे की हक़ीक़त का हँस कर सामना करना चाहिए " वाह वाह
जनाब भाई सलीम रज़ा साहिब, लघुकथा पर आपकी खूबसूरत प्रतिक्रिया और हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया I
बहुत सुंदर रचना प्रदत्त विषय पर प्रस्तुत की है आपने आदरणीय तस्दीक़ अहमद खान साहब, जीवन के आखिरी पड़ाव पर इस गहन बात को न केवल समझना जरुरी है, बल्कि जीवन में उतारना भी जरूरी है. उम्दा रचना के लिए तहे दिल से बधाई भाई जी .
हार्दिक बधाई आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब जी।बेहतरीन लघुकथा।बुजुर्गों की मानसिक स्थिति और समस्याओं पर एक विचारोत्तेजक समाधान देती लाज़वाब प्रस्तुति।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय तासिक सरजी।
समाधान-
घबराई हुई सी वह जल्दी जल्दी घर के अंदर घुसी और सोफे पर पसर गयी. बाहर तापमान जैसे सारे कीर्तिमान तोड़ डालना चाह रहा था, लू की लपटें सबको जला रही थीं. लेकिन उसकी समस्या लू नहीं थी बल्कि रोज कॉलेज जाना और आना थी. नुक्कड़ के कोने वाली दूकान पर बैठे रहने वाले मनचले उसकी हिम्मत पस्त कर देते थे लेकिन पढ़ाई करने के लिए रोज जाना भी जरुरी था.
कुछ देर बाद उसने उठ कर पानी का गिलास लिया और गट गट करके पूरा पानी पी गयी. मम्मी या पापा से कहते उसे डर लगता था, वह लोग पहले भी उसे कॉलेज जाने के लिए मना कर चुके थे. अगर इस बात की भनक भी उनको लग गयी तो कल से ही उसका बाहर निकलना बंद हो जायेगा.
दरवाजे की घंटी बजी, उसने उठकर खोला तो सामने मुन्नी खड़ी थी. लगभग उसी की हमउम्र मुन्नी उसके यहाँ घर के काम करने आती थी और उससे पढ़ाई लिखाई के बारे में भी अक्सर बात करती रहती थी. मुन्नी ने उसे बताया था कि अगर उसे भी मौका मिला होता तो वह भी जरूर पढ़ने जाती.
"क्या दीदी, आज बहुत उदास दिख रही हो", मुन्नी ने उसको देखते ही पूछा.
उसने कोई जवाब नहीं दिया और सोफे पर अधलेटी पड़ गयी, दिमाग में उन्हीं मनचलों की सूरत घूम रही थी. मुन्नी ने पहले झाड़ू लगाया और फिर पोछा लगाने लगी, वह उसको देख रही थी. अचानक उसके दिमाग में आया कि मुन्नी भी तो उसी रास्ते से आती है, वह मनचले तो उसे भी छेड़ते होंगे. लेकिन कभी उसने उसे परेशान नहीं देखा.
"अच्छा मुन्नी एक बात बता, तुझे वह नुक्कड़ पर के मनचले छेड़ते नहीं हैं क्या?, उसने मुन्नी से पूछा.
मुन्नी के हाथ पोछा लगाते लगाते रुक गए, उसने उसको गौर से देखा हुए बोली "अब समझी, इसीलिए इतना उदास हो दीदी. देखो वह तो कमीने लोग हैं, मुझे भी छेड़ने का प्रयास किया था उन्होंने. लेकिन मैंने अपना चप्पल निकाला और उनको दिखाकर समझा दिया, अब कभी दिक्कत नहीं होती है. आप भी यही करो दीदी, आप डरोगे तो लोग जीने नहीं देंगे".
मुन्नी वापस अपने काम में लग गयी, उसे एक रास्ता स्पष्ट नजर आ रहा था.
मौलिक एवम अप्रकाशित
इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार
आदरणीय विनय कुमार जी बहुत बहुत बधाई हौसला बख़्श अच्छी कहानी हुई सादर।
इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार
विनय जी विषय पर बहुत बढ़िया रचना बनी है ।हार्दिक बधाई आपको ।
इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार
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