अचानक उसे लगा कि पीछे से किसी ने नाम लेकर पुकारा, उसने साइकिल रोकी और पलट कर देखा. थोड़ा पीछे ही उसके परिचित वकील साहब खड़े थे और उसकी तरफ इशारा कर रहे थे. वह साइकिल धीरे धीरे चलाते हुए वकील साहब के पास पहुंचा और उनको नमस्ते किया.
"क्या बात है मैनेजर साहब, आज साइकिल चला रहे हैं. गाड़ी पंचर हो गयी है या खराब है", वकील साहब ने मुस्कुराते हुए पूछा.
उसे हंसी आ गयी, वह क्या साइकिल सिर्फ तभी चला सकता है जब उसकी गाड़ी खराब हो. फिर उसने हँसते हुए ही कहा "अरे नहीं वकील साहब, गाड़ी ठीक है. बस यूँ ही साइकिल चला रहा था, सेहत के लिए ठीक रहता है".
वकील साहब ने अपना सर हिलाया और कुछ बुदबुदाए जो उसे सुनाई नहीं पड़ा.
"आप भी साइकिल चलाया कीजिये, अब आपकी भी उम्र हो चली है, थोड़ी एक्सरसाइज हो जायेगी", उसने वकील साहब को लक्ष्य करते हुए कहा.
वकील साहब ने इंकार में सर हिलाया, उसे लगा शायद उम्र के चलते वह मन कर रहे हों.
"अरे आपकी इतनी भी उम्र नहीं हुई है कि आप साइकिल नहीं चला सकें, चलाया कीजिये", उसने फिर कहा.
"आप नहीं समझेंगे मैनेजर साहब, मेरे लिए साइकिल चलना संभव नहीं है", वकील साहब ने थोड़ा उदास होते हुए कहा.
उसे लगा कि शायद वकील साहब शर्म के मारे साइकिल नहीं चलाते होंगे, तो उसने फिर पूछ लिया "अरे इसे चलाने में कैसी शर्म, देखिये मैं तो बड़े मजे में चला रहा हूँ".
वकील साहब ने एक लम्बी सांस ली और कहा 'आप नहीं समझेंगे मैनेजर साहब, मैं चाह कर भी साइकिल नहीं चला सकता. आपकी अपनी एक हैसियत है समाज में, आप साइकिल से घूमेंगे तो लोग आपकी तारीफ़ करेंगे कि देखो इतना बड़ा अधिकारी होकर भी साइकिल से घूम रहा है"
वकील साहब थोड़ी देर के लिए रुके और फिर बोले "लेकिन मेरा पेशा ऐसा है कि अगर मैं साइकिल से घूमने लगा तो लोग कहना शुरू कर देंगे कि देखो इस वकील को, एकदम फटीचर हो गया है, लगता है इसकी प्रैक्टिस बिलकुल नहीं चलती. और इसके चलते शायद मेरे यहाँ आने वाले कुछ क्लाइंट भी कम हो जाएं".
इतना कहकर वकील साहब ने नमस्कार किया और आगे बढ़ गए, वह साइकिल पकड़े समाज के इस समीकरण को सोचता रह गया.
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
इस उत्साह बढ़ाने वाली टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ समर कबीर साहब
जनाब विनय कुमार जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
बदलते दौर में समाज के समीकरण बनते बिगड़ते रहते है।एक दौर ऐसा भी रहा कि सायकिल से चलने वाले वक़ील बहुत आगे तक पहुँचे ,और आज का दौर है जहाँ दिखावा ही मायने रखता है ।कथा के लिये बधाई आद० विनय सिंह जी ।
हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी।बहुत सुंदर तरीके से सामाजिक संरचना को विश्लेषित करती लघुकथा।आजकल समाज में स्टेटस सिंबल एक बड़ा मुद्दा है।
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