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रौशन है उसके दम से सितारों की रौशनी
ख़ुश्बू लुटा रही है बहारों की रौशनी
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इक वो है माहताब फक़त आसमान में
फीकी है जिसके आगे हज़ारों की रौशनी
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तुम क्या गए कि चांदनी बे लुत्फ़ हो गई
चुभती है क़ल्ब ओ जां में सितारों की रौशनी
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उस घर से दूर रहती हैं हरदम मुसीबतें
जिस घर में हो क़ुरान के पारों की रौशनी
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क्या जाने किस ग़रीब पे ढाएगी ये सितम
पागल सी हो गई है शरारों की रौशनी
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आपकी महब्बत के लिए बहुत शुक्रिया जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' साहब।
आपकी महब्बत के लिए बहुत शुक्रिया जनाब दिगंबर नासवा साहब।
आपकी महब्बत के लिए बहुत शुक्रिया जनाब तेजवीर साहब।
पागल सी हो गईं हैं शरारों की रौशनी ...
वाह ... बेहद लाजवाब शेर ... डोली दाद कबूल फरमाएं ...
आ. भाई सलीम रजा जी, सादर अभिवादन। इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई।
हार्दिक बधाई आदरणीय सलीम "रजा" रीवा जी। बेहतरीन गज़ल।
उस घर से दूर रहती हैं हरदम मुसीबतें
जिस घर में हो क़ुरान के पारों की रौशनी
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क्या जाने किस ग़रीब पे ढाएगी ये सितम
पागल सी हो गई है शरारों की रौशनी
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