क्या तुम्हें याद है प्रिय
जब मैं औऱ तुम बस यूँ ही
नदी के किनारे चलते चलते
एक छोर से दूसरे छोर तलक
एक दूजे का हाथो में लेकर हाथ
टहलते रहते थे नंगे पाँव!
तुम जल्दी ही थक जाती थीं
औऱ बैठ जाया करती थीं
बेंच पर दोनों हाथ टिकाकर
और टिका देती थीं सर बेंच पर
औऱ मैं यूँ ही टहलता रहता था
सिगरेट के कशों के साथ !
हम दोनों घंटो निहारते रहते थे
एक दूसरे के चेहरे क़ो अपलक
कभी विस्तृत नीले आकाश क़ो
औऱ कभी नदी में ठहरी नाव क़ो
जो कभी कभी करने लगती थी
उन्मादित लहरों से बचने की जंग
अब कुछ नहीँ, कुछ भी नहीं
शेष है तो सिर्फ़ तुम्हारी याद
जो बैठ गई है मेरे अंतर्मन में
और खोजती रहती है शून्य में तुम्हें
कभी बहुत दूर और कभी पास
जो दिलाता है तुम्हारे होने का अहसास
मौलिक व अप्रकाशित
- प्रदीप देवीशरण भट्ट - 07:01:2020
Comment
समर जी आभार आपका
शुक्रिया लक्ष्मण जी
शुक्रिया सुरेंद्र जी
जनब प्रदीप जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
आद0 प्रदीप देवीशरण भट्ट जी सादर अभिवादन। एक अलग रूहानी रचना से रूबरूहोने का मौका दिया आपने,,
तुम जल्दी ही थक जाती थीं
औऱ बैठ जाया करती थीं
बेंच पर दोनों हाथ टिकाकर
और टिका देती थीं सर बेंच पर
औऱ मैं यूँ ही टहलता रहता था
सिगरेट के कशों के साथ !
बधाई स्वीकार कीजिये। सादर
आ. भाई प्रदीप देवीशरण भट्ट जी, सादर अभिवादन।बहुत अच्छी और भावनाप्रधान रचना हुई है ।ढेरों बधाई स्वीकारें ।
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