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इमरान साहब इस बाकमाल गज़ल के लिए ढेरों दाद कबूल फरमाएं|
आओ बरसों से जली आग बुझाई जाये,
आओ नफरत की वो दीवार गिराई जाये.
बहुत खूब...हम आपके साथ हैं
ये लहू देके ,शहीदों ने चमन सींचा था,
आओ उस खून की अब लाज बचाई जाये.
बेहतरीन शेर ....कम से कम इतना तो हर हिन्दुस्तानी का फ़र्ज़ है
हद-ए-ज़वाल की सरहद से हम आगे ही सही,
आओ, के घर लौटके तारीख बनाई जाये.
यक़ीनन ....एक न एक दिन गर्त से बाहर निकलना ही है ...तो क्यों न आज ही सही......
न हो सग़ीर अमल न फसाद-ए-रद्द-ए-अमल,
आओ, इल्ज़ामात की तहरीर मिटाई जाये.
वाह....एकदम सही कहा ....फसाद की जड़ ही रद्दे अमल है....लाजवाब शेर है ...
हर शो'बे पे ये माना के हमें हार मिली,
जीत की, झूटी ही सही, आस जगाई जाये.
बहुत खूब...
इन्तेखाबात की ताक़त तो अभी हाथ में है,
आओ सच्चाई पे ही चाप लगाई जाये.
वाह वाह वाह वाह..यह तो .हासिल ए गज़ल शेर है
लाल परचम न लहू लाल बहाने के लिये,
आओ भूलो को यही बात बताई जाये.
अब गए ज़माने लाल परचम के...शेर पसंद आया
बढ़ गई है म'ईशत में उजालों की कमी,
'इमरान', हर दर पे शमाँ, आज चलाई जायेँ.
ख़ूबसूरत मकता .....
मुशायरे का आगाज़ करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया और बधाई|
मन की कही आपने भाईसाहब, शुक्रिया-शुक्रिया..
विश्वास नहीं करेंगे आप, यही कुछ राणाभाई से हमने ओट में पूछा है.
..... .. हा हा हा हा :-)))
आओ बरसों से जली आग बुझाई जाये,
आओ नफरत की वो दीवार गिराई जाये.
वाह इमरान भाई वाह....बहुत ही उम्दा प्रस्तुति....आपकी रचनाओं को पढना सुखद रहेगा इस मुशायरे में...लिखते रहें ऐसेही....
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