आदरणीय लघुकथा प्रेमियो,
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आदरणीय समर कबीर जी, कथा पर अपना समय देने और अपना विचार देने के लिये आभार. सादर.
भई वाह वाह वाह !! क्या महीन बुनावट की है भाई शुभ्रांशु जीI
//आधा फ़ागुन बीत गया न.. चना और गेहूँ की फ़सलें तैयार हो गयी होंगीं..”// देखने में यह बहुत साधारण से शब्द हैं, किन्तु जिसने ये बोले हैं और जिस परिस्थिति में बोले है, इसे ही कहते हैं उड़ती हुई तितली के परों के रंग गिन लेनाI इस बेहतरीन प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाईI
आदरणीय योगराज सर,
आपसे किसी कथा पर प्रसंशा मिल जाये तो मन मयूर हो जाता है. पटना के दानापुर के पास गाड़ी से जाते समय बस एक झलक एक बूढे को व्यस्त चौराहे पर बैठे देख ये बिम्ब लिया था. कथा पसंद आयी इसके लिये आभार.
फ़ागुन में चना और गेहूँ के फ़सल की तैयारी के मर्म को एक जमीन से जुडा़ ही समझ सकता है.
ओह्ह्ह.. बहुत मार्मिक भोले भाले किसानों को किस किस तरह से लूट कर उनकी खेती की जमीन को हथयाया गया और फिर उस पर भव्य शोपिंग मॉल या होटल बनवाकर किस तरह पैसे बटोरे ..प्रदत्त विषय के अनुसार उस किसान की मनो दशा का सटीक चित्रण किया है
दिल से बधाई लीजिये इस सुन्दर लघु कथा पर आ० शुभ्रांशु जी .
आदरणीया राजेश जी,
कथा पर अपने विचार रखने के लिये धन्यवाद.
सादर.
आदरणीय ओमप्रकाश जी,
रचना पर आने के लिये आभार.
सादर.
आ.शुभ्रांशु पांडे जी “..आधा फ़ागुन बीत गया न.. चना और गेहूँ की फ़सलें तैयार हो गयी होंगीं..”मार्मिक महत्वपूर्ण कथ्य सम्प्रेषित करती रचना के लिए बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीया नयना जी,
कथा के मूल तत्व को समझने के लिये आभार.
सादर.
वर्तमान की विसंगतियों को नकारने और अपने अतीत में जीता हुआ किसान का चित्रण बेहद मार्मिक हुआ है आपके द्वारा आदरणीय शुभ्रांशु पांडेय जी , मन को विहलाती इस शानदार तस्वीर के लिए ह्रदय से बधाई आपको
कथा पर आने और अपने विचार रखने के लिये आभार आदरणीया कान्ता जी,
जनाब शुभ्रांशु पांडेय साहिब ,प्रदत्त विषय को सार्थक करती, अच्छी लघु कथा के लिए ... मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
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