आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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लघुकथा के इस प्रयास पर आपके स्नेह और उत्साहवर्धक टिप्पणी हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया कल्पना भट्ट दी|
आदरणीय चन्देश जी. विषय के अनुरुप आपने सुन्दर कथा कही है. सादर.
सादर आभार आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी सर, आपको यह प्रयास ठीक लगा और अपनी टिप्पणी द्वारा आपने मेरा मनोबल भी बढाया|
// "दोनों हाथों को जोड़ने की कोशिश में हर बार हाथ ही तो बंटे हैं|“//, बहुत बेहतरीन रचना, वाह वाह| बहुत बहुत बधाई आपको
सादर आभार आदरणीय विनय कुमार सिंह जी सर, लघुकथा के इस प्रयास पर आपने अपना अमूल्य समय देकर अपनी प्रतिक्रिया द्वारा मेरा उत्साहवर्धन किया|
गाँधी का चौथा बन्दर
"ये नया ठेकेदार और इंजिनियर दोनों बहुत हरामी हैंI दोनों साले मिलकर सरकार को चूना लगा रहे हैंI सुना है कि ये सीमेंट बेचकर मोटी कमाई भी कर रहे हैं, और....."
शायद पिछले वर्ष की ही बात है जब उसके एक साथी कर्मचारी ने धीरे से उसके कान में कहा थाI इससे पहले कि बात पूरी होती उसने अपने कानो के पर्दों को कई मोटे मोटे तालों में बंद कर दिया थाI उसको ऐसा करते देख, अपने कानों पर हाथ रखकर बैठे बापू का बन्दर मुस्करा उठा थाI यह उन तीन बंदरों में से एक था जिन्हें उसका गांधीवादी बाप उसके कन्धों पर बिठा गया थाI
कुछ हफ्ते पहले ही नए नए बने पुल के गिर जाने से बहुत से लोग मारे गए थेI इस पुल पुल का निर्माण उसी कम्पनी ने किया था जहाँ वह काम करता थाI किसी साथी ने उसे बताया भी था कि कम सीमेंट डालकर घटिया मिक्सचर बनाने का यह काम उसके दफ्तर के पीछे ही हुआ करता थाI वहीँ पैसों का लेनदेन भी होता हैI उसके मन में कई बार सच्चाई को अपनी आँखों से देखने की इच्छा हुई भी, किन्तु अपनी आँखों पर हाथ रखे हुए गाँधी के एक बन्दर ने उसे घूरते हुए बुरा देखने से मना कर दिया थाI
मगर आज तो हद ही हो गई, बाज़ार में तेज़ गति पर मोटर साइकिल चलाते हुए सवार युवक ने उसे पीछे से टक्कर मार दीI वह सड़क से उठा ही था कि यह युवक दनदनाता हुआ उनके सामने आ खड़ा हुआ:
"अबे ओए कांगड़ी पहलवान! साले देखकर नहीं चल सकता क्या?"
“अरे लेकिन मैं ......."
"अबे बकरी की तरह मैं मैं क्या कर रहा है भैण के यार? दूँ क्या दो चार कनटाप?"
"अबे छोड़ यार! बुड्ढा है, मर जाएगा मादर......." युवक के साथी ने उसे खींचते हुए कहाI
गालिओं की बौछार से उनका धैर्य जवाब दे रहा था, क्रोध से नथुने फुलाते हुए वे कुछ बोलने ही वाला था कि बापू के तीसरे बन्दर ने होंठों पर उँगली रखते हुए उसे बुरा बोलने से मना कर दियाI बाकी दो बंदरों ने भी उसकी बात पर सहमति जताईI उसने जलती हुई दृष्टि से देखा तो अचानक वे तीनो बन्दर बहुत ही भद्दे और बूढ़े दिखाई देने लगेI उसने एक झटके से तीनों को अपने कंधों से उतार कर दूर पटक दियाI फिर पास पड़ी हुई ईंट उठाकर पूँछ दबाकर बैठे बंदरों की तरफ हवा में लहरा कर गला फाड़ कर चिल्लाया:
“दफा हो जाओ यहाँ सेI”
(मौलिक और अप्रकाशित)
मोहतरम जनाब योगराज साहिब , बंदरों के माध्यम से प्रदत्त विषय को परिभाषित करती और सन्देश देती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
गाँधी जी का चौथा बंदर अपने स्वाभिमान को नहीं छोड़ सका और समाजोत्थान के लिये आवश्यकता होने पर हिंसा का भी सहारा लेने को मना नहीं करता| बुरा मत सुनो-मत देखो- मत कहो के बाद बुराई से लड़ने का सन्देश देती, हर बार की तरह आपकी यह रचना भी लघुकथा की एक पूरी कक्षा जैसी ही प्रतीत हो रही है| नमन आदरणीय सर|
सादर नमन
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