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र"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-185

परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 185 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा इस दौर के मशहूर शायर तहज़ीब हाफ़ी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है।
तरही मिसरा है:
“तुम्हें कुछ बारिशों से याद आया”
बह्र 1222 1222 122
मफ़ाईलुन्, मफ़ाईलुन्, फ़ऊलुन् है।


रदीफ़ है “से याद आया”और क़ाफ़िया है ‘ओं का स्वर’’
क़ाफ़िया के कुछ उदाहरण हैं, लरजिशों, महफ़िलों, ताकतों, शायरों, मंज़िलों, ख़्वाहिशों आदि
उदाहरण के रूप में, मूल ग़ज़ल यथावत दी जा रही है।
मूल ग़ज़ल यह है:


मुझे इन छतरियों से याद आया
तुम्हें कुछ बारिशों से याद आया।


बहम आई हवा और रौशनी भी
क़फ़स भी खिड़कियों से याद आया।


मिरी कश्ती में उस ने जान दी थी
मुझे इन साहिलों से याद आया।


मैं तेरे साथ चलना चाहता था
तिरी बैसाखियों से याद आया।


हज़ारों चाहने वाले थे इस के
वो जंगल पंछियों से याद आया।


बदन पर फूल मुरझाने लगे हैं
तुम्हारे नाखुनों से याद आया।


मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 नवंबर दिन गुरुवार से प्रारंभ हो जाएगी और दिनांक 28 नवंबर दिन शुक्रवार के समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

तिलक राज कपूर

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

उन्हें जो आँधियों से याद आया

मुझे वो शोरिशों से याद आया

अभी ज़िंदा हैं मेरी हसरतें भी

तुम्हारी हसरतों से याद आया

यूँ पहले मेरा दिल भी टूटता था

अभी रुस्वाइयों से याद आया

कभी आज़ाद और बे-ख़ौफ़ था मैं

मुझे इन बेड़ियों से याद आया

सुहानी धूप थी रातें मुलायम

हवा की तल्खियों से याद आया

कभी गुज़रा तो था इस दौर से मैं

मुझे तन्हाइयों से याद आया

मुझे याद आया बचपन तुम बताओ

तुम्हें कुछ बारिशों से याद आया

- मौलिक अप्रकाशित

उन्हें जो आँधियों से याद आया
मुझे वो शोरिशों से याद आया
याद तो उन्हें भी आया और शायर को भी लेकिन क्या याद आया यह स्पष्ट नहीं हो रहा है।

अभी ज़िंदा हैं मेरी हसरतें भी
तुम्हारी हसरतों से याद आया
हस्रतें तो छाई रहती हैं, किसी की हस्रतें जानकर अपनी हस्रतें याद आना कुछ अजीब लग रहा है।

यूँ पहले मेरा दिल भी टूटता था
अभी रुस्वाइयों से याद आया
पहले कभी दिल का टूटना और अब हो रही रुस्वाई का संबंध स्पष्ट नहीं हो रहा है।

कभी आज़ाद और बे-ख़ौफ़ था मैं
मुझे इन बेड़ियों से याद आया
दूसरी पंक्ति में मात्र एक शब्द ‘मुझे’ की जगह ‘खुली’ बदल कर देखें

सुहानी धूप थी रातें मुलायम
हवा की तल्खियों से याद आया
यह शेर एक विरोधाभास के माध्यम से एक शानदार शेर हुआ।

कभी गुज़रा तो था इस दौर से मैं
मुझे तन्हाइयों से याद आया
शेर में तन्हाई की वर्तमान स्थिति में जो याद आ रहा है वह एक संवाद निरंतरता माना जा सकता है जिसमें अन्य व्यक्ति कुछ कह रहा है और शायर उससे प्रेरित होकर अपना पूर्वकाल याद कर रहा है। ऐसी स्थिति में यह शेर अपने आप में पूर्ण कथन नहीं है।

मुझे याद आया बचपन तुम बताओ
तुम्हें कुछ बारिशों से याद आया
इसमें प्रथम पंक्ति को ‘मुझे बचपन की यादें आ रही हैं’ कर दें तो शेर प्रभावी रहेगा।

 

बहुत शुक्रिया आदरणीय तिलकराज कपूर जी, मैं सुधारने की कोशिश करता हूँ।

आ. भाई शिज्जू शकूर जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। गिरह भी खूब हुई है। हार्दिक बधाई।

शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

आ. शिज्जू भाई,

जल्दबाज़ी में मतले को परिवर्तित करने के चलते अभी संभावनाएं बन रही हैं कि समय के साथ इसे और बेहतर किया जा सके.
.
हसरत अपने आप में मनोभाव है..अत: उस का याद आना थोड़ा खटक रहा है.
.

अभी ज़िंदा हैं मुझ में हसरतें कुछ 

तेरी अटखेलियों से याद आया... ऐसा कुछ प्रयास कीजिये ..मतलब किसी घटना से आपकी कोई फीलिंग जागने का भाव ..
.
.

मुझे आदत है दिल के टूटने की 

नई रुस्वाइयों से याद आया


कभी आज़ाद भी था वो क़फ़स से 
परिंदे को परों से याद आया ..
.

सुहानी धूप थी रातें मुलायम

वफ़ा के मौसमों  से याद आया
.
ग़ज़ल को बहुत ज़ल्दबाज़ी में कहा है अपने अन्यथा आपकी ग़ज़लें हमेशा पूरी उतरती हैं.
ग़ज़ल के लिए बहुत बधाई  




आदरणीय निलेश जी फिलबदी है, कल आपकी ग़ज़ल में टिप्पणी के बाद लिखा है।

आदरणीय शिज्जू भाई, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 

पगों  के  कंटकों  से  याद  आया
सफर कब मंजिलों से याद आया।१।
*
हमें  भी  लौटने   को   घर नहीं है
भटकती ख़्वाहिशों से याद आया।२।
*
कि  घर की  रौनकें हैं  बेटियाँ से
चहकती तितलियों से याद आया।३।
*
तुम्हारी ही महक मुझमें समायी
महकते  उपवनों  से याद आया।४।
*
कि मिट्टी का मकाँ भी गाँव में है
हमें इन बदलियों  से याद आया।५।
*
बुढ़ापे में  सहज  यौवन हमें भी
किसी के रतजगों से याद आया।६।
*
हमें बस झोपड़ी ही याद आयी
"तुम्हें कुछ बारिशों से याद आया"।७।
*
बहारें भी इन्हीं की राह तकतीं
मुझे यह पतझड़ों से याद आया।८।
*
न जाने अब कहाँ होगा "मुसाफिर"
गुजरते  काफिलों  से  याद आया।९।
***
मौलिक/अप्रकाशित

पगों  के  कंटकों  से  याद  आया
सफर कब मंजिलों से याद आया।१।
देखा जाये तो शेर अच्छा बँधा है लेकिन जो बात समझ नहीं आ रही है वो यह है कि व्यवहारिक रूप से हर यात्रा को मंज़िल से जोड़कर ही याद किया जाता है और कंटक मार्ग के होते हैं, पगों के तो घाव होते हैं।

हमें  भी  लौटने   को   घर नहीं है
भटकती ख़्वाहिशों से याद आया।२।
शायद आप यह कह रहे हैं कि अपनी ख्वाहिशों के कारण हम भटकते हुए वहॉं पहुँच गये जहॉं एकाएक यह समझ आ गया कि हम तो घर लौटने लायक भी नहीं बचे हैं।

कि  घर की  रौनकें हैं  बेटियाँ से
चहकती तितलियों से याद आया।३।
शानदार शेर हुआ।

तुम्हारी ही महक मुझमें समायी
महकते  उपवनों  से याद आया।४।
उपरी तौर पर यह एक शानदार शेर दिख रहा है लेकिन महकते उपवन से किसी और की महक शायर में समाने की याद की कड़ियॉं जुड़ नहीं रही हैं।

कि मिट्टी का मकाँ भी गाँव में है
हमें इन बदलियों  से याद आया।५।
शानदार शेर हुआ।

बुढ़ापे में  सहज  यौवन हमें भी
किसी के रतजगों से याद आया।६।

हमें बस झोपड़ी ही याद आयी
"तुम्हें कुछ बारिशों से याद आया"।७।
अच्छी गिरह हुई।

बहारें भी इन्हीं की राह तकतीं
मुझे यह पतझड़ों से याद आया।८।
प्रकृति-चक्र पर शानदार शेर हुआ।

न जाने अब कहाँ होगा "मुसाफिर"
गुजरते  काफिलों  से  याद आया।९।
न जाने अब कहाँ होगा "मुसाफिर" एक प्रश्न हो सकता है स्मृति नहीं। ‘कभी हमने विदा तुमको किया था’ गुजरते काफिलों को देखकर याद आ सकता है लेकिन इसमें रदीफ़ दोष कहा जा सकता है। ‘विदा तुमको किया था इक सफ़र पर’ जैसा कुछ कह कर निराकरण किया जा सकता है।

आ. लक्ष्मण जी,

वैसे तो आ. तिलकराज सर ने विस्तार से बातें लिखीं हैं फिर भी मैं थोड़ी गुस्ताखी करना चाहता हूँ.
.
पगों  के  कंटकों  से  याद  आया
सफ़र बस आबलों से याद आया।१। 
.
चहकती तितलियों से याद आया।३।,,, चिड़िया चहकती है ..तितली कैसे चहकती है?
चमन की तितलियों से याद आया बेहतर होगा 
ऐसे ही छोटे बदलाव कहन को कई गुना बेहतर कर देते हैं.
ग़ज़ल के लिए बधाई 

आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर 

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