आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय तस्दीक अहमद साहब जी। बेहतरीन प्रस्तुति।
मोहतरम जनाब तेजवीर साहिब , लघुकथा में गहराई से शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ---
अच्छी लघुकथा है आ० तस्दीक अहमद खान साहिब, मुबारकबाद हाज़िर हैI
//" पिताजी मैं बेरोज़गारी और आपके तानों से आजिज़ आचुका हूँ ,मुझे दो साल में बेहतर इंटरव्यू देकर और अच्छे नंबर लाकर भी नौकरी नहीं मिल सकी ,शायद यह जनरल में होने की सज़ा है ,लगता है भारत में क़ाबलियत से नहीं बल्कि रिजर्वेशन से नौकरी मिलती है ,आपकी पेंशन से घर का खर्च मुश्किल से चलता है , इसलिए मैं आपको बिना बताये आज रात विदेश जा रहा हूँ ,जब आप यह पत्र पढ़ रहे होंगे मैं आपसे बहुत दूर जा चुका हूँगा "---------//
इतना लम्बा संवाद लघुकथा को बोझिल कर देता है, इसका संज्ञान लेंI
मोहतरम जनाब योगराज साहिब , लघुकथा में गहराई से शिरकत, आपके कीमती मशवरे और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ---
मनस्ताप
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इमारती लकड़ी खरीदने की सलाह लेने, एक दिन मैं टिम्बर मर्चेंट सरदार अवतारसिंह के घर पहुँचा। उनके छोटे छोटे बच्चे, मेरे पहुँचने से पहले धमाचौकड़ी मचाते हुए उनसे कहानी सुनाने की रट लगाये थे। सरदारजी चारपाई पर लेटे, बड़े ही सोच विचार में पड़े थे कि इन्हें क्या सुनाऊँ। अचानक सरदारजी बोले,
‘आओ जी ! त्वानु मापारत दी काणि सुणावां । ‘‘
बच्चे झटपट चारपाई पर उनसे सट कर वैठ गए।
‘‘हाँ जी ! तुसीं मापारत दा नम सुणा, जा नईं ?‘‘ बच्चे कोई हाँ जी बोले कोई न।
‘‘चंगा जी , तँ... मापारत विचों सी... पंज पंडवा । किन्ने जी ? ‘‘
‘‘पंज।‘‘
‘‘हाँ जी ! ता... उना विचों सब तों बड्डा सी दित्तर, ते दूजा बड्डा तकड़ा सी पिंम्म। हैं जी ! ते इक होर... , इक होर..... , ता... इक दा नम मैं पुल गिया जी। ‘‘
इस पर बड़ा बच्चा बोला,
‘‘पापाजी! तुसी पंज विचों दो नम ही दस्से हन, केन्दे हो इक दा नम पुल गिया ? ‘‘
‘‘ओ पुत्तर! मैं कोई पड्या वड्या नईं ना इसलै पुलता वां ‘‘ सरदारजी बड़े दुखी हो बोले।
इसी बीच एक बच्चे ने गेट के पास मुझे देख कर उन्हें ध्यान दिलाया, वे जल्दी उठे और ‘सत्श्रीअकाल जी‘ कहते हुए अन्दर आने का इशारा किया। पहुँचते ही उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से, बच्चों को महाभारत की कहानी सुनाने का निवेदन किया। मैं अपनी कहानी बाद में, पहले महाभारत की कहानी सुनाने लगा। सुनते सुनते सरदारजी बच्चों की तरह अंत तक बड़े ही तल्लीन दिखे।
मैं ने पूछा, ‘‘ सरदारजी ! कि होया? कहानी तो खत्म हो गई।‘‘
जैसे किसी ने सोते से जगा दिया हो, वे बोले
‘‘ ओ जी ! मै साठ साल पिछों चला गिया सी जदों देश दा बटवारा होया, भागमभाग,अपणे परिवार दे नाल लाहौर तों दिल्ली आणे दी धुंधली यादों, माॅंप्यो तों विछुड़ना, स्कूल छूटना, भूखे प्यासे अनेक जगह भटकना आदि सोचने में खो गिया जी ! पर, त्वानु बहुत तनवाद जी ! काश! मैनु भी पढ़ने दा मौका मिल पाया हुंदा तद अजी, इन बच्चयानु मेरी ओर तों इन्नी निराशा न होती ! ‘‘
"मौलिक व अप्रकाशित "
विनम्र आभार आदरणीय।
बटवारे के दर्द को बहुत कुशलता से कह रही है आपकी ये कथा ..हार्दिक बधाई आदरणीय ...सादर
विनम्र आभार आदरणीय। आदरणीया।
मोहतरम जनाब टी आर शुक्ल साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती , बटवारे का दर्द दर्शाती सुन्दर लघुकथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---
विनम्र आभार आदरणीय।
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