आदरणीय साथिओ,
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नासूर - लघुकथा –
दीपक कई साल से किसी अरब देश में एक इलेक्ट्रीशियन के तौर पर कार्य कर रहा था। वर्षों बाद वह अपने गाँव लौटा था। वैसे तो वह हर साल दिवाली पर आता ही था। मगर इस बार वह हमेशा के लिये आगया था। इस बात से उसकी घरवाली लाजो बहुत खुश थी क्योंकि वह घर और बच्चों की जिम्मेदारी अकेले संभालते संभालते थक गयी थी। अब वह कुछ पल पति की बांहों में सुकून से बिताने के सपने देख रही थी।
लेकिन दीपक का व्यवहार उसके लिये एक पहेली बन गया था। इतने लंबे समय बाद लौटने के बावज़ूद दीपक ने उसे छूना तो दूर नज़र भर कर देखा भी नहीं। यह स्थिति लाजो के लिये दिन पर दिन असहनीय होती जा रही थी। वह दीपक की बेरुखी की वज़ह जानने को बेताब होती जा रही थी। आखिरकार लाजो के सब्र का बांध टूट गया,
"क्योंजी, मुझसे कोई भूल हो गयी है क्या। आप पहले तो मुझसे बहुत प्यार करते थे। अब यह दूरी क्यों"?
"अरे नहीं लाजो, ऐसा मत बोल, मेरी कुछ मजबूरी है"।
"तो क्या आपके जीवन में कोई और है"?
"तू कैसी बात कर रही है। मेरी तो सब कुछ तू ही है"।
"पर फिर भी कुछ ऐसा है जो आप मुझसे छिपा रहे हो। इस बार आप बिलकुल बदल गये हो"।
"हाँ लाजो, तू ठीक समझी। मैं अब तेरे क़ाबिल नहीं रहा"।
"आप पहेलियां मत बुझाइये, मुझे सब कुछ सच सच बताइये"।
"नहीं लाजो, मुझसे यह नहीं होगा। मुझे मेरे दर्द के साथ अकेले ही जीने दो"।
"आप सिर्फ़ अपने लिये सोचते हैं। मेरे दुख दर्द की परवाह नहीं"।
"लाजो,मेरी बात सुन कर तेरा दुख और बढ़ जायेगा। तू सुन नहीं सकेगी"।
"मैं सब सुन लूंगी और सह भी लूंगी। आप बताइये तो "।
"लाजो, मुझसे एक भयंकर भूल हो गयी थी । मेरे एक औरत से संबंध हो गये थे। उसका पता चलने पर वहाँ की सरकार ने सज़ा के तौर पर मेरा गुप्तांग काट दिया"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
हार्दिक आभार आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।
हार्दिक आभार आदरणीय अर्चना जी।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी, कुछ देशों में अमानवीयता की हद है. वैसे यह लघुकथा प्रदत्त विषय से कैसे न्याय कर रही है, यह मैं समझ नहीं पाया. मार्गदर्शन निवेदित है. बहरहाल प्रस्तुति हेतु बधाई. सादर
हार्दिक आभार आदरणीय माला जी।यह लघुकथा एक सच्ची घटना से प्रेरित होकर लिखी गयी है।इसमें किसी को असहज़ होने जैसा कुछ भी नहीं है।सच थोड़ा कड़ुवा अवश्य लगता है। ऐसी बातें समाचार पत्रों, दूर दर्शन आदि पर इससे भी बुरे तरीके से पेश की जाती हैं।सादर।
आदरणीया इधर लोगों ने मानवता का किला बनने ही कहाँ दिया है. उसे तो धर्म, संप्रदाय, समाज, रंग, वर्ग, वर्ण, जाति, विरासत, सभ्यता, संस्कृति, प्रथा, परंपरा, अन्धविश्वास, विचारधारा और जाने कितने कारणों के लिए बलि चढ़ाया जाता रहा है. मानवता की अभी ठीक से दीवार भी नहीं बन पाती किला बनाना तो दूर की बात है. जब किला ही नहीं तो ढहेगा क्या?
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