आदरणीय साथिओ,
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आ. रवी प्रभाकर दादा आपकी लंबे अरसे बाद मंच पर उपस्थिति से बडा अच्छा लगा. आपकी दोनो कथाओं के कथानक एकदम हटकर रहे वरना वही बलात्कार, अविश्वास, वृद्धो की उपेक्षा जैसे कथानक से मन क्लांत हो चुका था. "विजेता" लघुकथा बडी ही मार्मिक बनी है. करीब-करीब इसी तरह का वाकया मै पहले देख चूकि हूँ जिसमे बच्ची आटिज्म का शिकार थी. दूसरी लघु कथा "महंगी धूप" को शायद मैने भी जिया है तो वो बडी अपनी सी लगी. बहूत कुछ सीखा है मैनें इन रचनाओ से. सादार धन्यवाद
aअ० रवि जी , दोनों ही कहानियां पभावित करती है . कथा विन्यास कसा हुआ है कुछ विस्तार अवश्य है . सादर .
आदरणीय अग्रज, काफी समय बाद आपकी रचनाओं को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा| दोनों रचनाएँ एक से बढ़कर हैं, सादर विनम्र बधाई स्वीकार करें|
पहली रचना " विजेता " एक दम हट कर है। किसी दिव्याँग का पिता होकर अपने दिल में दबी अपेक्षाओं और आकांक्षाओं की तलाश में सब की ख़ुशी में खुश होना भी बड़ी बात है। जो एक सकारात्मक सन्देश देती है।
दूसरी रचना " मँहगी धूप ",बड़े शहरों की विडम्बना को दर्शाती है। एक मध्यम वर्गीय परिवार खुली हवा, धूप और अपनी छत की चाह में बड़े से बड़ी क़ुरबानी देने को भी तैयार हो जाते हैं और अपना भविष्य दाँव पर लगा देते हैं। आपको बहुत बहुत बधाई।
आदरणीय श्रीमान् रवि जी- दोनों कथानक सार्थक चुने हैं । महँगी धूप तो कुछ-कुछ मेरी अपनी सी कहानी लगी। मध्यमवर्गीय विवशताओं को सीट रूप से उजागर करती लघुकथा । विजेता में जो भाव आपने गढ़ा है वह काबिले तारीफ है। बहुत बधाई ।
सटीक रूप से** पढियेगा
बहुत बहुत उम्दा कथाएँ , आदरणीय रवि प्रभाकर जी , बधाई स्वीकार कीजिये ।
दोनों ही कहानियाँ लाजबाब हुई हैं दिल से बहुत बहुत बधाई आद० रवि प्रभाकर जी
पासबुक
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बिनोद की तबियत इधर बार - बार खराब हो जा रही थी। अपने बूढ़े दादा जी का वही सहारा था। दादा जी उसे बार - बार कहते, "किसी अच्छे डॉक्टर से पूरा चेक अप क्यों नहीं करवा लेता?"
बिनोद दादा जी को समझा नहीं पाता कि उसकी बीमारी लाइलाज है।
आज दादा जी ने जबरदस्ती उसे अपने पासबुक थमाते हुए कहा था, " इसमें ढाई लाख रुपये है। मैंने इसमें अपना हस्ताक्षर किया हुआ चेक का एक पृष्ठ रख दिया है। जाओ और ठीक से अपना इलाज करवाकर ही लौटना।"
बिनोद आज सचमुच अपना इलाज कराने उस पासबुक के साथ गया था। दादा जी अधिक चल फिर नहीं सकते थे। इसलिए वे बिनोद के साथ नहीं जा सके थे।
दो दिनों के बाद बिनोद का दोस्त धीरु पासबुक और खाली पृष्ठ वाले चेक तथा बिनोद के हाथों की लिखी हुई चिट्ठी के साथ लौटा था।
यह सबकुछ उसने दादाजी के हाथों में थमा दिया।
"क्यों यह सब लौटा रहे हो? क्या बिनोद ठीक हो गया। उसने चिठ्ठी में क्या लिखा है। जरा पढ़ो तो।"
धीरु बिनोद का लिखा हुआ पत्र पढने लगा, "दादाजी, आप चिंता न करें। मैं बहुत दूर जा रहा हूँ। वहां इस पैसे की जरूरत नहीं पड़ेगी, इसीलिए लौटा रहा हूँ। आपको इसकी अधिक जरूरत पड़ेगी।"
इसतरह बिनोद ने दादाजी को बाहर हाथ पसारने से बचा लिया।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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भूख
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बूढ़ा मगरमच्छ शरीर से शिथिल हो गया था। हालांकि बाकी मछलियां उसके पास नहीं आती थी। लेकिन छोटी मछलियां उसके आसपास ही तैरती हुई खेलती रहती। वह भूखा रहने पर भी छोटी मछलियों की ओर ताकता भी नहीं था।
एक दिन वह बूढ़ा मगरमच्छ छोटी मछली के पीछे ही लग गया। छोटी मछली पानी में तीव्र गति से भागी जा रही थी। जब भी वह पीछे मुड़कर देखती, मगरमच्छ उसे नजदीक आता हुआ दीखता।
आखिर जब वह तैरते - तैरते थक गई, तो उसने ठान लिया कि अब वह नहीं भागेगी। उसने ठहर कर मगरमच्छ का सामना करते हुए कहा, "तुम मुझे खाना चाहते हो न। आओ, खा लो।"
मगरमच्छ नजदीक आकर बोला, "मैं तो तुझसे यह कहना चाह रहा था कि सारी छोटी मछलियों को कह दो कि मेरे नजदीक नहीं रहे। क्या पता भूख के मारे कब मेरा दिमाग और ईमान बदल जाये?"
और छोटी मछली मगरमच्छ का यह संदेश अन्य मछलियों को सुनाने चल दी।
(मौलिक व अप्रकाशित)
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