आदरणीय साथिओ,
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बरखा की रात
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आधी रात हो चुकी थी। सुबह से लगातार काम करते हुए अब बिस्तर नसीब हुआ था। मगर बरखा की आँखों से नींद गायब थी।तेज़ बारिश के बावजूद मन की तृष्णा बेचैन किए थी। चाचा चाची पहली बार गाँव आए थे। बरखा भयभीत थी। उनका फैसला और दादू की मजबूर आँखें बरखा को रह रह कर उद्विग्न कर देतीं। बरखा धीरे से उठी और दादू के कमरे में झाँका। दादू भी करवटें बदल रहे थे। उसकी आहट पाते ही बोल पड़े:
"अंदर आजा बेटा।" बरखा उनके पास जाकर बैठ गई।
"पानी पियोगे दादू?"
"ला पिला दे आज और... कल से पता नहीं।" उनका स्वर भीग गया था।
बरखा ने उनका माथा सहलाया।
"मैं नहीं जाना चाहती दादू, चाचा चाची मेरी शादी करके पापा का क़र्ज़ उतारेंगे या नहीं, मगर हम दोनों को बेसहारा कर देंगे।
"बरखा!" दादू काँपते स्वर में बोले। "जब से तेरे माँ पापा को खोया अपना दुःख ही भूल गया था रे!..."।
बरखा ने दादू को टोपी पहनाई और हथेलियों को मलने लगी।
"मगर आज... आज लग रहा सब खो दूंगा।"
दादू की हथेलियाँ स्वतः ही बरखा के हाथों को जकड़ रही थीं।
"अरे बरखा तू यहाँ है, कब से बुला रही हूँ मैं।" कहते हुए चाची कमरे में आईं।
"ये देख तेरा एडमिशन फाॅर्म ।"
"मगर कैसा फाॅर्म बहू?"
दादू ने कुछ संशय से कहा।
"पिताजी आप ही ने तो कहा था कि अभी बरखा पढ़ना चाहती है।" चाची ने स्नेह से मुस्कुराते हुए बरखा के सर पर हाथ फेरा।
बाहर की बारिश थम चुकी थी। बरखा के अंदर की तृष्णा भी।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
हार्दिक बधाई आदरणीय शिखा तिवारी जी।बहुत संदेश प्रद और मार्मिक लघुकथा।
अच्छी रचना कही है आदरणीया शिखा जी, कई बार जो होता है वह दिखाई नहीं देता, इस सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें| अंत में आधी रात को चाची जी का फॉर्म लेकर आना, इसे थोड़ा बदला जा सकता है| शेख शहज़ाद उस्मानी जी साहब की तरह ही मेरे अनुसार भी शीर्षक बदला जा सकता है| सादर विचारार्थ,
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