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आपकी प्रशंसा से मुग्ध हूँ आ० कान्ता रॉय जी। रचना को मान बख्शने के लिए हर्दिक आभार।
नमन गुरूजी,
बहुत मार्मिक कहा है, जवान बेटा नहीं तो पिता कहीं का भी नहीं !!
दिल से शुक्रिया भाई चंद्रेश जी।
"मेरे बुढ़ापे का सहारा, मेरा इकलौता जवान बेटा जा चुका है। अब तो भाई मैं कहीं का भी नहीं।" बहुत ही सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई सर ! सादर
हर्दिक आभार भाई हरिप्रकाश जी।
एक बाप और उससे ऊपर एक इंसान का दर्द बहुत बढ़िया से उकेरा है आपने इस लघुकथा में आदरणीय योगराज प्रभाकर सर । किसी व्यक्ति की पहचान बचपन में उसके पिता और बुढ़ापे में उसके पुत्र से होती है और अगर वो बुढ़ापे में अपने पुत्र को खो दे तो उसकी पहचान भी खो जाती है । बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए ।
लघुकथा आपको पसंद आई यह जानकर बेहद प्रसन्नता हुई भाई विनय कुमार जी।
’इस तरफ़’ या ’उस तरफ़’ की बात तबतक चलती है, जबतक अपने बीच व्यक्तिगत पहचान की इकाइयाँ मौज़ूद हों. अपने पुत्र को खो चुके एक पिता की पहचान क्या हो सकती है ? किस पक्ष की वह बात करे ? पात्रों के संवाद में भावना का प्राधान्य इस कथा को एक विशेष ऊँचाई देता है.
एक संवेदनशील विन्दु को गंभीरता से शाब्दिक करती इस लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय योगराजभाईसाहब.
आपकी उपस्तिथि और स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय तल से आभारी हूँ आदरणीय सौरभ भाई जी I रचना की इतने हृदयग्राही शब्द में प्रशंसा करने हेतु सच्चे अंतर्मन से धन्यवाद आपको I
रचना को समय देने एवं सराहने हेतु हर्दिक आभार भाई आ० माला झा जी I
नमन !! इससे अधिक कुछ कहने की सामर्थ्य नही . एक नया अध्याय मुझ जैसे अभ्यासी के लिए सादर
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