आदरणीय साथिओ,
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शहर से मोहभंग और अपने घर वापसी ....रचना की अंतिम पंक्ति कथा की जान है . हार्दिक बधाई इस सूक्ष्म पर सशक्त कथा के लिए
बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर, अंत और बेहतर हो सकता था| बधाई आपको इस रचना पर
आदरनीय अजय गुप्ता जी आप ने सुंदर भावों से सज्जित बहुत सुंदर रचना लिखी है. बधाई
'नीड़' की ओर 'नीड' (लघुकथा) :
'ज़रूरतें' आधार हैं 'निर्माण' की। 'निर्माण' के लिए ज़रूरत है साथी की, परिवार की, समाज और राष्ट्र की... यहां तक की वैश्वीकरण की भी! इन सब ज़रूरतों का अब घोषित या अघोषित सा अनुबंध है तकनीकीकरण, आधुनिकीकरण और व्यापारीकरण से उच्च-स्तरीय या निम्न-स्तरीय स्वार्थों की कसौटियों पर! घोंसले मौजूद हैं प्राकृतिक, कृत्रिम या डिजीटल! ये या तो प्रकृति की देन हैं या तैयार किए गए हैं अथवा बड़ी चतुराई से तैयार करवाये गये हैं उद्योगपतियों द्वारा, देश-विदेश की सरकारों या नेताओं अथवा कलाकरों और साहित्यकारों द्वारा, वैज्ञानिकों द्वारा.... या फिर माफिया, आतंकी संगठनों द्वारा अथवा कट्टरपन्थियों या तानाशाहों के द्वारा! ये घोंसले किसके हैं, किसके लिए हैं, इनमें प्रविष्टि हेतु कौन-कौन अनुबंधित हैं और कौन-कौन प्रतिबंधित? यह भी समय की करवट और स्वार्थों अथवा पारस्परिक-स्वार्थ-विनिमय द्वारा तय हो जाता है स्वाभाविक रूप से या व्यावसायिक रूप से!
नई सदी के परिवारों, समाजों, राष्ट्रों, व्यवसायों, फैशनों और तकनीकी-विकासों और उनके लिए घोषित या अघोषित 'ज़रूरतों' पर विचार-विमर्श होता रहा है। नई दुनिया में घौंसले तलाशे जा रहे हैं या तराशे जाते रहे हैं... धरती पर ही नहीं, बल्कि अंतरिक्ष या ब्रह्मांड में भी!
"ज़रूरतमंद हैरान-परेशान हैं! सब कुछ होते हुए भी बहुत कुछ नहीं है! घर-संसार में, समाज में, देश और दुनिया में; प्रकृति और पर्यावरण में; अंतरिक्ष में; विज्ञान और उसके अनुसंधान में!" मनुष्य भौंचक्का सा सोच रहा है!
"कहां विचरण करना है? किस घोंसले में रहना है? देशी या विदेशी? प्राकृतिक या कृत्रिम; वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक?" पुराने ज़माने और नये ज़माने के बुद्धिजीवियों की सोच उलझती ही जा रही है। नई पीढ़ी दुविधा में भागम-भाग मचाये हुए है!
"आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है! आविष्कार ही विकास का मार्ग है" मनुष्यों के एक बड़े वर्ग का यही समवेत स्वर रहा है!
"नहीं! 'नीड़' की ओर 'नीडी' है इस सदी में। जो विकसित हैं वे 'नीड़' हैं और जो अविकसित या विकासशील हैं, वे 'नीडी' हैं 'ज़रूरतमंद' हैं; बात इंसान की हो, समाज या राष्ट्र की; सबको घोंसले चाहिए!" वास्तव में आज के दौर के मनुष्य का यही राग है, आलाप या प्रलाप है!
'नीड' ले जाती है 'नीडी' को अपने अभीष्ट 'नीड़' की ओर!
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,
नीड़ और नीड़ी की तलाश का बेहतरीन वृतांत । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
मुहतरम जनाब शेख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब आदाब ,आज कल के हालात ब्यानकरती सुन्दर लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।
मेरे इस तरह के प्रयास पर हौसला अफ़ज़ाई करती टिप्पणी के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तस्दीक़ अहमद ख़ान साहिब।
आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी, प्रदत्त विषय को एक अलग से तरह से परिभाषित करने की आपकी कोशिश क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. आप हमेशा कुछ अलग करने के लिए प्रयासरत रहते हैं. आपका यह प्रयास और मौलिक चिन्तन निश्चित ही प्रशंसनीय है. पर यदि आप अपनी बात कुछ पात्रों के माध्यम से थोड़ी सरलता के साथ रखते तो यह बेहतर होता. इस सन्दर्भ में शीर्षक की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है. वह एक क्लू की तरह काम करता है. अतः शीर्षक को एक बार देख लीजिएगा. मेरी तरफ़ से दिल से बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
मेरे इस तरह के प्रयास पर समय देकर विस्तृत टिप्पणी द्वारा मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीय महेंद्र कुमार जी। इसे दूसरी शैलियों में भी लिखने का प्रयास कर कमियां दूर करने की कोशिश करूंगा। वैसे मैंने इसे 'लघुकथा' मानकर ही पोस्ट किया है। कमियों पर अन्य टिप्पणियों की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
नीड़ की नीड का सोच बहुत अच्छा लगा हार्दिक बधाई उस्मानी जी .. पर एक सोच के लघुकथा बनने में कहीं कुछ छूट गया है .
प्रोत्साहन के साथ अपनी राय से अवगत कराने के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।
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