आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आप को इस शानदार लघुकथा के लिए बधाई .
आद0 ओमप्रकाश क्षत्रिय जी सादर लघुकथा पसन्द करने के लिए आभार आपका।
हार्दिक बधाई इस लघुकथा के लिए आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी| आ सर से सहमत हूँ | सादर|
आदरणीय कथानक उम्दा है ।लेकिन वातावरण और भाषा शैली कुछ सहज़ नहीं लग रही । जिसके घर कल का ठिकाना न हो वह निर्धन खुले पैसों से रोज़ नमकीन और टॉफी कभी नहीं लायेगा ।लड़ जायेगा इसके लिए ।वह बच्चे की शिक्षा को लेकर गम्भीर है तो पैसों की कीमत को लेकर भी होगा ।सूरज के सम्वाद उसकी बौद्धिकता को दर्शा रहे हैं ऐसे में उसका इतना निर्धन होना भी स्वाभाविक नहीं।लगता ।हाँ अगर शुरू में भूमिका नहीं बाँधी जाती तो वातावरण और परिवेश की असामंजस्यता नहीं दिखती । सादर ।
आ. सुरेन्द्र जी, यदि प्रारम्भिक दृश्य चित्रण को छोड़ दिया जाए तो यह एक उम्दा लघुकथा है. इस हेतु मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.
सूरज- "बेटा हम गरीब लोग हैं। गरीबों की किस्मत में जैसा कल वैसा आज। हमारा सदा से सिर्फ एक ही इतिहास रहा है 'रोज कुआ खोदना रोज पानी पीना'।" // बहुत मारक यथार्थ पञ्च पंक्ति . हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र जी प्रदत्त विषय पर कही गई इस सफल कथा पर
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी, अंतिम पंक्ति वास्तव में कमाल की बनी है, हार्दिक बधाई स्वीकार करें इस सृजन हेतु| मेरे अनुसार रचना का सार अंतिम छह संवादों में निहित है| सादर,
लघुकथा- इतिहास
रवीना सीमा को सीधीसादी साड़ी और सरलसादे ढंग में देख कर चकित रह गई, '' अरे सीमा तू ! वह अल्हड़, बेरवाह, बातबात पर पैसा उड़ाने और अपने नएनए कपड़े के लिए मशहूर सीमा कहां गई ?''
सीमा ने हंस कर रवीना को गले लगा लिया,'' सीमा तो वही हैं. तू बता कैसी है ?'' कहते हुए सीमा रवीना को ले कर सब्जी खरीदने लगी. वह बीचबीच में रवीना से ढेर सारी बातें कर रही थी.
'' मांजी ! आप सब्जी बहुत महंगी दे रही है. उधर 10 रूपए की आधा किलो मिल रही है.'' वह सब्जी में नुक्स निकालते हुए बोली, '' यह बासी लग रही है.''
सब्जी वाली सीमा के स्वभाव को जानती थी. उस ने सीमा को 10 रूपए की आधा किलो सब्जी दे दी . वह कई सब्जी वाले के यहां गई. कम भाव में सब्जी ली.
रवीन के लिए सीमा का यह रूप नया था. उस से रहा नहीं गया. वह पूछ बैठी , '' अरे यार सीमा ! तू वही है न, जो बिना भाव पूछे चीजें खरीद कर मुंहमांगे पैसे फेंक देती थी.''
'' हां, हूं तो वहीं. मगर, पहले चीजें खरीदना नहीं आता था, अब सीख गई हूं.''
यह सुन कर रवीना हंसी, '' इस बात को मैं नहीं मानती. जरूर कोई बात है.''
'' कुछ नहीं.'' सीमा ने कहा. वह रवीना को बताना नहीं चाहती थी कि जिस व्यापारी पति से उस की शादी हुई थी उस का कारोबार में दीवाला निकल गया था. उसे शिक्षिका की नौकरी करनी पड़ी. मगर, वह प्रत्यक्ष में इतना कह पाई.
'' पहले बाप कमाई से चीजें खरीदती थी अब आप कमाई से, '' यह कहते हुए सीमा के माथे पर दो लकीरें उभर आई.
रवीना ने दो लकीरें में छुपे हुए दर्द को महसूस कर लिया और चल दी.
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(मौलिक व अप्रकाशित )
आद0ओमप्रकाश क्षत्रिय जी सादर अभिवादन। समाज को सीख देती और बेहतरीन पंच के साथ उम्दा लघुकथा।मुझे बहुत पसंद आई। बधाई आपको इस प्रस्तुति पर। सादर
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आप का आभार . आप को लघुकथा पसंद आई.
बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय भाई जी, हार्दिक बधाई प्रेषित है.
//रवीना सीमा को सीधीसादी साड़ी और सरलसादे ढंग में देख कर चकित रह गई, '// को
//सीमा को सीधीसादी साड़ी और सरल सादे ढंग में देख कर रवीना चकित रह गई, '// देने से क्या वाक्य-विन्यास बेहतर नहीं हो जाएगा?
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