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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-34 में शामिल सभी लघुकथाएँ

(1)  आ० महेंद्र कुमार जी 
ज़िन्दा क़ब्रें

अफ्रीका के घने जंगल में दो निर्वस्त्र आदमी एक दूसरे के सामने से गुज़र रहे थे। पास आने पर एक ने पूछा, ‘‘इतिहास से छेड़छाड़...’’, दूसरे ने कहा ‘‘...नहीं होनी चाहिए।’’

किसने सोचा था कि इतिहास को लेकर भी विश्वयुद्ध हो सकता है मगर हुआ। ‘‘उन कमीनों की इतनी हिम्मत कि उन्होंने हमारे महान राष्ट्रपति के चरित्र पर कीचड़ उछाला। कल का सूरज उनके मुल्क़ का आख़िरी सूरज होगा।’’ यही वो चिंगारी थी जिसने आग का रूप धारण कर लिया। इससे दूसरे देशों के नागरिकों ने भी अपनी सरकारों पर दबाव बनाया कि वो भी उन देशों के साथ ऐसा ही सुलूक करें ताकि फिर कोई उनके गौरवशाली इतिहास के साथ छेड़छाड़ न कर सके। शीघ्र ही पूरी दुनिया युद्ध की आग में जलने लगी।

यह भयावह स्थिति बद से बदतर तब हो गयी जब सभी देशों में गृहयुद्ध छिड़ गया। ‘‘दुनिया का जितना भी इतिहास है वो दरबारी है। इसमें महिलाओं की तरह दबे-कुचले लोगों का भी कहीं ज़िक्र नहीं है।’’ वंचित वर्गों के कारण ख़ुद को श्रेष्ठ बताने वाली सभ्यताएँ अब दो मोर्चों पर लड़ रही थीं।

जल्द ही युद्ध को रोकने के लिए इस पर चिन्तन आवश्यक हो गया कि आख़िर हम किस इतिहास को सही मानें? और इस पर भी कि ‘इतिहास से छेड़छाड़’ का क्या अर्थ है? उत्तर यह प्राप्त हुआ कि ‘इतिहास से छेड़छाड़’ का अर्थ ‘सत्य को छिपाना’ है। इसके लिए इतिहासकारों से कहीं ज़्यादा कवि तथा कलाकार ज़िम्मेदार थे। इसलिए उन्हें चौराहों पर चुन-चुन कर लटकाया गया। सत्य को ज़िन्दा रखने का काम दार्शनिकों का था जिसमें वो पूरी तरह से असफ़ल रहे। इससे पहले कि सरकारें उन्हें ढूँढतीं वे यूनान की एक प्राचीन गुफ़ा में जा कर छुप गये।

‘‘मानव इतिहास की शुरुआत अफ्रीका से हुई है।’’ सभी राष्ट्राध्यक्षों ने इसे एकमत से स्वीकार करते हुए युद्ध समाप्ति की घोषणा की और कहा कि ‘‘इसके इतर जितना भी इतिहास है वो सब दूषित है। इसलिए अपने पूर्वजों की भाँति हम भी अफ्रीका के घने जंगलों में निर्वस्त्र होकर रहेंगे।’’ जिन चन्द लोगों ने इसे स्वीकार नहीं किया उन्हें देखते ही मार डालने का आदेश लागू है।

‘‘इतिहास से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।’’ दोनों ने दोहराया और फिर एक दूसरे से दूर जाने लगे। उनमें से एक अभी थोड़ी ही दूर गया होगा कि उसने एक आदमी को पेड़ पर बन्दर की तरह लटके हुए देखा। इससे पहले कि वह पूछता, ‘‘इतिहास से छेड़छाड़...’’, बन्दर की तरह लटके हुए उस आदमी ने अपनी जीभ निकाली और उसे चिढ़ाने लगा।
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(2). आ० तेजवीर सिंह जी 
 धर्मयुद्ध 

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भीष्म पितामह रणभूमि में शर शैया पर पड़े थे। युद्ध लगभग अपने अंतिम दौर में था। कौरवों के अधिकांश योद्धा मारे जा चुके थे। युद्ध का परिणाम अब लगभग पूर्ण रूप से पांडवों के पक्ष में जा चुका था। श्रीकृष्ण और अर्जुन नित्य की तरह युद्ध के बाद भीष्म पितामह की कुशलक्षेम जानने रणभूमि में आये थे।
"प्रणाम पितामह"।
"आयुष्मान भव माधव"।
"आपकी कोई अभिलाषा"?
"आप तो सर्व ज्ञाता हैं, माधव। मेरे लिये युद्ध एक कर्तव्य मात्र था। शारीरिक रूप से मैं कौरवों के साथ था अवश्य, मगर मानसिक रूप से मैं भी पांडवों के ही साथ था"।
"यह बात तो दुर्योधन भी जानता था, तभी तो आपके होते हुए भी इतने बड़े धर्म युद्ध में कर्ण को सेनापति बनाया था"।
"माधव, मेरे विचार से यह केवल नाम का ही धर्म युद्ध था, जबकि अधर्म का खेल दोनों पक्षों द्वारा भरपूर खेला गया था"।
"परंतु मुझे लगता है कि कौरवों ने शुरू से अंत तक केवल अधर्म का ही सहारा लिया था"।
"माधव, आपके दृष्टिकोण से इस युद्ध में सबसे विवादास्पद मृत्यु किस योद्धा की हुयी"?
"अभिमन्यु की"।
"तो क्या कर्ण, जयद्रथ एवम द्रोणाचार्य की मृत्यु युद्ध की नीति के अनुसार उचित थीं"?
"आपने प्रश्न किया था सबसे विवादित। इसलिये इस आंकलन अनुसार अभिमन्यु का नाम ही सर्वोपरि आता है"।
"आपके इस आंकलन के बिंदु क्या थे"?
"अभिमन्यु अल्पायु था। वह निहत्था हो गया था। उस पर एक साथ सात महारथियों ने हमला किया था। सबसे अहम बात उसके पीठ पीछे से  हमला किया गया था"।
"माधव, इस बात से आप भी सहमत होंगे कि यदि आप युद्ध में स्वेच्छा से उतरते हो तो उम्र का सवाल किसलिये।   दूसरी बात  जब अभिमन्यु को चक्रव्यूह तोड़ने का पूर्ण ज्ञान नहीं था तो उसे युद्ध में प्रवेश नहीं करना था, क्योंकि चक्रव्यूह की सुरक्षा का दायित्व सात महारथियों पर ही होता है| तीसरी और अंतिम बात युद्ध और प्रेम में सब कुछ उचित है।वैसे माधव, मेरी राय में, अभिमन्यु की मृत्यु के लिये ,  उसकी माँ सुभद्रा ही अधिक दोषी प्रतीत होती है"।
"गंगापुत्र, आपका आशय क्या है "?
"माधव, जब अर्जुन चक्रव्यूह रचना और भेदन का अत्यंत महत्वपूर्ण वृतांत अपनी पत्नी को सुना रहा था, उस समय वह बीच में सो नहीं गयी होती तो इस धर्म युद्ध का इतिहास कुछ और ही होता"।
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(3). आ० मोहम्मद आरिफ़ जी 
एक पाती
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आदरणीय वर्तमान जी ,
सादर प्रणाम !
आशा है आप सकुशल एवं खुश होंगे । हालाँकि यह झूठ है । पत्र लेखन में सदियों से यह झूठ प्रचलन में है सो मैंने भी बोल दिया ।
आगे समाचार यह है कि मेरा मन इन दिनों दुखी चल रहा है क्योंकि कुछ तथाकथित ज़हरीले तत्व आए दिन मुझे बदनाम कर रहे हैं । हिंसा , आगजनी , तोड़फोड़ , गुंडागर्दी , तीखी बयानबाज़ी , सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान , दुकानों , मकानों , सिनेमाघरों , शॉपिंग मॉल आदि को आग के हवाले कर देना जैसे दृश्य मुझसे देखे नहीं जाते । कुछ झंडाबरदार बन के आ जाते तो कोई धर्म के ठेकेदार । मेरे कहने का आशय आप समझ गए होंगे ।
अंत में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि मेरा लेखा-जोखा जब भी लिखा जाय सोच समझकर और एक-एक तथ्य को सच्चाई की कसौटी पर खरा पाकर लिखा जाय । मैं कभी मरता नहीं । हर सदी में प्रकट हो जाता हूँ ।
सत्य-अहिंसा , धर्म , चरित्र और दयाशीलता को मेरा प्रमाण कहना ।
आपका व्यथित भाई
इतिहास
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(5).  आ० शशि बंसल जी 
फ्रेंड रिक्वेस्ट
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"अरे ! ये क्या , शिवी और फेसबुक पर ?"
फ्रेंड सजेशन में भाई की तस्वीर देख काज़ल ने हर्ष से उसकी प्रोफाइल खोली । सारे कजिन्स को भाई की फ्रेंड लिस्ट में देखकर वह एक पल को सकते में आ गई ।" हमारे बीच तो कोई लड़ाई - झगड़ा नहीं है फिर इसने मुझे फ्रेंड रिक्वेस्ट क्यों नहीं भेजी ? कोई बात नहीं , मैं ही भेज देती हूँ ।" स्वयं से कहते हुए उसकी तर्जनी माउस को दबाने ही वाली थी कि तेजी से अहम का करंट लगा और तर्जनी दूर छिटक गई ।
" क्या बात है भाई ? न न करते आखिर तू भी सोशल साइट पर आ ही गया ।मुझे तो बहुत मना किया करता था , सोशल साइट पर लोग बिगड़ जाते हैं, मैं तो कभी नहीं आऊँगा इस पर ।" राखी पर मायके जाना हुआ तो काजल ने छेड़ने के अंदाज़ में मन की भड़ास निकाल दी ।जवाब में भाई हँसकर रह गया । काजल ने पूछना तो बहुत चाहा " क्यों रे शिवी ! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तूने अभी तक मुझे फ्रेंड रिक्वेस्ट नहीं भेजी ? परन्तु पुनः अहम ने प्रतिहारी बन शब्दों को कंठ से ही वापस लौटने का आदेश दे दिया ।
दो वर्ष गुज़र गये । काजल के भीतर ये बात फाँस की तरह चुभी हुई थी । जब भी मित्रता का नोटिफिकेशन देखती पुलकित हो जाती लेकिन अगले पल मायूसी छा जाती ।उसका अहम समय के साथ सिमेंटेड हो चुका था ।
टप...टप...हाथों पर गर्म बूँदें गिरीं तो आँखों की धुंध छँट गई ।कम्प्यूटर स्क्रीन पर शिवी की मुस्कुराती तस्वीर सामने थी ।काजल ने एक दृष्टि ऊपर दीवार पर परसों टाँगी माला चढ़ी तस्वीर पर डाली फिर कर्सर को "एड फ्रेंड" पर स्थिर कर तर्जनी से माउस को दबा दिया और टेबिल पर औंधा सिर कर फफक कर रो पड़ी ।
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(6). आ० सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी 
जैसा अतीत वैसा वर्तमान 

सूरज को घर आया देख, उसका लड़का जो स्लम के दूसरे बच्चों के साथ खेल रहा था, दौड़ कर आ गया। वह भी इस उम्मीद में कि पापा टॉफी नमकीन आदि लाये होंगे जो अक्सर ही शाम का राशन खरीदते समय फूटकर पैसे न होने से दुकानदार उसके पापा को दे देता है। पर आज दिहाड़ी न मिलने से वह न ही राशन ला पाया और न ही टॉफी। लड़के के बदन पर ही गरीबी अपना असर दिखा रही थी। शर्ट के बटन गायब, पैंट में छेद ही छेद। पैर में गंदगी की मोटी पर्त जमीं हुई है। जूते चप्पल तो जैसे उसके पास है ही नहीं।
सूरज उसको देखते ही पूँछ बैठा- "दिन भर खेल रहे हो।  आज स्कूल नहीं गए थे क्या?"
लड़का-"पापा गए तो थे पर आज स्कूल चला नहीं"
सूरज- "क्यों? क्या हुआ?"
लड़का-"जब हम स्कूल पहुँचे तो कुछ लोग उसे बंद करवाने आ गए, वे लोग किसी फ़िल्म का विरोध कर रहे हैं। कह रहे है कि इतिहास के साथ छेड़खानी नहीं चलेगी। अपनी जाति का अपमान बर्दास्त नहीं करेंगे।
सूरज खुद से बड़बड़ाते हुए बोला-"यह भी एक समस्या है सरकारी स्कूल के साथ। आए दिन कुछ न कुछ होता रहता है।"
"पापा! ये जाति क्या होती है?" लड़के ने जिज्ञासा लिए पूछा।
सूरज लड़के को समझाते हुए बोला-"बेटा! जात-पात सब इंसानो का बनाया हुआ ढकोसला है। हम तो दुनिया मे सिर्फ दो ही जाति समझते हैं, एक अमीर की और एक गरीब की।"
"और पापा! ये इतिहास क्या होता है?" लड़के ने दूसरा प्रश्न दागा 
सूरज -"बेटा जो पहले की घटना हो वह आज के लिए इतिहास होती है।"
लड़का- "पापा सबका इतिहास होता होंगा?"
सूरज- "हाँ! होता तो सभी का है।"
लड़का - "तो पापा हम लोगों का भी इतिहास होगा। बताइये ना हम लोगों का इतिहास क्या है?"
सूरज- "बेटा हम गरीब लोग हैं। गरीबों की किस्मत में जैसा कल वैसा आज। हमारा सदा से सिर्फ एक ही इतिहास रहा है 'रोज कुआ खोदना रोज पानी पीना'।" 
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(7). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
इतिहास

रवीना सीमा को सीधीसादी साड़ी और सरलसादे ढंग में देख कर चकित रह गई, '' अरे सीमा तू ! वह अल्हड़, बेरवाह, बातबात पर पैसा उड़ाने और अपने नएनए कपड़े के लिए मशहूर सीमा कहां गई ?''
सीमा ने हंस कर रवीना को गले लगा लिया,'' सीमा तो वही हैं. तू बता कैसी है ?'' कहते हुए सीमा रवीना को ले कर सब्जी खरीदने लगी. वह बीचबीच में रवीना से ढेर सारी बातें कर रही थी.
'' मांजी ! आप सब्जी बहुत महंगी दे रही है. उधर 10 रूपए की आधा किलो मिल रही है.'' वह सब्जी में नुक्स निकालते हुए बोली, '' यह बासी लग रही है.''
सब्जी वाली सीमा के स्वभाव को जानती थी. उस ने सीमा को 10 रूपए की आधा किलो सब्जी दे दी . वह कई सब्जी वाले के यहां गई. कम भाव में सब्जी ली.
रवीन के लिए सीमा का यह रूप नया था. उस से रहा नहीं गया. वह पूछ बैठी ,  '' अरे यार सीमा ! तू वही है न, जो बिना भाव पूछे चीजें खरीद कर मुंहमांगे पैसे फेंक देती थी.''
'' हां, हूं तो वहीं. मगर, पहले चीजें खरीदना नहीं आता था, अब सीख गई हूं.''
यह सुन कर रवीना हंसी, '' इस बात को मैं नहीं मानती. जरूर कोई बात है.''
'' कुछ नहीं.'' सीमा ने कहा. वह रवीना को बताना नहीं चाहती थी कि जिस व्यापारी पति से उस की शादी हुई थी उस का कारोबार में दीवाला निकल गया था. उसे शिक्षिका की नौकरी करनी पड़ी. मगर, वह प्रत्यक्ष में इतना कह पाई.
'' पहले बाप कमाई से चीजें खरीदती थी अब आप कमाई से, '' यह कहते हुए सीमा के माथे पर दो लकीरें उभर आई.
रवीना ने दो लकीरें में छुपे हुए दर्द को महसूस कर लिया और चल दी.
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(8). आ० तस्दीक अहमद खान जी 
राजनीति
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मास्टर शिव प्रसाद क्लास में इतिहास पढ़ाते हुए बच्चों से बोले:
"बच्चों हमें आज़ादी इतनी आसानी से नहीं मिली ,इसके लिए हिंदुओं और मुसलमानों ने एक साथ मिलकर अँग्रेज़ों के ज़ुल्म का सामना किया और अपनी जान की क़ुर्बानियाँ दीं"
एक बच्चे ने सवाल किया:
"मास्टर जी अब तो हम आज़ाद हैं ,फिर भी देश में ज़ात पात और धार्मिक फ़साद हो रहे हैं ,भाई चारा ख़त्म हो रहा है , एसा क्यूँ है ?"
मास्टर जी ने जवाब में कहा:
"हमारे रहनुमाओं को शायद आज़ादी रास नहीं आ रही है , इसी लिए ज़ात पात और धर्म के नाम पर राजनीति हो रही है "
दूसरे बच्चे ने पूछा:
"अगर एसा चलता रहा तो हमारी आपसी लड़ाई का फ़ायदा अँग्रेज़ों की तरह कोई दूसरा उठा सकता है ,हम फिर गुलाम हो सकते हैं "
मास्टर जी ने जवाब दिया:
"आज कल के रहनुमाओं को सिर्फ़ कुर्सी की फ़िक्र है ,देश की नहीं " 
पीछे से तीसरा बच्चा बोल पड़ा:
"आगे आने वाली पीढ़ियाँ हमारे बारे में क्या सोचेंगी "
मास्टर जी उदास मन से कहने लगे:
"मैं आज जो गर्व से तुम्हें बुज़ुर्गों के इतिहास के बारे में बता रहा हूँ ,आने वाली पीढ़ी इस दौर के इतिहास को पढ़ कर यही कहेगी कि कितने ख़ुद ग़र्ज़ और बे वक़ूफ़ लोग थे जो आज़ादी की धरोहर को संभाल नहीं पाए "
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(9). आ० मनन कुमार सिंह जी 
नयी किरण
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बड़े-बड़े घरानों के बैंक ऋण अनुपार्जक हो चले।एक कंपनी के स्रोतों से दूसरी अन्य कंपनियां फलने -फूलने लगी थीं।मसलन इधर का धन उधर और उधर का धन कहीं और निवेश कर कंपनियों के कर्ता-धर्ता अपने उल्लू सीधे कर रहे थे।उधार-दान करनेवाले उल्लू बनाये जा रहे थे।बहुत सारे बैंकों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे।सरकार चिंतित हुई।कहाँ से उतने सारे धन का जुगाड़ करे कि स्रोत-क्षरण से ग्रस्त बैंकों को निधि मुहैया कराए ताकि वे अपने कार्यकलाप जारी रख सकें। सबने ऋण वसूली सुनिश्चित करने हेतु प्रचलित प्रावधानों को लागू करनेवाली एजेंसियों/निकायों की तरफ देखा।उनमें से अधिकांश एजेंसियाँ उल्लंघन कर्ताओं के सम्मुख नतमस्तक -सी लगीं।देश का धन विदेशों में भेजकर चूककर्त्ता स्वयं भी देश से पलायन करने लगे।जनता ने आँख तरेरी,तो धन-प्रेषण की चरमराई व्यवस्था ने मुँह फिरा लिया।बैंक-ऋण की राशि विदेशों में कैसे पहुँच गयी,इसका वह उचित जबाब नहीं दे सकी।ऋण वसूली प्रधिकारण लज्जित खड़ा था,क्योंकि वह चूककर्त्ता भगोड़े को विदेश जाने से नहीं रोक सका था।सरफेसी के नियम जैसे पहले ही टें बोल चुके हों।लंबी हुज्जत के बाद यदि गिरवी संपत्ति उधारकर्ता बैंकों के अधिकार में आती भी,तो उसे बेचकर अपना ऋण वसूलने में उन्हें नाकों चने चबाने पड़ते।
‎लेकिन अभी प्राची से लाली फूटने लगी थी।नया दिवालियापन कानून आकार ले चुका था।अब ऋण वसूली प्रक्रिया के अनंत काल तक चलने का दौर समाप्त होनेवाला था।कंपनी ऋण का समाधान या कंपनी का विघटन कर उधारकर्त्ताओं की प्राप्य राशि अब नौ महीनों में मिल जाने वाली थी।अपमान झेल रहे ऋण खाते खुश थे।जनता उत्साहित थी।मामले एनसीएलटी के सुपुर्द हो रहे थे।ऋण निपटान के पुरातन नियम अपने इतिहास पर आठ-आठ आँसू रो रहे थे।
-मैं हूँ न',एनसीएल टी सबको ढाढ़स बँधा रही थी।
-एवमस्तु', तनावग्रस्त ऋण खाते चहके।
-जय हो', जनता ने उद्घोष किया ।
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(10). आ० वसुधा गाडगिल जी 
लाल - जोडा

वसीम भाई को मंदिर परिसर में  देख माताप्रसाद ने रोककर आखिर पूछ ही लिया...
" वसीम भाईजान  , एक बात मेरे समझ में नहीं आती... ये तुम  मंदिर की देहरी से अक्सर पोटली ले जाते हो! इस पोटली में भला ऐसा क्या है?" 
" कुछ नहीं...पोटली नही... बडी गठरी है भाई ,किसी की ज़रुरत का सामान है।"
" पहेली न बुझाओ!बता भी दो"
" कहा नं ,किसी कि ज़रुरत.."
" अच्छा चलो मैं ही देखता हूं.." कहते हुए माताप्रसाद ने वह गठरी वसीमभाई के हाथों से छीन ली।
" अरे रेरेरे... उसमें कुछ ख़ास नही है।"
" हें....! लाल चुनरियाँ !!और कहते हो ख़ास नही है!!तुम मातारानी को चढ़ी चुनरियाँ कहाँ ले जाते हो ?क्या करते हो इनका?"माताप्रसाद की त्योंरियाँ चढ़ गयी थीे।
" अरे भाई, सही जगह पहुंचाता हूं।"
" याने!!!"
" परेशान मत हो।वक़्त आने पर सब बता दूंगा।"
" कैसा वक़्त?कौनसा वक़्त?ज़रुर इसमें कोई साजिश है!"
" ख़्वामख़्वाह उलज़लूल बातें ना करो !पंडितजी ने ही इस नेक काम की सलाह दी है।भला साजिश होती तो पंडितजी कैसे देते? "
" बातें न बनाओ!कारण बताओ, जल्दी।"
"बताता हूं..भाई,  दर्ज़ी हूं ...पंडितजी मुझे सारी चुनरियाँ देते हैं, मैं इनके लहंगे-ब्लाऊज़ सिलता हूं और अपनी बस्ती की ग़रीब बेटियों को शादी के लिये लाल-जोडा बनवा देता हूं।बेटियाँ भी माता का प्रसाद पाकर खुशी-खुशी पहनती हैं ।"
" पर तुम्हारा धरम तो... और ये चुनरियाँ??"
" धरम-वरम तो भरेपेट वालों की ज़ुबां होती है!ग़रीबी और ज़रुरत का कोई धरम नही होता मियाँ...!अब चलूं ! पंडितजी ने बड़ी गठरी दी है , बहुत सारे लाल-जोडे सिलने हैं ।" कहते हुए हाथ में बडीसी गठरी थामे वसीम भाई मुस्कुराते हुए घर की ओर चल दिये ...इंसानों के बीच खड़ी मज़हबी कौम की दीवार तोड़ने का नया इतिहास रचने। 
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(11).  आ० डॉ संगीता गांधी जी 
बदलता इतिहास
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महाभारत का युद्ध समाप्त हुए समय गुज़र चुका है । खंडहर हुए हस्तिनापुर की आँखों में अपने गौरवशाली इतिहास के आँसू हैं ।
अपने कक्ष में धृतराष्ट्र बिल्कुल चुप बैठे हैं ।एकदम जड़ , शून्य ,स्पंदन रहित !
“ स्वामी ,मैनें वानप्रस्थ का सारा प्रबन्ध कर लिया है ।”
गांधारी की बात पर धृतराष्ट्र मौन हैं ।
“स्वामी ,आप कई दिनों से मुझसे बात नहीं कर रहे ।अपने मन की बात खुलकर कहें ।”
“ गांधारी ,क्या कहूँ ! तुमने मेरा वंश व जीवन नष्ट कर दिया !”
“ स्वामी ,मैनें ?” गांधारी इस लांछन से अवाक थी ।
“ स्वामी ,समस्त जीवन आपके लिए आँखों पर पट्टी बाँधे रही ।ताकि आपके अंधत्व को अनुभव कर सकूं ।ये उस त्याग का प्रतिफल है ?”
पट्टी बंधी आँखों से अश्रु गालों पर लुढ़क
आये थे ।
“आपके पुत्र मोह ने सारा विनाश किया ।”
अश्रु शब्दों के बाण बनकर बरसे ।
“ गांधारी ,मेरा पुत्र मोह तो था ।पर तुमने माता का कर्तव्य कहां निभाया ?आँखों पर पट्टी बांध पतिव्रता व महान तो बन गयी किंतु सन्तान के प्रति कर्तव्य से विरक्त हो गयी ।”
धृतराष्ट्र के कथन से गांधारी हतप्रभ सी थी ।
“ स्वामी ,साफ साफ कहें ,
क्या कहना चाहते हैं ?”
“ तो सुनो , मैं तो अंधा था ।पर यदि तुमने आँखों पर पट्टी न बांधी होती तो अपनी संतानों को सही संस्कारों की दृष्टि दे सकतीं थीं !”
“ स्वामी ,सब लांछन मुझ पर ?”
गांधारी पर पति के शब्द हथौड़े से प्रहार कर रहे थे ।
सन्तान विहीन धृतराष्ट्र के भीतर जमा पुरुषवादी मवाद फूट पड़ा !
“ गांधारी ,मैं सदा अनुभव करता था कि तुम्हारा पट्टी बाँधना कहीं मेरे प्रति घृणा तो नहीं !”
“ स्वामी ,ये क्या कह रहे हैं ?”
“ हाँ गांधारी ,एक सुंदर ,दृष्टि से सम्पन्न स्त्री का एक अंधे से जबरदस्ती विवाह किया जाए ! हो सकता है वह स्त्री प्रतिशोध व घृणावश आँखों पर पट्टी बाँध ले ।”
धृतराष्ट्र कह चुके !
उनके कहे वाक्यों की गर्म आँच गांधारी के कानों को जला रही थी ।वही गर्म आँच अब चिंगारी बन बरसी ---
“वाह वाह ! स्वामी , यही हैं पुरुषवादी सोच ।सब दोषारोपण मुझ पर !मेरे समस्त त्याग का पुरस्कार ! आखिर एक पुरुष का अहम स्त्री के त्याग को कैसे महत्व दे दे ?”
धृतराष्ट्र चुप थे ।गांधारी के भाव बाँध तोड़कर बह निकले --
”स्वामी ,आपकी हर आज्ञा मानी ।स्त्री होकर द्रोपदी के अपमान पर मौन रही । आपके पुत्र व सत्ता मोह पर अपनी ममता की बलि चढ़ते देखती रही ।”
गांधारी के आहत स्त्रीत्व का निर्णयात्मक स्वर गूँजा -----
“ अब इस बेला में समझ गयी हूँ --स्त्री को पति की अंध अनुगामी नहीं होना चाहिए । अर्धांगिनी को अपने आधे अस्तित्व की स्वतन्त्र सत्ता सदा स्मरण रखनी चाहिए ।”
गांधारी के हाथ आँखों पर बंधी पट्टी तक पहुंच चुके थे ।
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(12). आ० डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
एनकाउंटर

मिलिट्री की जीप नदी घाटी के पास अचानक ख़राब हो गयी. यह सुनसान इलाका था और डाकुओं के लिए कुख्यात था. ड्राईवर बोनट खोलकर गडबड़ी का पता लगाने लगा. जीप शीघ्र ही फिर से स्टार्ट हो गयी, किन्तु इससे पहले कि जवान जीप पर सवार होकर जा पाते, अचानक एक और से गोली चलने की आवाज आयी. जवान खतरे का आभास पाकर सतर्क हो गये. डाकुओं को खबर थी की आज पुलिस का धावा होने वाला है और उन्होंने गलती से मिलिट्री जीप को पुलिस की जीप समझ कर गोलीबारी शुरू कर दी . मिलिट्री जवानों ने भी अपने सीमित संसाधन से पलटवार किया. देखते ही देखते इलाका युद्ध के मैदान में बदल गया. गोलियाँ आग बरसाने लगीं. मिलिट्री के पाँच जवानों ने ग्यारह डाकुओं का काम तमाम कर दिया. बाकी डाकू मैदान छोड़कर भाग गए. पर सभी जवान बुरी तरह घायल हो गये . किसी सुनिश्चित मदद के अभाव में वे दैवीय सहायता की आशा में कराहते हुए पड़े रहे. उनमें हिलने-डुलने की हिम्मत भी न थी. इसी समय डाकुओं की सूचना के मुताबिक राज्य पुलिस की एक गाड़ी वहाँ पहुँची. मिलिट्री जीप को वहां देखकर उन्हें हैरानी हुयी. तभी एक अपेक्षाकृत बेहतर जवान ने इंस्पेक्टर से किसी प्रकार सारी दास्तान बयाँ की और सभी घायल सैनिकों को निकटस्थ हॉस्पिटल तक पहुँचाने का अनुरोध किया . पुलिस ने सर्च-लाईट से सारे क्षेत्र का मुआइना किया. ग्यारह डाकुओं के शव देखकर उनकी बाँछे खिल गयीं. उन्होंने मिलिट्री के जवानों को जीप में लादा और नदी के पुल पर ले जाकर जीप इस प्रकार छोड दी कि वह पुल तोड़ती हुयी नदी में समा गयी . अगले दिन समाचार पत्र में दो खबरें एक साथ छपीं. पहली खबर थी - ‘संतुलन बिगड़ने से मिलिट्री जीप नदी में गिरी , पांच जवान मरे‘ दूसरी खबर थी – ‘डाकुओं से हुए एक एन-काउंटर में राज्य की पुलिस ने ग्यारह डाकुओं का एक साथ सफाया कर इतिहास रचा.’
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(13). आ० नयना(आरती)कानिटकर जी 
 "दो ध्रुव"
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उन दिनों सुलेखा एक खूशबू की तरह उसके वजूद पर छायी हुई थी.  बहुत ख्याल रखता था वह उसका.  शरीर के कण-कण मे विराजमान प्यार में  वह अपना वजूद खोता जा रहा था. बस यही सोचा करता कि उसका प्यार एक इतिहास लिखेगा. कि---
" मैं ठिक से सांस नहीं ले पा रही हूँ ,ऐसा लग रहा है मैं किसी सुरंग में धंस रही हूँ. मैं इतिहास जमा नहीं होना चाहती. मैं रिश्ते में यकीन करती हूँ मगर परंपरागत रिश्ते के दायरे से बाहर. मैं जा रही हूँ सुधीर !."
"  मगर यहाँ खुली स्वच्छंद लड़की कहा रह सकती हैं. उसे कंधे से पकड़ जोर-जोर से हिलाकर गला खकारते हुए  सुधीर बोला"
"पता नहीं आज जिस तरह तुम्हारा दिल तोड़कर जा रही हूँ कल को मेरा कोई तोडे तब शायद.." और  सुलेखा निकल गई थी
वह अपनी  पंगु हो चुकी  भावनाओं  से असली संवेदनाओं के दायरे में आ रहा था कसमसाकर पुरूष जमात की  मुख्य धारा  में  आ रहा था. उसने  अचानक चिल्लाते हुए कहा मैं पुरूष हूँ और यही  मेरी सच्चाई.
वह एकाएक सपने से बाहर आ गया. उनींदी आँखो से देखा सामने  की दीवार पर झुल रही पुश्तैनी घड़ी में दोनों सुईयाँ दो ध्रुवों पर थी. उसमें ठीक छह बज रहे थें.
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(14). आ० नीता कसार जी 
बेटी 
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'ये लो कर लो बात,अभी बहू को आये कितने दिन हुये,जो फिर से भाई लेने आने वाला है।'
सुनिये बहू के मायके फ़ोन करके आप कहिये 'एेसे नही चलेगा ।तीज त्यौहार हमारा घर आँगन सूना क्यों रहेगा ?' पत्नि को आगबबूला देख मोहन लाल चुपचाप सुनते रहे।
'आप ही कहिये जब बहू लग कर ससुराल में नही रहेगी ,कैसे तीज त्यौहार सीखेंगीं?
कैसे उसके मन में ससुराल के लिये जगह बनेगी ? '
'पर कुछ त्यौहार मायके के भी तो होगें ना भागवान ? नयी नवेली है बहू ', मोहन लाल ने पत्नी को सब्ज़ी का थैला थमाते हुये कहा ।
'आपको मेरी नही सुननी है ना जो करना हो सो करो,मैंने जो कह दिया ,तो कह दिया एेसे ही चलता रहा तो फिर निभ गई ।बहू आ गई है अब मैं कुछ ना बोलने वाली,अब मुझे पूछेगा कौन?'
'सब पूछेंगे !!जब हम उसे बेटी मान लेंगे,हमारी अपनी बेटियाँ है ना ,उनके साथ ससुराल में एेसा बर्तावहोने पर हम कितना दुखी रहते थे ,याद नही?हमारी लाड़ली कहते कहते तुम्हारी आँखे कैसी छलछला जाती '
पत्नी की भावभंगिमा बदल गई आँखे फटी की फटी रह गई ऊँगलियाँ मुँह पर,ओह ,
मैं भी ना निरी बुद्धू ठहरी,बेटियाँ तो साँझी होती है ।
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(15). आ० सतविन्द्र कुमार जी 
मेहनत पार लगाए
.
शेल्फ से किताब निकालते हुए हाथ डॉक्टरेट की डिग्री के लिए तैयार की गई थीसिस पुस्तिका पर जा लगा। हिल कर वह सामने आ गई। उसे उठाया और प्यार से सहलाने लगा।
पहला पृष्ठ खोलते ही वहां मुद्रित परिजनों के प्रति समर्पित सन्देश पढ़ते हुए सीना चौड़ा हो गया।
जैसे ही आगे पढ़ना शुरु किया साक्षात दृश्य सामने उभर आए।
पिता जी कह रहे थे, “ अपनी जितनी औकात थी,उससे जियादा जोर लगा दिया भाई। अब और पढ़ाना म्हारे बस का ना है। कोई छोटी-मोटी नौकरी देख ले या काम-धंधा कर ले। अपनी तो कड़ ढिल्ली हो ली है बस।”
गर्दन झुकाए उनकी बातें सुनीं और कहा, “ठीक है जी। आगे पढूँगा तो आपसे कोई खर्चा न मांगूँगा। जैसे बन पड़ेगा खुद देख ल्यूँगा।”
इससे आगे बोलने की हिम्मत भी नहीं रही। भूगोल में स्नातकोत्तर करने के बाद भी खाली ही बैठा था घर पर। यूनिवर्सिटी में सीमित सीटें थी स्कॉलर्स की। प्रवेश परीक्षा में सर्वोच्च रैंक मिला था। मौका नहीं गंवाना था इसीलिए काम भी शुरु किया और पढ़ाई भी।
तीन साल के दौरान चौमासा,सर्दी और गर्मी सभी एक साइकिल पर घूम कर गुजारे। दूर-दूर के गांवों की मैपिंग की। उसका बढ़िया रिकॉर्ड बनाया। पूरे मनोयोग से थीसिस लिखी।
जून की झुलसाती गर्मी में साइकिल पर गांव से बीस किलोमीटर दूर,गाइड के पास तैयार थीसिस लेकर गया। डोर बेल बजायी। तो अंदर से आ रहे अधेड़ प्रोफेसर ने कहा, “ बोलो! क्या काम है?”
“जी.. नमस्ते सर। यह थीसिस पूरी कर चुका हूँ। आप देख लेते।”
“आज वक्त नहीं है कल आना।”
“जी।”
दुपहरी में वापसी की।
लगातार दस दिन ऐसे ही चला। ग्यारहवें दिन गाइड ने कहा, “कल सुबह नौ बजे आ जाना।”
अगले दिन साइकिल बर्दाश्त न कर पाई और बीच रास्ते चेन टूट गई। बमुश्किल खींच-तान करके साढ़े नौ बजे पहुँच पाया।
“मैं तेरा नौकर हूँ, पूरा दिन तेरा इन्तिज़ार करता रहूँगा? भाग यहाँ से। नहीं देखना मुझे कुछ।”
एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा। इतने दिन के धक्के,साइकिल की चेन का टूटना,गर्मी में बुरी हालत और उस पर रुक्ष व्यवहार,संयम जवाब दे गया, “ तेरे जी में क्या है?”
“कैसे बोल रहा है?”
“हाँ सही बोलूँ हूँ, बता?”
आँखों में आई चमक के साथ रौब से, “एक लाख लगेगें। ले आ।”
धीरे-से गेट से बाहर हुआ,सड़क पर आते ही, “ स्साले आ बाहर मैं देखता हूँ तुझे।”
गाइड चुप-चाप घर के अंदर घुस गया।
युनिवर्सिटी में उसके कक्ष में भी हाथापाई हो गई। अन्य प्रवकताओं ने बीच-बचाव कर गाइड बदलने की सलाह दी। ऐसा करने के लिए अर्जी देने गया तो क्लर्क बोला, “ दुर्व्यवहार के कारण तुम तो ब्लैकलिस्टेड हो चुके हो,पंजीकरण रद्द हो गया तुम्हारा।”
हृदय कुंठा से भर गया।
“आज फिर अपने इतिहास में खो गए ज़नाब?”
पीछे से पत्नी ने चुटकी ली तो तन्द्रा भंग हुई।
“ इतिहास ? हाहा.. जिसे मैं रच न सका।”
“मेहनत जो की वह तो काम आई,प्रशासनिक अधिकारी क्या यूँ ही बन गए?”
“सही कहती हो, इंसान ,इंसान के लिए बाधा खड़ी करता है,तो प्रतिभा और मेहनत से अर्जित ज्ञान उसे पार करवाते हैं।”
कहते हुए थीसिस पुस्तिका को पुनः सँभाल कर रख दिया।
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(16). आ०  शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी  
'चश्मे और लकीरें'
.
इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है या जानबूझकर उसे दोहराया जा रहा है। इतिहास बदल रहा है या जानबूझकर उसे बदला जा रहा है। ऐसे ही मुद्दों पर चर्चा करते हुए एक बुद्धिजीवी ने कहा - "किसी इतिहासकार ने सही कहा है कि पिछले पचास साल में इतिहास भारी बदलावों से गुज़रा है, जिसका अंदाज़ा औसत और सामान्य लोगों को शायद बिल्कुल ही नहीं है! उनकी इतिहास की अवधारणा बीसवीं सदी से पहले की ही बनी हुई है!"
इस पर दूसरे साथी ने कहा - "दरअसल इतिहास की पुस्तकें पढ़-पढ़कर लोगों ने इतिहास को उन्हीं इतिहासकारों के चश्मे से देखा है! उनकी नज़र कितनी सही थी, इस बात पर भी उन्हीं के साथी इतिहासकार भी सवाल उठाते रहे हैं!"
"सवाल उठाया जाना कोई बुरी बात है क्या? आपको अगर वह चश्मा पसंद नहीं आ रहा तो आप दूसरा लगा लीजिए!" तीसरे बुद्धिजीवी ने तपाक से कहा।
"मामला पैचीदा है भैया! इतिहास तो दोनों ही सूरतों में बनेगा ना! मैं तो कहता हूं कि जो इतिहास है, वह तो इतिहास ही रहेगा ना! उसे आप बदल कैसे सकते हैं? हां, चश्मे बदलने के बजाय आप नया ऐसा कुछ करें जो इतिहास बन जाए!"
"यही तो किया जा रहा है भाई, लेकिन हर बार एक नई बड़ी लकीर खींच कर!"
"सार्थक या निरर्थक; हास्यास्पद या विवादास्पद?" पहले बुद्धिजीवी ने चुटकी लेते हुए साथियों से कहा।
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(17).  आ० प्रतिभा पाण्डेय जी 
जयचंद
.
जोगिन्दर ने कभी इतिहास नहीं पढ़ा था पर  ये एक नाम जयचंद पिछले छः  महीने से उसकी आत्मा पर दिन रात कोड़े बरसा रहा था I
छः महीने पहले उस दिन देश के सभी अखबारों और टीवी चेनलों पर जोगिन्दर का बेटा सुखविंदर छाया हुआ था I सिपाही सुखविंदर जिसने सेना के गोपनीय कागज़ात दुश्मन देश के एजेंट के हाथों बेच दिए थे I सभी सुखविंदर के लिए कड़ी सजा की माँग कर रहे थे I गाँव की दीवारें   ‘ गद्दार जयचंद को फाँसी दो , देश को बेचने वाले को फाँसी दो’  के नारों से पट गई थीं I
और आज सुबह सुखविंदर की लाश जोगिन्दर के खेत के बरगद पर झूलती मिली I गाँव वालों ,पुलिस और सेना वालो की आवाजाही के बीच, जोगिन्दर बुत बने बैठा थाI उसकी मुट्ठी में वो ख़त भिंचा हुआ था  जो थोड़ी देर पहले सुक्खी का शव उतारते हुए उसकी जेब में मिला था I
" बाउजी मै गद्दार नहीं हूँI  अपनी गद्दारी छिपाने के लिए बड़े ऑफिसरों ने मुझे फँसाया हैI आपको ये बताने  के लिए ही मै जेल से भागा हूँ I मुझे  सीने से लगा कर कह देना कि आपको मुझ पर भरोसा है..बस्स .."
अब तक बुत बना हुआ जोगिन्दर अचानक खड़ा होकर जोर से चीखने लगा  “ मेरा बेटा गद्दार नहीं था! जयचंद नहीं था ! सुन रहे हो ! तुम हो गद्दार  ! मै नहीं छोडूंगा तुम जयचंदों को I’’
बूढा जोगिन्दर  पागलों की तरह चीखता हुआ सेना के लोगों पर पत्थर बरसाने लगा  I
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योगराज प्रभाकर 
(18). कथा-पटकथा
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अभिलेख कक्ष तरह-तरह के भारी भरकम बही-खातों से भरा पड़ा थाI कुछ सुनहरे अक्षरों से लिखे हुए, कुछ मानव रक्त से रंजित, कुछ धूल-मिट्टी से सने हुए तो कुछ बुरी तरह जीर्ण-शीर्णI भारत के इतिहास की हर एक घटना इनके पन्ने अपने अंदर समोए हुए थेI जो भी पन्ना खोला जाता, उस पर उकरे हुए शब्द किसी चलचित्र का रूप धारण कर जीवंत हो उठते और स्वत: पूरी कहानी सुनाने लगतेI वहाँ विचरण करते हुए सहसा भारत माता की दृष्टि, कक्ष के प्रतिबंधित क्षेत्र में फड़फड़ाते हुए एक पन्ने पर पड़ीI मोटी-मोटी बहियों के नीचे दबा हुआ एक पन्ना अत्यंत पीड़ा से कराह रहा था और बाहर आने के लिए छटपटा रहा थाI उसे सावधानी पूर्वक बाहर निकालते हुए भारत माता ने पूछा:
"तुम कौन हो, और तुम्हें यहाँ किसने दबाकर रखा है?"
"माते! मेरे ऊपर पडी हुई धूल साफ़ करके देखें, आपको सब पता चल जाएगाI"
भारत माता ने अपने आंचल से पोंछकर उसे जैसे ही धूल मुक्त किया तो उस पर लिखे अक्षर एक श्वेत-श्याम चलचित्र में परिवर्तित होने लगेI पूरा दृश्य प्रधान मंत्री कार्यालय पर केन्द्रित हो गयाI  
“प्रधान मंत्री सरदार पटेल जी! कबायलियों के भेस में घुस आये शत्रु सैनिकों का सफाया कर दिया गया हैI और आपके आदेशानुसार पाकिस्तान द्वारा हथियाए गए कश्मीर पर भी हमारा कब्ज़ा हो गयाI”
“बहुत खूब नेता जी! भारत के रक्षा मंत्री के रूप में आपका यह योगदान स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जाएगाI”
“धन्यवाद प्रधान मंत्री महोदय! हमारी सेना अब अगले आदेश का इंतज़ार कर रही हैI”
“सुभाष बाबू! आदेश केवल यही है कि अब अगर उस तरफ से कोई भी शरारत हो, तो हमारा अगला लक्ष्य लाहौर पर तिरंगा फहराना होगाI”
“यह क्या है? यह सब तो कभी हुआ ही नहींI” फटी आँखों से उस पन्ने की तरफ देखते हुए भारत माता ने कहाI
“माते! इतिहास में तो यही लिखा जाना था, लेकिन......”
“लेकिन क्या?” भारत माता ने आश्चर्यचकित स्वर में पूछाI
किन्तु उस पन्ने के होंटों पर अचानक हजारों ताले लग गएI भारत माता के माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं. तभी मौन की चादर को चीरते हुए दीवार पर टंगे हुए देश के मानचित्र ने उदास स्वर में कहा:
“देश के योग्य सपूतों को हाशिए पर धकेल दिया गया था माते! और सिंहासन पर विराजमान अंधों ने भावी इतिहास की  पूरी पटकथा ही बदल दी थीI यह सब उसी का परिणाम हैI”
यह सुनते ही भारत माता के शरीर के कई घाव फिर से हरे होने लगे और पूरा कक्ष सिसकियों से भरने लगाI
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(19). आ० अजय गुप्ता 'अजेय जी 
काल-बोध
.
वर्तमान और भविष्य का वार्तालाप
"देखिए आप अपने कार्यकलापों को नियंत्रित कीजिये। क्यों मुझे बर्बाद करने पर तुले हैं।"
"देखो, तुम्हें सुनहरे रंग में रंगने के लिए ये सब हो रहा है। मेरी मेहनत का नतीजा तुम बनोगे। तुम्हारे लिए ही मैं खुद को आग में झोंक रहा हूँ"
"आप ऐसा कर ही क्या रहे हैं! बल्कि आप की वजह से मुझे अभी से कितनी समस्याएं होने लगी हैं इसका आभास भी नहीं आपको।"
"अच्छा! ये चमचमाती दुनिया, ये रिसर्च, ये नित नए अविष्कार, अंतरिक्ष की खोज, ये दवाईयां....ये किस के लिए हैं। बताओ?"
"और ये प्रदूषण, ये नित नई बीमारियां, आपसी फूट, वैश्विक आतंकवाद, अंतरिक्ष कचरा...इनसे किसे जूझना होगा। है जवाब आपके पास!"
"देखो, कल तुम्हें वहीं खड़ा होना है जहां मैं आज हूँ। मुझ से सीख कर अपने आगे वालों को और बेहतर दुनिया दे सकोगे।"
"पता नहीं। पर जहां मैं आज हूँ, कल आप भी वही खड़े थे।"
कोने में खड़े इतिहास के होंठों पर तभी एक अर्थपूर्ण मुस्कान और आंखों में अबूझ वीरानी तैरने लगी।
---------------------
(20). आ० विनय कुमार जी 
दुहराव
.
कम से कम अपनी एकलौती बेटी से उनको यह उम्मीद नहीं थी, आखिर उनके इस समृद्द राजनीति की वह अकेली
वारिस थी. जिस चीज को लेकर उन्होने यह इमारत खड़ी की थी, उसी को नेस्तनाबूत करने की बेटी की हरकत
उनको अंदर ही अंदर साल रही थी.
“बात की गहराई को समझो बेटी, आखिर इस जिद्द से तुमको क्या मिलेगा. तुम यह अच्छी तरह से जानती हो कि
यही मेरी राजनीति का आधार है और तुम इसके खिलाफ ही जाकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जा रही हो”,
उनके स्वर मे क्रोध का पुट आ गया.
“पापा, जरूरी नहीं कि मैं भी उसी ढर्रे पर चलूँ जिसपर आप चलते रहे हैं. मेरा सोचने का नज़रिया आपसे अलग है
और मैं इन चीजों को अपनी जाती जिंदगी से अलग रखना चाहती हूँ”.
“जाती जिंदगी और कैरियर को अलग सोचने की भूल मत ही करो तो बेहतर होगा. तुमको पता नहीं यहाँ कितनी
छोटी छोटी चीजों पर लोगों का कैरियर खत्म हो जाता है”, उसने अपनी बात को ज़ोर देते हुआ कहा.
“मुझे पूरा यकीन है कि इस चीज से मेरे भविष्य पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, आप निश्चिंत रहिए".
"आखिर तुमको उसी लड़के मे क्या दिख गया जो अपने मज़हब के लड़कों मे नहीं दिखा. क्या लड़कों की कमी है
अपने यहाँ?, उन्होने चिल्लाते हुए कहा.
बेटी ने उनको खामोशी से देखा और बोली "आपको भी तो अपने मज़हब की कोई लड़की नहीं मिली थी पापा".
"मेरा समय और था, आज की बात और है", वह कहना चाहते थे लेकिन शब्द उनके हलक मे ही फंसे रह गए. बेटी
ने माँ की टंगी हुई तस्वीर को प्यार से देखा और अपने कमरे मे चली गयी.
------------------------------
(इस बार कोई रचना निरस्त नही की गई है)

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बेहतरीन गोष्ठी और बेहतरीन संचालन/ संकलन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब मंच संचालक महोदय और सभी सहभागी साथियों। मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद। 

हार्दिक आभार भाई उस्मानी जी. 

आद0 भाई योगराज जी बेहतरीन संचालन और त्वरित संकलन के लिए बहुत बहुत बधाई। मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार।

बहुत बहुत शुक्रिया भाई सुरेन्द्र नाथ सिंह जी.  

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी आदाब,

                             लघुकथा गोष्ठी के अंक34 के सफल संचालन, त्वरित प्रकाशन और कुशल मार्गदर्शन के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ ।

हार्दिक आभार आ० मोहम्मद आरिफ़ साहिब. 

आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई साहब, इस बार की गोष्ठी बहुत बढ़िया रही है. टिप्पणियों में भी कुछ गंभीरता का समावेश हुआ है. लघुकथाएं एक से बढ़ कर एक आई है. आप की लघुकथा लाजवाब थी. पढ़ कर इतिहास की लघुकथा और उस के शिल्प पर बहुत कुछ सोचने व समझने को मिला. कई नए शिल्प के दर्शन हुए. कुल मिला कर आयोजन बहुत उम्दा रहा. उस पर आप के मार्गदर्शन ने इस नई ऊंचाई पर पहुँचाने में बहुत सहायता की है. 

आप का त्वरित संकलन हमेशा की तरह सराहनीय व प्रशंसनीय है. जिस की जितनी तारीफ की जाएँ कम है. बधाई इस संकलन के लिए.

वाक़ई इस बार आयोजन में बहुत ही बाकमाल रचनाएँ आईं. आपकी स्नेहिल टिप्पणी हेतु आपका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ. 

आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी हार्दिक बधाई,ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - ३४ की अविश्वसनीय सफ़लता के पीछे आपकी जो संचालन क्षमता, कुशलता, मेहनत, लगन और एकाग्रता झलक रही है, उसे मेरा कोटि कोटि नमन। सही मायने में यह आयोजन कई संदर्भ में ऐतिहासिक ही रहा और इस विषय "इतिहास" को पूर्ण रूप से चरितार्थ कर दिया। मुझे भी पहली बार अपनी लघुकथा से संतुष्टि का आभास हुआ।उसका श्रेय भी आपको ही जाता है।सबसे मुख्य बात, इतना त्वरित संकलन,संपादन और प्रकाशन, वाह, यह तो सोने पे सुहागा, वाली बात हो गयी।पुनः हार्दिक बधाई भाई जी।

बहुत बहुत शुक्रिया आ० तेजवीर सिंह जी. "इतिहास" ने वाक़ई इतिहास रच दिया, जो बहुत ही हर्ष का विषय है. 

मुहतरम जनाब योगराज साहिब ,ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्टी अंक -34 के त्वरित संकलन और बेहद कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।

हार्दिक अभार आ० तस्दीक़ अहमद खान साहिब.

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