आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय वीर मेहता जी।लाज़वाब लघुकथा।
विष बेल
‘‘अरे कोई इस पिलिया का मुँह बन्द कराओ!’’ पोलैण्ड के उस हत्या शिविर के अधिकारी ने रोती हुई बच्ची को एक हाथ से उठा कर लाशों के ढेर पर फेंकते हुए कहा।
फ़ौरन ही एक सैनिक ने बच्ची को वहाँ से उठा कर उस कुँए में डाल दिया जहाँ पहले से ही अनगिनत बच्चों की लाशें तैर रही थीं। वह इन शिविरों में अकेले ही हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारने वाला एक वीर सैनिक था।
बच्ची के ख़ामोश होते ही सभी सैनिक समवेत स्वर में बोल उठे ‘‘हम जल्द ही इस धरती को स्वर्ग बना देंगे।’’
‘‘मुक्त करो इन कीड़ों को।’’ उस अधिकारी ने शिविर में खड़े हुए लोगों की तरफ़ इशारा किया और अपनी कुर्सी पर बैठ गया।
श्रम योग्य पुरुषों को अलग करने के बाद लोगों के सर से बाल उतारने की प्रक्रिया शुरु हो चुकी थी। आगे बढ़कर जैसे ही उस वीर सैनिक ने एक महिला के बाल उतारने की कोशिश की तो वह चौंक गया। वह उसकी प्रेमिका थी। ‘तुम? तो तुम इसलिए मुझे छोड़कर चले गये थे?’ महिला ने आँखों ही आँखों में उससे सवाल पूछा।
वह प्रेमी जो अक्सर अपनी प्रेमिका से कहा करता था, ‘‘मुझे बस दो ही चीज़ें पसन्द हैं, एक तुम्हारी आँखों में डूबना और दूसरा तुम्हारी ज़ुल्फ़ों से खेलना।’’ थोड़ी देर तक वहीं जड़वत खड़ा रहा। फिर उसने अपना उस्तरा निकाला और वही किया जो वह करता आया था।
लोगों को गैस चैम्बर की तरफ़ ले जाने की बारी आ चुकी थी। गैस चैम्बर के दरवाज़े पर पहुँच कर उसने आख़िरी बार अपनी प्रेमिका की आँखों में देखा। झील सूख चुकी थी। उसने प्रेमिका का हाथ पकड़ा और उसे गैस चैम्बर के अन्दर भेज दिया।
इससे पहले कि दरवाज़ा पूरी तरह बन्द होता उस महिला ने अपने प्रेमी से कहा, ‘‘जिस बच्ची को तुमने कुँए में अपने हाथों से फेंका है वह तुम्हारी बेटी थी जिसे तुम मेरी कोख में ही छोड़कर चले आये थे।’’ इतना सुनते ही वह धड़ाम से ज़मीन पर गिर गया।
ज़हरीली गैस चैम्बर के अन्दर भरने लगी। ज़मीन पर बैठे-बैठे ही वह अपनी प्रेमिका को तड़पते और मरते हुए देखता रहा। फिर उसने अपनी पिस्टल निकाली और ख़ुद को गोली मार ली।
(मौलिक व अप्रकाशित)
दूसरे विश्व युद्ध की भयानक विभीषिका को बहुत अच्छे जे उजागर किया।यहुदियों के साथ हिने वाले भयानक और मरणांतक अत्याचारों की याद फिर से दिल दहला गई।अंत भी बहुत बढ़िया बना।इस बढ़िया कथा के लिए बधाई स्वीकार कीजिये आ. महेन्द्र कुमार जी।
इस प्रयास को सराहने हेतु आपका हृदय से आभारी हूँ आदरणीया जानकी वाही जी. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
हमेशा की तरह एक अलग तरह की, अलग स्वाद की रचना। बहुत पसंद आई।
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय अजय जी. आभारी हूँ. सादर.
बड़े ज़ुल्मी लघुकथाकार हैं साहिब! रुलाकर ही छोड़ा! कहां से लाते हैं ऐसे कथानक? लगता है कि गंभीर साहित्यिक अध्ययन चल रहा है। आदरणीया जानकी बिष्ट वाही जी की उपरोक्त टिप्पणी के साथ हार्दिक बधाई आदरणीय महेंद्र कुमार जी!
इस प्रयास की सराहना के लिए हृदय से आभारी हूँ आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी. //कहां से लाते हैं ऐसे कथानक? लगता है कि गंभीर साहित्यिक अध्ययन चल रहा है।// बस सब आप लोगों का स्नेह और प्रेम है. बहुत-बहुत शुक्रिया. सादर.
लाजबाब , बेहतरीन लघुकथा । बधाई ।
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