आदरणीय साथिओ,
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सही बात हैं माहौल इतना दूषित हो गया हैं कि हम सभी को शक की निगाह से देखने लगे हैं।पुरूष भय को दर्शाती बढिया प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आ. अजय गुप्ता जी
ज़माना कुछ ऐसा हो गया है कि हर कोई शक़ की निग़ाह से देखा जाता है. भय और संशय के इस माहौल को व्यक्त करती बढ़िया लघुकथा कही है आपने आदरणीय अजय जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.
1. कुछ-एक संवादों को बढ़ाकर कथ्य को और रोचक बनाया जा सकता है.
2. शीर्षक एक बार पुनः देख लीजिएगा.
सादर.
कुछ बीमार मानसिकता वाले लोगों के आचरण ने भय और अविश्वास पैदा कर दिया है। नाजुक विषय पर बड़ी कुशलता से चली है आपकी कलम। हार्दिक बधाई आपको आदरणीय अजय जी
जनाब अजय साहिब, प्रदत्त विषय पर सुंदर लघुकथा हुई है मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं |
हार्दिक बधाई आदरणीय अजय गुप्ता जी। मनोवैज्ञानिक दर्शन शास्त्र के आधार पर मनुष्य के आंतरिक भय को उजागर करती बेहतरीन लघुकथा।
समय की नज़ाकत है कि अच्छी मंशा से बच्ची को खिलाना चाहे तो आरोप लगने डर बना रहता है ।बधाई कथा के लिये आद० अजय गुप्ता जी ।
वाह वाह! बहुत कमाल के भाव हैं आपकी लघुकथा के. कथानक की ट्रीटमेंट भी कुशलतापूर्वक की गई है. बहरहाल प्रदत्त विषय "डर" को बहुत अच्छी तरह परिभाषित किया है, जिस हेतु आपको ढेरों-ढेर बधाई. श्हेर्शक के बारे में भाई उस्मानी जी की बात का संज्ञान अवश्य लें.
अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार आदरणीय योगराज सर जी।
अन्दर बाहर
"ये बजरंग बांण जो जापे, तासै भूत प्रेत सब काँपें।" घण्टी के साथ जेठ जी का बजरंग बांण पूरे घर में गूँज रहा था।
" जय हो। " अम्मा ने हाथ जोड़कर माथे पर रख लिये।
शांति बिना सर उठाये सिलाई मशीन मे लगी रही।
"तू खुद तो पूजा करती नहीं है बहू, पर घर में पूजा हो रही है तो पल्लू सर पर लेकर हाथ तो जोड़ सकती है।" अम्मा चिढ़ कर बोली।
" काम बहुत है अम्मा।" शांति ने मशीन से सर नहीं उठाया।
"और छोरी भी तेरी दिन भर बाहर खेलने की जिद करती है। बिन बाप की है।कल को कुछ ऊँच नीच हो गई तो हमारे माथे आयगी।बाहर जमाना कित्ता खराब है।" अम्मा ने दूसरा तीर निकाला।
"कैसे डराऊँ अपनी पाँच साल की बच्ची को अम्मा?"मशीन पर चलते उसके हाथ अब रुक गये थे। सास की आँखों में सीधे देख रही थी वो।
" कैसे क्या! जैसे सब बच्चों को डराते हैं। घर से बाहर मत जाना काला भूत है पकड़ लेगा।और..और.." अम्मा की आवाज में सकपकाहट थी।
"बस्स?और घरों के अन्दर के भूत ? उनके बारे में बताऊँ कि नहीं अम्मा?"
आरती की थाली लिये खड़े जेठ को जलती निगाहों से देखते हुए उसने सफेद पल्लू सर पर खींच लिया।
मौलिक व अप्रकाशित
घरेलु यौन शोषण का डर,
बहुत ही अच्छा विषय जिस को घर के लोग ही समाज की लाज के नाम पर दबा देते हैं. बहुत खूब
हार्दिक आभार आदरणीय अजय जी
बहुत ही सामयिक सामाजिक सरोकार की सशक्त कटाक्षपूर्ण और हावी थोपी गई कुसंस्कृति पर उम्दा विचारोत्तेजक सृजन हेतु सादर हार्दिक. बधाई और आभार आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। शीर्षक बढ़िया और दिलचस्प है, लेकिन कोई सटीक साहित्यिक शब्द भी लिया जा सकता है।
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