परम आत्मीय स्वजन,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 41वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का तरही मिसरा इस दौर के अजीमतरीन शायर जनाब बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल से लिया गया है, पेश है मिसरा-ए-तरह...
"इसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चराग़ ले के खड़ा न हो"
इ/1/सी/1/मो/2/ड/1/पर/2 मे/1/रे/1/वा/2/स/1/ते/2 वो/1/च/1/रा/2/ग/1/ले/2 के/1/ख/1/ड़ा/2/न/1/हो
11212 11212 11212 11212
मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुतफाइलुन
(बह्र: कामिल मुसम्मन सालिम )
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 29 नवम्बर दिन शुक्रवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक 30 नवम्बर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा |
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन से पूर्व किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | ग़ज़लों में संशोधन संकलन आने के बाद भी संभव है | सदस्य गण ध्यान रखें कि संशोधन एक सुविधा की तरह है न कि उनका अधिकार ।
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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जी! आदरणीय तिलकराज जी!
इस ओर मेरा ध्यान नही जा पाया था| आपका शुक्रिया अदा करती हूँ!
तुझे गम यही कोई आदमी, किसी हाल तुझसे बड़ा न हो
न वफा मिलेगी तुझे अगर, तेरे दिल मेँ गर जो वफा न हो!..............वाह! बहुत खुबसूरत मतला
बहुत खुबसूरत गजल, दिली दाद कुबूल कीजिये आदरणीया गीतिका जी
वाह वाह खूबसूरत ग़ज़ल से नवाजा है।
ये जहाँ है तेरी ही सल्तनत, तुझे फिक्र होनी ही चाहिए
तू खुदा ये तेरी खुदाई है, कोई सर उठा के खड़ा न हो!
या कि दूर हो, या कि पास हो, मेरी जाँ कभी न उदास हो
वो हमेशा खुश ही रहे खुदा, मेरी जान मुझसे खफा न हो!
न मशाल है मेरे हाथ मेँ, न तो आसमां मे ही चाँद है
इसी मोड पर मेरे वास्ते, वो चराग लेके खड़ा न हो!
नहीं देख पाये जरा भी हम, है मलाल तुम जो चले गए
सरेराह कहती थी तीरगी, कभी सूर्य ऐसा हुआ न हो!
तुझे दूर कर दें नज़र से हम, कि कठिन बड़ा था ये फैसला
भले साथ मेरे न हो भला, कहीं साथ तेरे बुरा न हो!
अच्छी निबाह हो पाई है इस बहर में बडा कठिन सफर रहा है।
आदरणीय मंच संचालक जी से अनुरोध है की उपरोक्त शेयर् को परिवर्तन करने का कष्ट करें!
सादर वेदिका!
तुझे गम यही कोई आदमी, किसी हाल तुझसे बड़ा न हो
न वफा मिलेगी तुझे कहीं, तेरे दिल मेँ गर जो वफा न हो!
ये जहाँ है तेरी ही सल्तनत, तुझे फिक्र होनी ही चाहिए
तू खुदा ये तेरी खुदाई है, कोई सर झुका के खड़ा न हो!
या कि दूर हो, या कि पास हो, न उदास हो कभी जाँ मेरी
वो हमेशा खुश ही रहे खुदा, मेरी जान मुझसे खफा न हो!
यथा संशोधित
आदरणीया गीतिका जी अच्छ अशआर के लिए हार्दिक बधाई|
बहुत खूब प्रिय गीतिका जी, इस कठिन बह्र पर ऐसी खूबसूरत ग़ज़ल कहने का आपका यह प्रयास बेहद अच्छा लगा जोकि बहुत सी आशाएं जगाने वाला है. तक़रीबन सभी अशआर ने मुझे प्रभावित किया है. दिली बधाई स्वीकारें। भाई निलेश जी की राय बेशक़ीमती है, उसका संज्ञान अवश्य लें.
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इस अवसर पर मैं आपकी ग़ज़ल के हवाले से ग़ज़ल के एक दोष का ज़िक्र मंच के साथ साझा करना चाहूँगा जिसे कि अक्सर नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है. आपकी ग़ज़ल के दूसरे और तीसरे शेअर में "ख़ुदा" शब्द आया है. अर्थात यहाँ ख़ुदा को सम्बोधित करते हुए कुछ कहा गया है. आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि "ख़ुदा" या "अल्लाह" को सम्बोधित करते हुए "या" अथवा "ऐ" (यानि "या खुदा" / "ऐ ख़ुदा") का प्रयोग किया जाता है (जैसे कि "हे भगवान"), जिसे हर्फ़-ए-निदा कहते हैं. इसके बगैर ख़ुदा/अल्लाह को सम्बोधित करना ग़ज़ल में एक ऐब माना जाता है.
आदरणीय योगराज सर ये आपने बहुत अच्छी बात बताई है आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय योगराज भाईसाहब, आप बहुत गहन तथ्य सामने ले आये हैं. आपने जो कुछ किया है, वो हमसभी के लिए तार्किक सूचना है. इन्हीं महीनियों से रचनाकारों में भाषाई संस्कार बनता-पगता है और रचनाएँ समृद्ध होती हैं.
आपका सादर आभार, आदरणीय
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