आदरणीय साथिओ,
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बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर आ वीर मेहताजी, आ योगराज सर की टिप्पणी का संज्ञान लीजिएगा. बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए
नियति
ऊंचे पहाड़ों पर जमीं सफेद, चमकीली बर्फ रो रही है। पूर्णिमा की रात चंद्रमा ने समीप आकर बर्फीली चोटियों के आंसू सोखने की चेष्टा अवश्य की, पर बर्फ का दुःख कम होता नहीं दिखा। चंद्रमा से बर्फीली चोटियों ने कहा- ‘‘वे स्वतंत्र होना चाहती हैं, यहां जमे-जमे वर्षों हो गए।’’ बर्फ की पीड़ा सुनकर चंद्रमा धीरे-धीरे बादलों में छिपते-निकलते दूर चला गया। सुबह होने से पहले चंद्रमा ने बर्फ के दुःख और प्रार्थना से सूर्य को अवगत कराया।
सूर्य ने मुस्कुराते हुए अपने तेजरूप से बर्फ को पिघला दिया। बर्फ का पहाड़ देखते-ही-देखते नीचे धंसकने लगा जैसे अपनी आजादी की खुशी मना रहा हो। पलभर में बर्फ पिघलकर पानी-पानी हो गया। वह रूप परिवर्तित कर जंगल, शहर, गांव से नदी के रूप में उछलता-कूदता कल-कल हर्षित बहने लगा, द्रव रूप में बहते हुए जब वह झरना बन नीचे गिरने लगा तो उसे शिखर का स्मरण हो आया, पर ये क्या अब चाहकर भी वह वापस उस ऊंचाई पर नहीं जा सकता था।
धीरे-धीरे वह दोनों ओर किनारों से बंधा हुआ नीचे की ओर बहता चला गया। फिर सीधे खारे पानी के समुंदर में जा गिरा, उसने स्वयं को बहुत रोकना चाहा, पर पीछे से आ रहा पानी उसे आगे की ओर ही धकेलता चला गया। आगे बहते पानी के शोर और बदलते रंग को पीछे से बह रहे पानी ने अनदेखा, अनसुना जो कर दिया था।
मीठा पानी एकदम से खारे समुद्र में आया तो तड़प उठा। ऊंची-ऊंची लहरों से वह बाहर निकलने को आतुर होने लगा, पर वह जितनी ताकत से किनारों से टकराता, बाहर निकलने का प्रयास करता, उतनी ही तेजी से वह गहराई में समा जाता।
रात हुई चंद्रमा को देख लहरें मचल उठीं। ‘‘यहां हम एक पल भी नहीं रह सकते। हमें वहीं वापस पहुंचा दो।’’ अगले दिन सूरज ने अपनी किरणों से पानी को भाप बनाकर उड़ाया और फिर काली घटाएं सघन होकर धरती पर बरस पड़ीं। कुछ बूंदें तो वापस उसी शिखर पर पहुंच कर बर्फ बन गईं, कुछ वापस नदी, समुद्र, वन, शहर, गांव में जा गिरीं। कुछ गड्ढों, पोखरों में पड़े सड़ने को विवश हो गईं। पानी ने अपनी पीड़ा फिर बताना चाही, मगर सूरज-चंद्रमा दोनों ने यही कहा: ‘‘जो कर सकते हैं वह कर रहे हैं, क्या बर्फ का परिणाम भूल गए कि धैर्य और स्वनियंत्रण कितना जरूरी है।’’
मौलिक, अप्रकाषित, स्वरचित
आदरणीय आशीष श्रीवास्तव जी आदाब,
प्रकृति के विभिन्न संसाधन का आज मानवीय क्रूरता के कारण छटपटा रहे हैं । हवा, पानी और पाकृतिक संसाधनों से मानव धीरे-धीरे वंचित होता जा रहा है । समय रहते अगर वह नहीं संभला तो परिणाम भी उसे ही भोगना है । मानवीकरण शैली में लिखीं गई अच्छी फंतासी । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
नियति तो पृथ्वी पर बढ़ता बोझ और बढ़ता प्रदूषण है। सूरज का बढ़ता तापमान और बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग है न! बेहतरीन कथानक पर बेहतरीन परिकल्पना के साथ मानवेतर रचना के ज़रिए पाठकगण को भविष्य की चुनौतियों के प्रति आगाह कराने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय आशीष श्रीवास्तव साहिब। आपकी कल्पना शक्ति और लेखनी ग़ज़ब की है। इस बहुत ही दिलचस्प प्रवाहमय रचना में 'अगले दिन' के इस्तेमाल से ही "कालखंड दोष' से रचना प्रदूषित हो गई। आशय यह है कि बड़ी ही सूझबूझ से थोड़ा और समय देकर कालखंड दोष दूर कर रचना को कसावट देकर बेहतरीन मानवेतर लघुकथा में आप ढाल सकते हैं। ... वैसे इस रचना को केवल मानवेतर पात्रों के कथनोपकथन द्वारा या मिश्रित शैली में कुछ कम शब्दों में सशक्त रूप में भी आप कह सकेंगे, ऐसी आशा करते हैं। हमें भी कुछ सीखने को मिलेगा आपकी लेखनी से। सादर।।
गणित
मंदिर के बाहर प्रसादी पाने की छीना झपट में लगी भीड़ को सत्तू चुपचाप देख रहा था। और दिन होता तो इसी भीड़ का हिस्सा बने अपने साथी भिखारियों से वो अब तक कितनी बार झगड़ चुका होता, दूसरे निकास से निकलते वीआईपी भक्तों को देखकर भगवान् के न्याय पर दांत पीस रहा होता। पर आज वो चुप था। कानों में थोड़ी देर पहले सुने पंडित जी के शब्द गूँज रहे थे। सत्तू को चपचाप सीढ़ियों पर बैठा देख उसका भिखारी यार बिरजू पास आ गया।
"क्यों रे मंदिर के अंदर क्या करने गया था ? सारा परसाद बँट चुका। अब रहियो सारे दिन भूखा। ''
" बस ऐसे ही मन किया कि सुनूँ पंडित जी क्या बोल रहे हैं लोगों से। "
" कुछ भी बोलें तुझे मुझे क्या ? सेठ लोगों की बाते हैं। चल अब। " बिरजू चिढ कर बोला।
" अरे सुन तो। पंडित जी कह रहे थे हमारे दुःख गरीबी सब हमारे पिछले जन्म के कर्मों के फल हैं और ...''
" और क्या ?'' बिरजू ने उसे बीच में काट दिया।
" नहीं कुछ नहीं " सत्तू धीरे से बोला । उसका मन हुआ बिरजू को बिठाकर समझाये कि हमने ही पिछले जनम में पाप किये होंगे जिसका फल इस जनम भोग रहे हैं। भगवान् का क्या दोस। गाडी बंगले वाले सेठों ने अच्छे कर्म किये होंगे पिछले जनम। पर उसे पता था जो गणित उसे समझ आ गया है वो बिरजू नहीं समझ पाएगा।
मौलिक व् अप्रकाशित
आदरणीया प्रतिभा पांडे जी आदाब,
बहुत ही उम्दा और सशक्त संवादों से सुसज्जित लघुकथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करेंं ।
बहुत बढ़िया रचना विषय पर ,बधाई आपको इस सुंदर रचना के लिए आदरणीय प्रतिभा जी ,सादर
"भूख" और "भूखे भिखारियों की पेट-जुगाड़" पर यह उम्दा बेहतरीन लघुकथा और सशक्त हो सकती है यदि पहले अनुच्छेद के भाव संक्षेप में किसी संवाद में लेकर इसे पहले संवाद से ही शुरू किया जाये : //"क्यों रे मंदिर के अंदर क्या करने गया था ? सारा परसाद बँट चुका। अब रहियो सारे दिन भूखा। '' साथी बिरजू ने पंडित जी के प्रवचनों में खोये सत्तू की तंद्रा भंग करते हुए कहा// (एक सुझाव अभ्यास मात्र)
कुछ टंकण-त्रुटियां रह गई हैं, जो संकलन के समय आप सुधार ही लेंगी। बेहतरीन नवीन सृजन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय साहिबा।
सही फ़ैसला
“क्यों तुम ने रश्मि को समझाया कि नहीं ,उस लड़के से उसकी शादी नहीं हो सकती । “मनोहर ने पत्नी मधु से पूछा ।
“हाँ मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की ,पर उसने कहा ,यदि वहाँ शादी नहीं की तो वो कही भी शादी नहीं करेगी ।”मधु ने बताया ।
“अरे ठीक से समझाओ सब मान जाएगी ,मैंने बहुत पैसे वालों के घर उसकी बात चलायी है ,वहाँ राज करेगी ।”मनोहर ने कहा ।
“देखिए जिस लड़के को वो पसंद करती है ,वो भी बहुत अच्छा है ,वहाँ भी वो ख़ुश रहेगी ।”मधु ने कहा ।
“अरे वो लोग हमारे स्तर के नहीं है ।” मनोहर बोला ।
“सोच लीजिए बेटे को आपने उसकी पसंद की लड़की से शादी नहीं करनी दी ,उसे आज भी उस बात का मलाल है ।” मधु बोली ।
“बेटे के लिए कितनी सुंदर बहू लाए है ,क्या वो ख़ुश नहीं है ?”मनोहर ने अचरज से पूछा ।
“आपको क्या मालूम घर में क्या चल रहा है ,बहू को शिकायत रहती है ,बेटा उसे समय नहीं देता ,बेटा कहता है , मै आज भी उस लड़की को भूल नहीं पाया ,मैंने उस से शादी का वादा कर के उसे धोखा दिया है ,बेटी की शादी का परिणाम भी कही ऐसा ही न निकले ।”मधु बोली ।
“ओह अपनी ज़िद के चलते मैं बेटे के साथ अन्याय कर बैठा , अब बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूँगा । “मनोहर ने कहा ।
“कई बार हम अपनी ज़िद के चलते ऐसे फ़ैसले ले लेते है ,कि वो हमें ज़िंदगी भर का दुःख दे जाते है ।”मधु ठंडी साँस लेकर बोली ।
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीया बरखा शुक्ला जी आदाब,
रिश्ता तय करते समय दोनों पक्ष की सहमति आवश्यक है । सोच समझकर लिया गया निर्णय बाद में पश्चाताप करने पर विवश नहीं करता । कथा और भी बेहतर हो सकती थी यदि इसे सीधे-सीधे न कहा गया होता । शुरूआत तो बहुत अच्छी रही लेकिन आगे चलकर सपाट बयानी बन गई । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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