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//‘वो जो डाॅक्टर हैं ना... वो उसका बेटा है.. इसलिए...//
अंत कुछ अतिश्योक्ति लिए हो गया, डाक्टर बेटा नालायक भी निकलेगा तब भी प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए बाप को रिक्शा नहीं चलाने देगा.
आपकी सहभागिता हेतु बहुत बहुत बधाई आदरणीय रवि भाई.
आदरणीय रवि भाई
छतीसगढ़ के कई परिवारों को मैं जानता हूं वहाँ भी मांँ बाप की हालत उस रिक्शेवाली जैसी है और यह भी संयोग है कि दो परिवार के सुपुत्र नामी डाक्टर हैं। लगता है मेडिकल कालेज बिगड़ने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान है।
अच्छी कथा, हार्दिक बधाई
बहुत सटीक कटाक्ष ऐसी औलादों पर जो जिस सीढ़ी पर चढ़कर सफलता की ऊंचाइयां चढ़ती हैं उसी को रास्ते से हटा देती हैं। ऐसा समाज में अक्सर होता आया है। बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।साधुवाद आ. रवि जी।
आदरणीय रवि जी, पूरी झन्नाटेदार...... जहाँ, जैसे और जितना झटका लगना चाहिए बिलकुल वहां वैसे और उतना ही झटका लगा है. शानदार लघुकथा. क्या पंचलाइन आई है हिला कर रख दिया.... बहुत बहुत बधाई इस शानदार, लाजवाब प्रस्तुति पर.
प्रदत विषय पर अप्रतिम प्रस्तुति। हार्दिक बधाई आदरणीय रवि प्रभाकर जी।
आदरणीय रवि प्रभाकर जी, लघु -कथा का अंत जहन पर एक जोर का झटका देती है..... और बहुत से प्रश्न सोचने पर मजबूर कर रही है ! इस बेहतरीन कथा पर हार्दिक बधाई आपको !
अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीय रवी जी। दाद कुबूल कीजिए।
प्रदत्त विषय पर एक बहुत ही प्रभावशाली प्रस्तुति आदरणीय रवि प्रभाकर जी | लघुकथा के माध्यम से जो आप कहना चाहते थे वो बखूबी दमदार तरीके से कह गए | एक पिता पता नहीं कितनी क़ुर्बानियाँ देता है अपने पुत्र को पाल पोस कर सुयोग्य बनाने में लेकिन वही पुत्र सब भूल जाता है | बधाई इस रचना के लिए..
अचम्भित करती कथा . पुत्र के कु- पुत्र होने की पराकाष्ठा .जाने वह कौन सी परिस्तिथि रही होगी कि समर्थ बेटे के होते बाप रिक्शा चला रहा है .कहीं ये स्वाभिमान की रक्षा हेतु अपना पूर्व व्यवसाय जारी रखने की जिद्द तो नहीं .लघु कथा की अनकहे की खूबसूरती बिखेरती कथा .
‘वो जो डाॅक्टर हैं ना... वो उसका बेटा है.. इसलिए...।’ इस से आगे क्या कह सकते हैं -बहुत ही कमाल का पंच
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