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आदरणीय योगराज जी,आज गुरु पूरणिमा है इसलिए सर्व प्रथम तो आपको बधाई देता हूं क्योंकि आप मेरे लघुकथा के गुरु हैं!तत्पश्चात आपकी लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई, हांलाकि हमारा कद अभी इतना नहीं है कि हम आपकी लघुकथा की समीक्षा कर सकें !पर मैं भी वही कहना चाहता था जो नेहा जी ने कह दिया कि यह किसी अपने ही परिचित व्यक्ति की आत्म कथा प्रतीत होती है!पुनः हार्दिक बधाई!
बहुत ही शानदार.. मेरा खुद का भी तजुर्बा है जब इन्सान किसी उपलब्धि को पा लेता है तो वो अपने पीछे वालो को रास्ता नहीं देना चाहता. कहीं उसका रुतबा कम न हो जाये. बहुत गहराई तक छूकर गुज़र गई है आपकी ये रचना. और सन्देश तो इतना बड़ा देकर गई है कि हर कोई आत्मसात कर ले तो दुनिया बहुत आसान हो जाये. एक सशक्त रचना के लिए आपको दिली मुबारकबाद.
वाह! आ सर ,आपका कोई जवाब नही ,बहुत उम्दा ,नमन
आद० योगराज जी आपकी इस प्रस्तुति पर जितना कहा जाये काम होगा . बहुत खुशनसीब होते हैं वे शिष्य जिन्हे स्वार्थ से परे ऐसा गुरु मिलता है . अपने लिए तो सभी सोचते हैं , पर जो दूसरों के लिए सोचे विचार करे , उनके उत्थान में अपनी उन्नति समझे ऐसे गुरु विरले ही होते हैं . और इनकी ही बदौलत सृष्टि सुचारुरूप से चलायमान रहती है . हार्दिक बधाई इस उत्कृष्ट प्रस्तुति पर और बारम्बार नमन ऐसे गुरु को .
दरअसल तालीम एक ऐसी चीज़ है जो जितना बांटो , उतना बढ़ती है , चाहे वो शिक्षा की हो या किसी भी और विषय की | प्रदत्त विषय पर एक बहुत ही बेहतरीन और कमाल रचना आदरणीय योगराज प्रभाकर सर , हम सब इसको अनुभव कर रहे हैं आजकल | बहुत बहुत बधाई इस रचना पर..
बहुत सुन्दर व सच कथा लिख दी आपने। यही सच्चाई है आज की। कोई दूसरे को अपने से आगे जाते देखना नहीं चाहता। बधाई सुन्दर रचना के लिए। आज गुरू पूर्णिमा के अवसर पर आपकी ये लघुकथा बहुत सार्थक सिध्ध हो रही है।
यथार्थ के धरातल पर रचि गई एक अद्वितीय लघुकथा । यह हम सबके ही आस - पास की घटित घटनाओं का हिस्सा हैै । यह कथा कोई सामान्य लघुकथा नहीं है , ये एक अटूट विश्वास की कथा है । ये सच हैै कि शायर ने निज हित त्याग कर , मठाधीशों की कितने कटु आलोचनाओं को सहन करते हुए उस दौर से गुजर कर यह दुःसाध्य कार्य करने का दुःसाहस कर रहे है । सिर्फ अपने हित की सोचते तो उन्हें नवांकुरों में सर खपाने की जरूरत नहीं पडती । वो स्वंय में ही किसी युनिवर्सिटी से कम नहीं है । उन्हें क्या जरूरत इतनी मेहनत की , लेकिन यह उनका योगदान है आनेवाली पीढ़ियों के लिए । उनके द्वारा दिया गया ये योगदान आनेवाली कई दशकों तक याद किया जायेगा ।
सीखे हुए को सिखाना और शुन्य से किसी को उठा कर कुछ लिखने के लिये प्रेरित कर " लिखने लायक " बनाने में बहुत बडा फर्क होता है । हकीकत तो यही है कि सबने यही कहा कि आसमान में सुराख करने चले है इन नवांकुरों के साथ ...! लेकिन पिता के समान धैर्य लेकर सबके माथे पर स्नेहाशीष का हाथ रखकर साबित किया , कि आसमान में भी सूराख हो सकते है बस तबियत से पत्थर उछालने की देर है । अभी इसी बात के संदर्भ में "दुष्यंत कुमार जी " की कविता याद आ गई सो कह गई की ---
कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं होता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो |
सिर्फ आलोचना भर करके पतली गली से निकल लेना बडा आसान होता है । जिगर वाले वो होते है जो हाथ पकड़ कर हर चीज़ खाते है ।
गुरू वंदन अभिनंदन बारम्बार !!!!
और सिलसिला आगे भी चलेगा , इसी आशा के साथ , ढेरों बधाई सशक्त रचना के लिए आ० योगराज प्रभाकर जी
सच है एक एक शब्द .. यही दर्जनों दीवान उसकी कीर्ति पताका लहरायेंगे ऐसा मेरा विश्वास है | ऐसा ही होगा भी निःसंदेह ..नमन श्री
धीरे धीरे आगे बढ़ती हुई यह लघुकथा बहुत जबरदस्त तरीके से अपनी बात रखने में कामयाब हो जाती है। इस शानदार लघुकथा के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय योगराज जी।
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