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आदरणीया अर्चना जी बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. कथानक में कथ्य अपने चरम पर पहुँचता है और पंचलाइन "समधी जी ,ले जाइये अपनी बेटी।मेरे परिवार की बुनियाद में तो घुन लग ही चूका हैं।" गहरे तक प्रभावित करती है. बहुत बहुत बधाई
वाह , बहुत सशक्त लघुकथा प्रदत्त विषय पर | शायद परवरिश में या माहौल में कमी रह गयी थी जिसके चलते बहू का व्यवहार ऐसा था , बधाई इस रचना पर आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी..
आदरणीया अर्चनाजी
क्या खूब संस्कार दिये बेटी को कि ससुराल की बुनियाद हिलाने पर आमादा हो गई।
सुंदर कथा , हार्दिक बधाई
लघुकथा : बुनियाद
गांधी मैदान के एक किनारे तीन नशेरी एक पेड़ की नीचे जहाँ कम रोशनी थी, बैठे शराब पी रहे थे. बीच बीच में मुर्गे की टांग भी खींच रहे थे.
एक ने कहा- मजा आ गया यार ...कहाँ से लाया ये खालिश माल(दारू)
दूसरा- साला! इस शहर से बाहर निकलेगा तब न, तुमको मालूम होगा, कहाँ क्या मिलता है? मेरे मामा ने लाया है! खालिश विलायती है.
तीसरा मुर्गे की टांग खींचते हुए- पर ये मुर्गा भी कम स्वादिष्ट नहीं है. ये एक दम देशी है, साला!
पहला – साले, सारे मुर्गे तू ही मत निगल जाना अभी थोड़ा-थोड़ा शरूर आने लगा है.
तीसरा- जैसे ये मुर्गा तेरे बाप का है, हरामखोर कहीं का
पहला- देख बे साले, बाप मर मत जा, मैं भी तेरे खानदान को अच्छी तरह जानता हूँ. तू हरामी! तेरा बाप हरामी! तेरी ... और अब हाथा–पाई की बारी थी. हाथा-पाई के बाद पिस्तौल से गोली भी छूट ही गयी.
तीनों भाग कर अपने-अपने मुहल्ले में गए और लोगों को जगाया ... गाँधी मैदान के बगल में ही हनुमान जी का मंदिर! मंदिर की पवित्रता भंग हो गयी ... पूरे शहर में यह घटना आग की तरह फ़ैल गयी...लाठी, भाले, तलवारें सब निकल गयी....आग-जनी फिर कर्फ्यू ...
"तीन शराबियों ने मिलकर शहर के 'सर्व-धर्म-समभाव की बुनियाद' को ही हिलाकर रख दिया" – एक बुजुर्ग की टिप्पणी
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