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आदरणीय तेज़वीर जी, क्लिष्टता या अक्लिष्टता विषयजन्य होती है. जिन संदर्भों को यहाँ प्रस्तुत किया गया है वे ऐसे सहज हैं भी नहीं. लेकिन यह भी है कि कुछ विषय प्रस्तुतीकरण में लापरवाही नहीं चाहते.
प्रस्तुति पर समय देने केलिए सादर आभार
बहुत सुन्दर रचना ग्यान वर्धक व शोचनीय भी। सारा जीवन जीने के बाद अंतिम पड़ाव पर आकर भी इन प्रश्नों का सही उत्तर मिलना संभव नहीं हो पाता। हर व्यक्ति के लिए जीवन का सत्य अलग अलग हो सकता है।
जैसे--- "पिताजी, जीवन का सत्य है सफलता ! यानी सुखी जीवन.. सुख-सुविधा, गाड़ी-बंगला, नाम-यश, विवाह-संतान.. यानि कि आनन्द.. " भृगु की आँखें रोमांच से बड़ी हो गयी थीं.-- यह तो थी एक आम आदमी के लिए इसकी उथली परिभाषा।
भृगु ने शिष्टवत आँखें उठायीं - "कर्म.. क्रियाशीलता.. वस्तुतः आनन्द कार्य-प्रक्रिया में है..-- शायद सही परिभाषा थी , जो जीवन के थपेड़ों व ग्यान पिपासा से उपजी थी।
बहुत खूब-- आदरणीय सौरभ पांडे जी इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए, जीवन दर्शन से रूबरू कराने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई।
यह रचना पूरी तरह लघुकथा की श्रेणी में शामिल की जा सकती है या नहीं यह तो आ. योगराज जी बताएं तो बेहतर रहेगा। पुनः साधुवाद। मैं चाहूंगी कि आ. योगराज जी समय निकाल कर मेरी शंका का समाधान करें।
आदरणीया नीरज शर्माजी, पाठक और रचनाकार के तौर पर आपकी संवेदनशीलता को मैं खूब समझता हूँ और हृदयतल से उसे आदर देता हूँ. प्रस्तुति पर समय तथा समझ देने केलिए सादर धन्यवाद
आदरणीय सर, आपकी रचना इतनी गहराई ली हुई है कि इसका मर्म एक बार पढने पर समझ में आना कठिन है| इसकी पंक्तियाँ //.तृप्ति या संतोष - एक प्रक्रिया की अनवरतता का निरुपण है, तो दूसरी प्रक्रिया की पूर्णता का रुपायन है. अब बताओ इनमें से आनन्द किस के कारण संभव है ?" //.... //कर्म.. क्रियाशीलता.. वस्तुतः आनन्द कार्य-प्रक्रिया में है.."//...... //समाज के सर्वसमावेशी स्वरूप को समझने का प्रयास आनन्द की परिभाषा का मूल है, //..... ये सभी मनन करने योग्य हैं| तत्व ज्ञान को पूर्ण समझने के पश्चात् व्यक्ति समाज के लिए asset बन जाता है और समाज को लाभ पहुंचा सकता है| नमन आपको कि यह रचना कहने के लिए आपने इतनी गहराई से सोचाऔर सच्चे आनंद को परिभाषित कर दिया|
आदरणीय चन्द्रेश जी, आपने इस प्रस्तुति पर समय और समझ दी इस हेतु हार्दिक धन्यवाद.
यह लघुकथा, जो अनायास ही सामान्य-सा फ़ॉर्मेट बन गया है, उस दायरे में प्रथम दृष्ट्या फिट नहीं बैठती. लेकिन वही फ़ॉर्मेट स्थापित है ऐसा भी नहीं है. यह अवश्य है कि लघुकथा ऐसे विन्यास को तनिक और साधना है. यह सतत अभ्यास से संभव है.
सादर
आदरणीया कान्ताजी, आपको प्रस्तुति और इसके भावबोध रुचिकर लगे, यह जानना मेरे लिए भी अत्यंत संतोष का कारण हुआ है यही तो हेतु रहा है प्रस्तुतियों का ! विषय तनिक गहन अवश्य है, अतः किस्सागोई शब्दों पर तनिक आश्रित हो गयी है. परन्तु यह विषयजन्य आवश्यकताएँ हुआ करती हैं.
आपने रचना पर समय दिया इस हेतु आपका आभार.
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी, लघुकथा के माध्यम से जीवन का सार ही समझा दिया। बधाई स्वीकार करें।
हा हा हा.. आपकी दृष्टि पड़ी इस ’सार’पर मैं धन्य हुआ आदरणीय विनोदजी.
सादर आभार
आ० सौरभ जी ,इस लघु कथा में आपने भृगु जैसे पात्र का ही नहीं अपने पाठकों का भी इम्तहान ले लिया लगता है --आनंद की परिभाषा जिस दार्शनिक द्रष्टिकोण से लघु कथा में गूंथी है वो सराहनीय है प्रेरणा दायी है बहुत- बहुत बधाई आपको इस गंभीर लघु कथा पर |
आदरणीया राजेश कुमारीजी, इम्तहान लेना तो नहीं हुआ है, अलबत्ता अपने वांगमय को आज के संदर्भ में कहने का मैंने एक छोटा प्रयास अवश्य किया है.
आज हम विश्व-साहित्य को पढ़ते हुए तनिक नहीं हिचकते. विधा की ’आवश्यकता’ के नाम पर हम तमाम ऐसे-ऐसे शब्द अपनी रचनाओं में बलात डालते हैं जिनका सांसारिक उपयोग कभी नहीं है, कहीं नहीं है. लेकिन अपने ’घर’ के साहित्य की ओर झांकते तक नहीं. और तो और, बात थोड़ा ध्यान मांगती हुई लगी नहीं, कि हम बिदक जाते हैं. हम मतलब अधिकांश पाठक जिन्हें ’साहित्य’ से ’लगाव’ है !
आपही देखिये, इस लघुकथा में ही कुछ ही शब्द हैं जिनका वेदान्त से सीधा सम्बन्ध है, लेकिन यह प्रस्तुति ’दुरूह’ की श्रेणी में आगयी है. क्यों ? हमारे तथाकथित ’सेकुलर माइण्ड सेट-अप’ का प्रभाव तो नहीं, जिसने कुछ भी भारतीय के प्रति बवाल मचाया हुआ है ? ज़मीन से कट कर आदरणीया, कौन् सा समाज जीता है. स्वामी दयानन्द सरस्वती का कार्यक्षेत्र वही हरियाणा-पंजाब था न ? क्यों ?
सादर
आदरणीय सौरभ सर, कर्मयोग आधारित इस गंभीर लघुकथा की प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. इस रचना पर पुनः लौटता हूँ. सादर
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