ओपेन बुक्स ऑनलाइन (ओबीओ) के प्रबन्धन द्वारा इसके प्रादुर्भाव काल से ही इसके उद्येश्यों के मुख्य विन्दुओं को सदा से मुखर रखा गया है. साहित्य की विधाओं पर सटीक चर्चा, साहित्यिक विषयों और विधाओं की चर्चा के दौरान सदस्यों से गंभीर भागीदारियों की अपेक्षा सदा से मुख्य विन्दु रहे हैं. सदस्यों से सदा से आग्रह रहा है कि इस तरह के वातावरण का निर्माण हो जहाँ सीखने-सिखाने की एक ऐसी परिपाटी बने ताकि नव-हस्ताक्षर स्थापित रचनाकारों के साथ एक सकारात्मक माहौल को जी सकें. इस क्रम में कहना न होगा कि इस निराली ई-पत्रिका/मंच के संस्थापक सदस्य भाई गणेश जी ’बाग़ी’ तथा प्रधान सम्पादक श्री योगराज प्रभाकर जी की स्पष्ट सोच ने समय-समय पर कई-कई तरह की निर्मूल शंकाओं और दुविधाओं को नकारते हुए सकारात्मकता की पुरजोर लकीर खींची है. इस सद्-प्रयास के क्रम में यह विन्दु भी उभर कर आया कि यह अवश्य हो कि आभासी दुनिया की रचनाकर्मी संज्ञाएँ भौतिक रूप से भी क्रियाशील हों.
इस वर्ष के माह नवम्बर में हुई वाराणसी की गोष्ठी और सम्मिलन, जिसके पीछे भाई अभिनव जी का उल्लेखनीय योगदान रहा है, की सकारात्मक प्रतिक्रिया ने इस बात पर एक तरह से मुहर सी लगा दी कि भौतिक सम्मिलन के पश्चात निर्गत सकारात्मक ऊर्जा रचनाधर्मिता के नये-नये आयाम सामने लाती है. साथ ही, सभी सदस्य अनुभव तथा आत्मविश्वास के लिहाज से कुछ और धनी होते जाते हैं. फिर तो उसी माह के आखिरी दिनों में प्रयाग की पवित्र धरती पर हुआ सम्मिलन समारोह और हुई सफल काव्य-गोष्ठी ने इस बात को सबके सामने बखूबी उजागर किया कि अपना हेतु केवल और केवल साहित्य था और है, न कि साहित्य के नाम पर चलायी जा रही निरंकुश मठाधीशी.
यह भी एक विचित्र सा संयोग रहा था कि इन पंक्तियों का लेखक प्रबन्धन और कार्यकारिणी समितियों के कई-कई सदस्यों से अभी तक साक्षात नहीं मिल पाया था. माह दिसम्बर में एक सुखद संयोग बन रहा था जब गणेशजी बाग़ी और मेरा दिल्ली में एक साथ होना संभव हो पारहा था. इस सुखद संयोग को सदस्य-सम्मिलन और काव्य-गोष्ठी में परिणत करने के उद्येश्य से पटियाला से प्रधान संपादक का अनुमोदन मिल चुका था. ओबीओ कार्यकारिणी के ऊर्जावान सदस्य श्री धर्मेन्द्र शर्माजी, अपने धरम भाई, गुड़गाँव की गलियों से निकल इस हेतु दिल्ली के राजपथ पर आना अपना सौभाग्य कह चुके थे. फिर तो परस्पर संपर्क साधने का काम भाई गणेश बाग़ी जी ने अपने जिम्मे ले लिया.
तय हुआ दिनांक 18 दिसम्बर 2011 का दिन. यह वह मुबारक दिन होना था जब मैं धरम भाई को छोड़ लगभग सभी सदस्यों से पहली बार साक्षात मिलने जा रहा था. सम्मिलन और काव्य-गोष्ठी के लिये स्थान तय हुआ नयी-दिल्ली के राजीव चौक का सेण्ट्रल पार्क जिसके परिसर में पहुँचना सभी के लिये सुलभ था. श्री योगराज भाईजी पटियाला की गहन धुँध और प्रचण्ड कुहरे के सघन आवरण को चीरते हुए समय पर पहुँच गये. धरम भाई, गणेश लोहानी जी, श्रीमती नीलम उपाध्याय जी, मोनिका जैन, वीके उपाध्यायजी, मनीष खन्नाजी भी धीरे-धीरे जुट आये. पटना से चले गणेशभाई जी बारह घण्टे विलम्ब से दिल्ली पहुँच पाये थे. घने कुहरे के रौद्र रूप से सहमी-सिहरी उनकी ट्रेन मंथर-मंथर दिल्ली पहुँच पायी थी. परन्तु गोष्ठी में गणेश भाई समय पर थे. सही है, उत्साह के अपने अलग ही मायने हुआ करते हैं.
साहित्य चर्चा के दौरान ओबीओ के आयोजनों की दशा तथा सदस्यों के साहित्याचरण पर खुल कर बातें हुईं. इस चर्चा में एक बात उभर कर यह भी आयी कि सभी उपस्थित सदस्य एक दिशा और एक भाव में सोचते हैं. और, सभी के लिये साहित्य-साधना ही हेतु है. गोष्ठी के प्रारम्भ में ही सदारत हेतु आदरणीय भाई योगराज जी के नाम का प्रस्ताव मैंने रखा जिसका सभी ने एक स्वर में अनुमोदन कर दिया. गोष्ठी के हर तरह के संचालन का जिम्मा धरम भाई जी के कंधों पर डाल हम सभी संतुष्ट थे. जिस धर्म का आपने गंभीरता से निर्वहन किया.
काव्य-गोष्ठी का प्रारम्भ वैदिक ध्यान से हुआ, ताकि सभी सदस्य कालस्थ व स्वस्थ हो लें. संचालक भाई धरम जी के आग्रही आदेश पर गणेश बाग़ीजी द्वारा रचना-पाठ प्रारम्भ हुआ. बाग़ी जी ने भोजपुरी छंदों और ग़ज़ल के माध्यम से समसामयिक कुरीतियों पर जिस तरीके हमला बोला कि हम सभी आपकी वैचारिक परिपक्वता के कायल हो गये. पारंपरिक कर्म के नाम पर होता हुआ असमय का विवाह हो या कन्याओं के जीवन पर लगा प्रश्न-चिह्न. सब कुछ को समेटे हुए आपने क्या ही स्वर दिया था. भोजपुरी भाषा की मिठास लिये आप अपने विचारोत्तेजक भावों और सस्वर पाठ के कारण सभी की एकाग्रता का कारण बने थे -
जनम लेवे से पहिले, मार दिहलs बिटियन के |
अब पतोहू ना मिले, तs मन बघुआईल काहे ||
कह-मुकरियों में से बानगी -
चोरी छुपे मोहे ताकत बाड़न,
टुकुर-टुकुर निहारत बाड़न,
कहेलन रानी खालs पिज्जा,
ऐ सखी दुलहा, ना रे जीजा !
गणेश भाई द्वारा मुकरियों में ’ना रे !’ कहना ने तो जैसे हमारा मन मोह लिया. सर्वोपरि, विधा में शिल्प के लिहाज से यह एक अभिनव तथा सफल प्रयोग भी था जिसकी सभी ने दिल खोल कर प्रशंसा की.
गणेशजी के हिन्दी कवित्त से बानगी के तौर उद्धृत पंक्तियों से बहरियाते दर्द से भला कौन श्रोता भावयुक्त न हो लेगा -
टीस अब देने लगे, दिल को संबंध कई, जल्द ऐसे संबंधों को, भुलाना मैं चाहता,
दूसरों की खातिर तो, जीता रहा हर पल, खुद के लिए दो पल, चुराना मैं चाहता,
श्रीमती नीलम जी के सरस कंठ से बहती सुरीली अविरल धार ने हम सभी को आनन्द के उस लोक में जा पहुँचा दिया था जहाँ शब्द अक्षर का प्रारूप धारे परमसत्ता की ओर का मार्ग प्रशस्त करते हैं. महाप्राण निराला के कालजयी आह्वान पर आपके सधे स्वर ने मानों जादू-सा कर दिया था -- प्रिय स्वतंत्र रव अमृत मंत्र नव भारत में भर दे.. वर दे !
धरम भाई जी की भाव-प्रवण रचनाओं को इस काव्य-गोष्ठी का सत्त कहा जाय तो तनिक अतिशयोक्ति नहीं होगी. आपकी रचनाओं में विडंबनाओं को लगातार पराजित करती मानवीय जिजीविषा मुखर थी -
क्यों रूठ के बैठी है तितली, बरगदों की शाख पर
है बे-मुरव्वत जिंदगी, उसने खीझ के तनक़ीद की
इन पंक्तियों की गहराई पर हम चकित थे.
या फिर,
उन सरहदों के पार जाकर, उम्मीद कोई छोड़ी नहीं,
रौशनी तो अपनी सोच से है, इतनी सी ताकीद की
संचालक महोदय द्वारा मुझे मिला आदेश मेरे लिये मेरी काव्य प्रक्रिया का अनुमोदन था. अपनी अतुकांत शैली की रचनाओं और नव-गीतों के यथासम्भव प्रयास से मैंने अपनी बात कही. जो बन पड़ा समर्पित किया लेकिन, कहना न होगा कि, उपस्थित सभी विद्वद्जनों द्वारा मिली भूरि-भूरि प्रशंसा ने मेरे उत्साह को बहुगुणित कर दिया था.
फिर तो जो क्षण तारी हुए थे वहाँ मेरे लिये बस इतना भर ही अहसास था -
न द्वंद्व है
न चाह है
न दर्द है
न आह है
कर्म के उद्वेग में शून्य की उठान है
नहीं कहीं है चाहना, नहीं अभी है कामना
बस होश, जोश की बिना पे ताव है... बस आन है !
मेरी रचना ’ना.. तुम कभी नहीं समझोगे..’ की पंक्ति-दर-पंक्ति मिली स्वीकृति ने मुझे अभिभूत कर दिया. इस रचना की भाव-दशा को मिला समवेत सकारात्मक प्रतिसाद मेरे लिये पवित्र प्रसाद सदृश था.
देसज बोल के एक नवगीत की कुछ पंक्तियाँ -
झूम-झूम कर
खूब बजाया
बेतुकी विकास-पिपिहिरी
पीट नगाड़ा
मचा ढिंढोरा
उन्नति फिरभी रही टिटिहिरी
संसदवालों के हम मुहरे
पाँसा-गोटी झेल.. भइया, देखो अपना खेल...
द्वारे बंदनवार प्रगति का पिछवाड़े धुरखेल ..
अनगढ़ उन्नति के लिये टिटहरी का बिम्ब गोष्ठी के अध्यक्ष योगराज भाईजी को बहुत भाया और आपने इसकी विशेष तौर पर सराहना की.
मोनिकाजी, जो रचनाकारों से मिले भाव-शब्दों को विन्दु-विन्दु पीती हुई अपनी वाह-वाहियों से उत्साहवर्द्धन करती जा रही थीं, क्या ही संवेदनापूरित रचना द्वारा सभी को मुग्ध कर दिया. शब्द मानों दृग-कोरों की नमी से प्राण पा दुर्निवार छलके आ रहे हों.
क्या कोई भी ऐसा न रहा....
...
आँखों की भाषा पढ़ लेता
और मेरे ठहरे अश्कों को
अपने हाथों में ले कर के
मोती सा रूप उन्हें देता
आज फिर मेरी आँख की कोर पर आंसू ठहरा
रचना कब, कैसे समाप्त हुई पता ही न चला.
समय अपनी प्रवृति के अनुसार सरपट भागा जा रहा था. आखीर में, गोष्ठी अध्यक्ष आदरणीय योगराज जी आये और आप क्या आये ! लुप्तप्राय छंद विधा ’छन्न-पकैया’ को न केवल पुनर्जीवन मिल रहा था बल्कि आपके एक-एक छंद आपकी गहन संवेदना, उच्च विवेचना और भाषायी प्रौढ़ता की बखान आप कर रहा था. क्या अंदाज़, क्या तेवर और क्या प्रवाह. संध्या भर-भर उठी थी.
छन्न-पकैया छन्न-पकैया, छन्न के ऊपर बिंदी
भाषाओं में पटरानी है मेरी माता हिन्दी !!
छन्न-पकैया छन्न-पकैया, बात नहीं है छोटी
भरे देश के जो भण्डारे, उसको दुर्लभ रोटी !!
या फिर,
छन्न-पकैया छन्न-पकैया, छन्न पकेगी हंडिया
भारत ज़िंदा अगर रहा जो तभी बचेगा इंडिया !!
धनातिरेक के कुबेरी विलास को जीती आत्ममुग्ध दिल्ली की गोद में साधिकार बैठ कर इंडिया की औकात को ललकारते हुए योगराज भाईजी को सुनना रोमांचित कर गया था. कहना न होगा, योगराज भाईजी ने इन द्विपदियों में क्या कुछ नहीं समेटा था ! कितने रूप हैं भाव संप्रेषण के !
क्या कहूँ उस दिन के संसार की ! आदरणीय योगराज भाई से अपना मिलन, वाह ! दिल्ली के आसमान का गला भर आया था. लोचन जल रहि लोचन कोना, न बहते बने, न सहते बने. गणेश भाई को जितना जाना था, जितना सुना था, उससे भी कहीं अधिक भावप्रधान मिले. अनुज भाव का साक्षात प्रारूप ! उनका मेरे प्रति ’भइया’ का विमुग्धकारी सम्बोधन आज मेरे हृदय-उद्गार का अभिन्न हिस्सा बन मेरी धमनियों में बह रहा है. नीलम जी की पवित्र आत्मीयता हो, मोनिका जैन की सनाढ्य किन्तु भावुक खिलखिलाहट हो, खन्ना साहब के भाव-प्रवण शब्द हों, लगातार अभिभूत हुए जारहे गणेश लोहानी जी का आग्रही समर्पण हो, चाहे धरम भाईजी का जादुई किन्तु उत्तरदायी व्यक्तित्व हो, सबकुछ, सबकुछ मेरे जीवन के अपने-अपने से पन्ने पर अमिट चित्र बन अंकित हो चुके हैं. आपसी वाचिक आदान-प्रदान ने और फिर स्वादभरे रस-रसायन पूर्ण उपाहार ने सभी को एक-दूसरे के कब कितना निकट ला दिया था पता ही नहीं चला. कोई अजनबी था क्या ? कत्तई नहीं.
मिलन अपने साथ बिछोह की घड़ियाँ लिये क्यों आता है ? पार्क के परिसर से बाहर निकल कर बार-बार हो रहा परस्पर नमस्कार, बार-बार एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर भाव जताना, परस्पर हाथ मिलाना.. ! आह !
बस में नहीं होता न, वर्ना जमा कर उन क्षणों को ’एनकैप्सुलेट’ कर लेता, गले में पड़े ताबीज के लिये, जिसका हृदय-प्रदेश से बार-बार का सारोकार बना रहता है.
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--सौरभ
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इलाहाबाद की उस गोष्ठी का सारा दारोमदार आपके सबल कंधों पर था, वीनस भाई. आपने अपने जिम्मे का जिम्मा क्या बखूबी निभाया था ! अब प्रयाग परिक्षेत्र को अगली गोष्ठी की आतुरता से प्रतीक्षा है.
आदरणीय सौरभ भईया, सादर नमन.
गोष्ठी की रिपोर्ट पढ़ते हुए लगा कि मैं भी गोष्ठी में ही बैठा हूँ ... सचमुच क्या ज़िंदा रिपोर्टिंग है.... मजा आ गया...
सादर बधाई.
भाई संजय हबीब जी, रिपोर्ट का ज़िन्दा होना बस बानगी भर है उस गोष्ठी के अंदाज़ की. आपको रिपोर्ट पसंद आयी, इसके होने का उद्येश्य पूरा हुआ. धन्यवाद.
जहाँ तक मुझे याद पड़ता है कार्यक्रम का स्थान एक दिन पहले शाम को निर्धारित हुआ था और तुरंत शाम को ही इसकी सूचना ओ बी ओ मंच द्वारा मेल से सभी को प्रेषित की गई थी
मैंने मेल पढ़ी भी थी और एक दिन पहले ही कार्यक्रम कि अग्रिम बधाई भी दी थी
दीपक जी आप यही उचित समझे तो मेल बॉक्स को चेक कर लें
सादर
I WAS ON LEAVE DUE TO RES.SHIFTING AND COULD NOT CHECK MY MY MAIL.ON MON I DID CHECK IT .
ANY WAY NEXT TIME I WILL AVAIL SUCH TYPE OF OPPORTUNITY DEFINITELY
REGARDS TO ALL
AAPKA APNA
KULUVI
भाई दीपकजी, इस हंता भाव से परे और काबिल और नाकाबिल की बात से विलग, आप इतना जान लें, कि सम्मिलन-स्थान की सूचना भले ही सार्वजनिक कभी हुई हो, अव्वल इस गोष्ठी के होने की सूचना तो बहुत पहले ही जारी हो चुकी थी. भाई गणेश बाग़ी जी ने दिल्ली परिसर और उसके आसपास के सभी सदस्यों को दिये गये नम्बर पर सम्पर्क करने की चर्चा कर दी थी.
आप से भविष्य में भी कैसे संपर्क किया जाय इसकी जानकारी आप साझा करलें तो उत्तम होगा.
गणेश लोहानी जी या मनीष जी या अन्य ठीक उसी दिन की सूचना पर हाजिर हो गये थे. जबकि कई सदस्य सूचित होने के बावजूद नितांत व्यक्तिगत कारणों से उपस्थित नहीं हो पाये थे, जिसका हमें तो मलाल है ही, उन सदस्यों को गोष्ठी में शामिल न हो पाने का मलाल अधिक होगा, यह अवश्य है.
सादर
दीपक जी मैंने आपको १८ तारीख की सुबह कई दफा फोन किया था इत्त्लाह देने के लिए मगर आपका नबर "आउट ऑफ़ रीच" आ रहा था.
आज इस रिपोर्ट को पढ़ा | अनमोल पल रहे होंगे सच में | बिलकुल सजीव चित्रण लग रहा है मानो यह गोष्टी अभी चल रही है | साधुवाद आदरणीय सौरभ सर |
आदरणीया कल्पना जी, दिसम्बर २०११ की शाम, नयी दिल्ली के पालिका मार्केट के बाग़ की वह गोष्ठी आभासी दुनिया से निकल कर वास्तविक दुनिया में हम सभी के सम्मिलन की पहली गोष्ठी थी. तबसे दिल्ली की यमुना में बहुत पानी बह गया है. कई पौधे वृक्ष और कुछ वृक्ष अश्वत्थ होने की राह पर हैं.
आपने उस गोष्ठी की रपट को पढ़ा और टिप्पणी की , कई यादें ताज़ा हो गयीं.
सधन्यवाद
दिसम्बर की एक सर्द शाम, वाह !! यादगार मिलन था वह आ० सौरभ भाई जीI शाम को कार्यक्रम समाप्त हुआ सभी लोग एक दूसरे से विदा तो ले रहे थे, लेकिन मज़े की बात कि जा कोई नहीं रहा थाI गजबे माहौल था उस दिन तो, आज भी याद करता हूँ तो रूह खिल उठती हैI (आ० कल्पना जी आपने याद दिलाया तो मुझे याद आयाI)
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