मन मस्तिष्क में भाव अनगिनत थे, लफ़्ज़ों का भंडार भी था! फिर भी उन भावों को लफ़्ज़ों से बाँध पाना दुश्वार सा था। पर इस कशमकश से निकालने के लिये शायद "खुदा" ने एक ज़रिया एक इंसान के रूप में मुक़र्रर किया हुआ था। मेरे लिखने का शौक जब कहानी, कविताओं और लेख से होता हुआ लघुकथा के सुहाने सफ़र तक पहुँचा तब मेरी कलम को एक पहचान दी हमारे जाने माने साहित्यकार और सुप्रसिद्ध साहित्यिक वेबसाईट ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम के प्रधान संपादक आदरणीय सर श्री "योगराज प्रभाकर” जी ने। वे लघुकथा के अतिरिक्त ग़ज़ल तथा छंदों के भी बहुत बड़े ज्ञाता हैंI इनके सरंक्षण में हर नव रचनाकार उनकी गुरु सरीखी सज्जनता, सौम्यता और गुरु शिष्य की परम्परा का कायल हैI
कहते हैं न जब आप किसी को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात आपको उससे मिलवाने के लिए लग जाती है। लघुकथा को सजाने सँवारने की कोशिशें, मेरी सीखने की ललक इस विधा के कई रचनाकारों को जानने का सबब बनीI और वहीँ से आदरणीय योगराज सर जी से भी लघुकथा से सम्बंधित प्रश्नों, उलझनों को जानने का जरिया भी बना। सोने पर सुहागा हुआ सर का गुजरात दौरा तथा मेरे निवेदन पर सूरत शहर आना। सर ने बड़ोदा से सूरत पहुँचने तक मेरी "लघुकथा" के स्वरुप, तथा विधा और कई जिज्ञासाओं का बातों बातों में निवारण किया। उनके मुख का आभामंडल, उनका सरलता और सौम्यता से भरा व्यक्तित्व बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता है।
आद० योगराज सर के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएं हैं जिनसे मैं आप सब को रूबरू करवाना चाहती थी, किन्तु उन्होंने कहा कि वे लाईमलाईट में आने के पक्ष में नहीं तथा लो-प्रोफाइल में रहने को प्राथमिकता देते हैंI अत: उन्होंने अपने बारे में चर्चा करने से साफ़ मना कर दिया और मुझे केवल लघुकथा विधा पर ही बात करने को कहा। तो आइये! अब आप सबके समक्ष रखती हूँ मैं अपने और अपने संगी साथी रचनाकारों के दिलो दिमाग में मंथन करते हुए कुछ प्रश्नों के उत्तर:
रश्मि: लघुकथा के बारे में यूँ तो लगभग सभी बातें आपके आलेख “लघुकथा विधा: तेवर और कलेवर” से स्पष्ट हो गई हैं किन्तु अभी भी कई प्रश्न ऐसे हैं जोकि अनुत्तरित हैI उन्हीं के बारे में आपकी राय जानना चाहूँगी, इसी सिलसिले में मेरा पहला प्रश्न है कि लघुकथा का उद्देश्य क्या है ?
प्रभाकर: लघुकथा का उद्देश्य है किसी समस्या या विसंगति की बारीकी से जांच पड़ताल करके उसे उभार कर सामने लानाI
रश्मि: क्या यह आवश्यक है कि लघुकथा ने जिस समस्या या विसंगति की तरफ ध्यान आकर्षण किया है, उसका समाधान भी बताए?
प्रभाकर: जैसा कि आपको ज्ञात ही है कि लघुकथा एक एकांगी-इकहरी लघु आकार की एक गद्य बानगी है जिसमे विस्तार की अधिक गुंजाइश नहीं हैI अत: इसका मुख्य उद्देश्य केवल किसी बीमारी को डायग्नोज़ करने का है, नाकि उसका उपचार करने काI वैसे लघुकथा यदि लघुकथा के द्वारा किसी समस्या का समाधान बताया जा सके, तो कोई बुराई नहीं हैI किन्तु ध्यान रखना पड़ेगा कि ऐसा करते हुए लघुकथा कहीं नारा ही बनकर न रह जाएI
रश्मि: क्षमा करें सर ! लघुकथा के उद्देश्य को लेकर आपकी बातों में मुझे विरोधाभास नज़र आ रहा हैI एक तरफ तो आप कह रहे हैं कि इसका उद्देश्य केवल बीमारी को डायग्नोज़ करना है, मगर साथ ही आप यह भी कह रहे हैं कि लघुकथा उस बिमारी का उपचार भी कर सकती हैI
प्रभाकर: मैं ऐसे ही सवाल की उम्मीद ही कर रहा था आपसे रश्मि जीI क्या इस बात को बेहतर ढंग से स्पष्ट करने के लिए आपसे कुछ पूछ सकता हूँ ?
रश्मि: जी ज़रूरI
प्रभाकर: मान लीजिए आप बाज़ार जा रही हैं, और रास्ते में आपके सामने किसी को दिल का दौरा पड़ गया I आप क्या करेंगी?
रश्मि: उसको जल्दी से जल्दी हॉस्पिटल पहुँचाने का प्रयत्न करुँगी I
प्रभाकर: लेकिन हो सकता है कि हॉस्पिटल पहुँचने से पहले ही उसकी मृत्यु हो जाए, तो आपने उसका ऑपरेशन क्यों नहीं किया ?
रश्मि: जी मैं ऑपरेशन कैसे कर सकती हूँ? मैं कोई डॉक्टर थोड़े ही हूँ I एक अच्छे नागरिक की तरह मेरा फर्ज़ है उसको हॉस्पिटल पहुँचाना I
प्रभाकर: बिलकुल यही बात लघुकथा पर भी लागू होती है रश्मि जी I वह भी हमारी ही तरह एक साधारण किन्तु जिम्मेवार नागरिक है जिसे ऑपरेशन करना तो नहीं आता किन्तु वह रोगी को सही समय पर सही स्थान पर पहुँचाने का प्रयत्न अवश्य करती हैI लेकिन दिल के दौरे की बजाय यदि कोई व्यक्ति गर्मी के कारण चक्कर खा कर गिर जाए तो उसको पानी पिलाकर तो कोई भी उठा सकता है न?I II
रश्मि: लघुकथा में कथानक का चुनाव कैसे किया जाए?
प्रभाकर: कथानक हमारे आस-पास प्रचुर मात्र में बिखरे पड़े हैंI आवश्यकता है अपनी आँखें और कान खुले रखे जाएँI लेकिन, कथानक वही चुने जाएँ जिनमे नयापन होI कथनी-करनी में अंतर वाले कथानक बेहद उबाऊ हो चुके हैं उनसे बचना चाहिएI
रश्मि: हास्य रस का लघुकथा में क्या महत्त्व है?
प्रभाकर: साहित्य में हास्य रस का यूँ तो बहुत महत्व है, किन्तु मेरा मानना है कि हास्य रस लघुकथा के स्वभाव के लिए मुफीद नहीं है I लघुकथा में हास्य को यदि कटाक्ष बना कर प्रस्तुत किया जाए तो रचना का प्रभाव बहुगुणित हो जाता है I जबकि हास्य इसे लतीफे की श्रेणी में भी ला खड़ा कर सकता हैI इतने दशक बाद भी परम्परावादी आलोचक लघुकथा को चुटकुला या चुटकुले जैसी विधा ही मान रहे हैं, ऐसे मैं हमारा उत्तरदायित्व बन जाता है कि लचर हास्य को लघुकथा से दूर ही रखेंI
रश्मि: क्या सम-सामयिक घटनायों को लघुकथा का विषय बनाना चाहिए? तथा ऐसे विषयों पर लघुकथा लिखते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
प्रभाकर: सम-सामयिक घटनायों पर लघुकथा कहना थोड़ा जोखिम भरा कार्य होता है I क्योंकि आवश्यक नहीं कि हर सामयिक घटना कालजयी ही हो I सातवें दशक में रंगा-बिल्ला द्वारा किया गया हत्या गीता चोपड़ा हत्या काण्ड आज कितनो को याद है ? क्या आरुषि हत्याकांड की गूँज आज वैसी है जो कुछ साल पहले थी ? लेकिन इसके विपरीत 26-11 का मुंबई काण्ड एक ऐसी घटना है को भारतीय जनमानस के दिल-ओ-दिमाग में सदैव ताज़ा रहेगी I
रश्मि: पौराणिक पात्रों / सन्दर्भों को लेकर क्या लघुकथा कही जा सकती है ?
प्रभाकर: बिल्कुल कही जा सकती है, बल्कि बहुत सी लघुकथाएँ कही भी गई हैंI वस्तुत: हमारी पुरातन जातक कथायोँ, पंचतन्त्र, तथा हितोपदेश आदि से ही हमारी लघुकथा के बीज पनपे हैंI हमारा धार्मिक एवं पौराणिक साहित्य ऐसी हजारों घटनायों/प्रसंगों से भरा पड़ा है जिनको आधार बनाकर लघुकथा रची जा सकती हैI आ० रामकुमार घोटड जी के संपादन में एक लघुकथा संग्रह "पौराणिक सन्दर्भ की लघुकथाएँ" इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैI इस संग्रह में नए पुराने रचनाकारों की १०० से अधिक लघुकथाएँ हैं I हालाकि सभी लघुकथाएँ मार्केदार तो नहीं कही जा सकतीं, किन्तु आपके प्रश्न के आलोक में यह एक पठनीय पुस्तक हैI
रश्मि: पौराणिक पात्रों / सन्दर्भों पर लघुकथा कहते हुए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
प्रभाकर: देखिए, भारत में धर्म एक संवेदनशील विषय माना जाता हैI धर्म के नाम पर ऐसे लोग भी पूँछ उठाकर खड़े हो जाते हैं जिन्हें न इसका कोई ज्ञान है और न ही अच्छी जानकारीI अत: ऐसे विषय पर कलम आजमाई करते हुए एक रचनाकार को बेहद सचेत और चौकन्ना रहने की आवश्यकता है I अत: ध्यान यह रखना अति आवश्यक है कि किसी की धार्मिक भावना को ठेस न पहुंचे एवं किसी पूज्यनीय की गरिमा के विरूद्ध कोई अशोभनीय शब्द न बरता जाएI
रश्मि: लघुकथा में फैन्टेसी तत्व की कितनी गुंजायश है? और इसको प्रयोग करना जायज़ है ?
प्रभाकर: यह गज़ब का प्रश्न पूछा है आपने रश्मि जीI ऐसी बात या चीज़ जो कभी न देखी गई हो या घटित ही न हुई हो, उसके बारे में कल्पना करके कोई बात करना फेंटेसी कहलाता हैI इसके कई रूप हो सकते हैं जिसमे मुख्यत: कल्पना का पुट प्रधान होता है I उदाहरण के लिए ड्रैगन अथवा येती, इन्हें कभी देखा तो नहीं गया किन्तु यह दोनों पात्र मानव कल्पना में मौजूद है I अब यह तो रही पात्रों की बात, फेंटेसी में कई ऐसी स्थितियों पर भी लघुकथा कही जा सकती हैI यह कल्पनाशीलता की उच्चतम उड़ान है, जो हर रचनाकार की निजी कल्पना पर निर्भर करती हैI मेरा मानना है कि फेंटेसी को विषय बनाकर बेहद रुचिकर लघुकथाएँ कही जा सकती हैंI
रश्मि: फेंटेसी पर आधारित लघुकथा अथवा कथानक के बारे में यदि उदाहरण सहित व्याख्या कर सकें, तो समझने में और भी सुविधा होगी I वैसे क्या आपने भी फेंटेसी पर आधारित लघुकथाएँ लिखी हैं?
प्रभाकर: रश्मि जी ! मैंने भी कुछ लघुकथाएँ इस तत्व पर आधारित लिखी हैं, किन्तु उनकी चर्चा यहाँ संभव नहींI आपने इसके उदाहरण की बात की, तो सिकंदर-पोरस वाले प्रसंग के बारे में बात करना चाहूँगाI युद्ध में पोरस को पराजय का का मुँह देखना पड़ा था, किन्तु सिकंदर के दरबार में महाराज पोरस ने जो कहा उस कारण पोरस आज भी हमारे हमारे नायक हैं, यह हकीकत भी है और इतिहास भीI लेकिन कल्पना करें कि युद्ध महाराज पोरस ने जीता और सिकंदर को बंदी बनाकर दरबार में पेश किया होता तो क्या होता? महाराज पोरस का क्या रवैया होता और सिकंदर की मन:स्थिति क्या होती? सिकंदर की पराजय और महाराज पोरस की विजय ही फेंटेसी है I रामायण के प्रसंग के सन्दर्भ में कैकेयी द्वारा मंथरा की बात न मानना फेंटेसी हैI महाभारत में पाण्डवों के स्थान पर द्रौपदी द्वारा जुआ खेलने की कल्पना फेंटेसी है I
रश्मि: एक आदर्श लघुकथा में पात्रों की संख्या का भी कोई महत्त्व है? यदि हाँ, तो पात्रों अधिकतम संख्या कितनी होनी चाहिए?
प्रभाकर: कोशिश की जानी चाहिए कि लघुकथा में 2-3 अधिक पात्र न होंI क्योंकि आधे सफे की अथवा १५ पंक्तियों की लघुकथा में यदि 5-7 पात्र हों तो पाठक उनके नामों में ही उलझा रह जाएगा तथा कथा कहीं खो ही जाएगीI
रश्मि: क्या लघुकथा में पात्रों के नाम का भी कोई महत्व है क्या?
प्रभाकर: वैसे तो लघुकथा में पात्रों के नाम से बारे में मेरा निजी मत यह है कि नायक का नाम रमेश न होकर सुरेश अथवा नीलेश हो तो कोई फर्क नहीं पड़ताI वैसे पात्रों की सामाजिक पृष्ठभूमि, आयु, और हैसियत एवं व्यक्तित्व आदि को देखते हुए उनके सही नाम का चुनाव भी लघुकथा में बहुत आवश्यक हैI कई बार किसी विशेष स्थिति में पात्र का मात्र नाम ही एक ज़बरदस्त कटाक्ष पैदा करने में सफल रहता है, जैसे किसी कानी महिला का नाम सुलोचना, किसी बेसुरी गायिका न नाम कोकिला, किसी अधर्मी का नाम धर्मदास किसी देशद्रोही का नाम देशदीपक आदिI
रश्मि: आपने अपने एक आलेख में कहा था कि लघुकथा में अधिकतम शब्द सीमा 300 होनी चाहिएI कुछ लोगों को आपकी इस बात पर बहुत एतराज़ हैI
प्रभाकर: एतराज़ तो कईयों को मेरे जिंदा होने पर भी हो सकता है रश्मि जी, क्या किया जा सकता है? आप जिस आलेख का ज़िक्र कर रही हैं, शब्दसीमा के प्रश्न पर सबसे पहले मैंने यह कहा था कि लघुकथा का आकार उसके प्रकार पर निर्भर करता हैI दरअसल शब्द सीमा के सम्बन्ध में मैंने यह कहने का प्रयास किया था कि एक आदर्श लघुकथा में लगभग 300 शब्द होने चाहिएं I लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सौ पचास शब्द कम या ज्यादा होने से लघुकथा पर कोई प्रभाव पड़ेगाI मैं आपको अनगिनत ऐसे उदाहरण दे सकता हूँ जहाँ जाने माने लघुकथाकारों ने 100-150 शब्दों में ही वो बात पैदा कर दी कि उनकी रचनाएँ कालजयी हो गईंI मंटो के बहुत से सियाह हाशिये इसका जिंदा जागता प्रमाण हैI इसके इलावा आप ओल्ड लघुकथा.कॉम देखें, वहां लघुकथा के स्तम्भ माने जाने वाले 70-75 लोगों ने जिनमे लघुकथा विधा के पुरोधा सर्वश्री परस दासौत, बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, सुकेश साहनी, भागीरथ, डॉ सतीश दुबे, डॉ अनूप सिंह, डॉ राम कुमार घोटड, निरंजन बोहा, श्याम सुन्दर दीप्ति, श्याम सुन्दर अग्रवाल, अशोक भाटिया, कमलेश भारतीय तथा हिंदी लघुकथा के प्रथम पुरुष डॉ सतीश राज पुष्करणा आदि शामिल हैं, ने अपने मनपसंद लघुकथाकारों की कालजयी रचनाएँ प्रस्तुत की हैंI लगभग सभी लघुकथाएँ लगभग तीन साढ़े तीन शब्दों में ही कही गई हैं, मज़े की बात यह है कि वे रचनाएँ भी सुप्रसिद्ध लघुकथाकारों की हैंI अत: जब कुछ लोग सिर्फ कहने के लिए ही कहते हैं तो वे अपरोक्ष रूप में इन पुराधाओं के कहे को मानने से इनकार कर रहे होते हैंI अत: ऐसे अहमकों को यह सन्देश अवश्य देना चाहूँगा कि यदि शक्ल और अक्ल खराब भी हो तो कम से कम बात तो अच्छी की ही जा सकती है न?
रश्मि: आप का मानना है कि लघुकथा विसंगति की कोख से उत्पन्न होती हैI तो क्या यह आवश्यक है कि हर लघुकथा किसी नकारात्मक विषय पर ही लिखी जाए?
प्रभाकर: यह केवल मेरा ही नहीं लघुकथा के पुराधाओं का भी मत हैI देखिए, कहा जाता है कि कोई स्थिर समाज कालजयी साहित्य को नहीं रच सकताI जहाँ विसंगति होगी, सार्थक साहित्य के बीज वहीँ फूटेंगेI आपको याद होगा कि इमरजेंसी के बाद अस्सी के दशक की शुरुयात में भारत में समानांतर सिनेमा का दौर चल रहा थाI उस ज़माने की बनी फ़िल्में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी सराही गई थींI लेकिन लगभग उस उसी कालखंड में स्थिर और समृद्ध यूरोप और विशषकर स्केंडेनेवियन देशों में क्या हो रहा था? वहाँ पोर्न फिल्म इंडस्ट्री खूब धड़ल्ले से चल रही थी I यह पोर्न इंडस्ट्री उस समय क्यों अपने शबाब पर नहीं थी जब पूरा यूरोप द्वितीय विश्वयुद्ध की चपेट में था ? क्योंकि वहां अस्थिरता और विसंगतियाँ थीं, तो उस समय वहां कालजयी फिल्मों और साहित्य का सृजन हो रहा थाI वैसे यह किस ने कह दिया कि विसंगतियों केवल नकारात्मकता ही देती हैं? सबसे महत्वपूर्ण बात, हर विधा की अपनी सीमा, गरिमा, महिमा और ऊर्जा होती है, अपना स्वाभाव और स्थान होता है जिसे अक्षुण्ण रखा जाना चाहिएI आप जानती ही हैं कि शादी-ब्याह के मौके पर सुहाग गाया जाता है, क्या यही सुहाग किसी की मृत्यु के समय गया जा सकता है ? आरती देवी देवतायों की स्तुति हेतु गाई जाती है, अब कोई कोई व्यक्ति सनी ल्योन की आरती गाने लगे तो उसको क्या कहा जाएगा? सुहाग गाना उल्लास और प्रसन्नता का प्रतीक है जबकि आरती श्रद्धा की प्रतीक हैI जल का स्वभाव शीतल तथा अग्नि का गर्म है, यदि ये विशेषताएं उनसे अलग करने की चेष्टा की जाए तो क्या बगैर पानी और अग्नि अपना नैसर्गिक स्वभाव न खो देंगे ? लघुकथा का उद्देश्य पाठक के मन मस्तिष्क को उद्वेलित करना तथा ततैया के अचानक डंक की तरह स्तब्ध कर देना माना गया है अत: यह उसका नैसर्गिक स्वाभाव हुआI यदि कोई रचनाकार इसी स्वाभाव को लेकर ही प्रश्न उठता हो तो उसकी समझ पर अफ़सोस ही किया जा सकता हैI
रश्मि: कुछ लोग लघुकथा के परंपरागत नियमो को रूढ़िवाद कह कर धत्ता बताने में लगे हुए हैं, आप इस विषय में क्या कहना चाहेंगे ?
प्रभाकर: जिसे लोग रूढ़िवाद की संज्ञा दे रहे हैं वास्तव में वह नियम और अनुशासन हैं जिनका साहित्य की हर विधा में पालन किया जाता हैI हर विधा की कुछ मानक स्पेसिफ़िकेशंस होती हैं, जिनसे इतर जाने पर रचना के भटक जाने का खतरा बना रहता हैI उदाहरण के लिए अगर कोई रूढ़ियाँ तोड़ने के नाम पर किसी त्रिपदी को दोहा कहने पर अमादा ही हो जाए, तो सिवाय उसकी कम-अक्ली पर हंसने के क्या कुछ और किया जा सकता है?
रश्मि: ऐसे कौन से महत्वपूर्ण विषय हैं जिनसे लघुकथा अभी अछूती है ?
प्रभाकर: बहुत से विषय हैं जिनपर अभी लघुकथाकारों का ध्यान नहीं गया हैI अब समय आ गया है कि हम ऐसे विषयों पर भी कलम आजमाई करें जो अंतर्रराष्ट्रीय हैंi, ग्लोबल वार्मिग, विश्व मंडीकरण, प्राकृतिक स्रोतों का अंधाधुंध दोहन, समलैंगिकता, पश्चिमी देशो का भारत के प्रति रवैया एवं दुनिया भर में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार आदि बहुत से ऐसे विषय हैं जो न केवल हिंदी लघुकथा को कथानक के स्तर पर एक नयापन ही देंगे, बल्कि इसे अन्तर्राष्ट्रीय तौर पर भी पहचान दिला सकते हैंI
रश्मि : यह पेम्पेरिंग हमें कई बार गुमराह कर जाती है, इससे कैसे बचें?
प्रभाकर: इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है रश्मि जीI हमें समझना होगा कि ऐसा करने वाले की मंशा क्या है उनका उद्देश्य क्या है I सोशल मीडिया पर यह चीज़ काफी देखने को मिलती हैI कुछ लोग जानबूझकर ऐसा करते हैं कि ताकि वे अपना एक अलग दल बना सकें I बहुत से रचनाकार ऐसे भी हैं जो मेसेज बॉक्स में आकर आशीर्वाद मांगते हैंI बहुत से लोग ऐसे भी मिलेंगे जिन्हें लघुकथा विधा से कुछ लेना देना तो नहीं है किन्तु रचनाकार से नजदीकी के कारण वे ऐसा करते हैं I कुछ लोग ऐसे भी हैं (क्षमा सहित) जोकि सिर्फ चुनिन्दा महिलायों की पोस्ट पर ही दृष्टिगोचर होते हैंI
निजी तौर पर मैं रचना हल्की होने के बावजूद भी नवोदित रचनाकारों की पीठ थपथपा दिया करता हूँI इस बात पर “किन्तु” किया जा सकता है, लेकिन इसके पीछे मेरी एक सोच कम कर रही होती हैI आपने चाणक्य का वह संस्कृत श्लोक अवश्य सुना होगा कि "लालयेत पञ्च वर्षाणि. दशा वर्षाणि ताडयेत्. प्राप्तेतु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत" अर्थात पहले पाँच वर्ष तक बच्चे को लाड़-प्यार किया जाना चाहिए, अगले दस बरस तक बच्चे को लाड़ के इलावा ताड़ भी देना चाहिएI किन्तु 16 बरस का होता ही उस पुत्र को एक मित्र की भांति समझना चाहिएI इसीलिए हर नया रचनाकार लिहाज़ का हक़दार होता है, कोई चाहे तो उसको पेम्प्रिंग कहे या कुछ औरI अब रही बात बचने की तो मैं अर्ज़ करना चाहूँगा कि इसका एकमात्र उपाय है अध्ययन, केवल अध्ययन से एक रचनाकार को अपने सही क़द का अनुमान हो जाता है, सही गलत की पहचान हो जाती हैI अध्ययन से अनुभव प्राप्त होता है, और अनुभव प्राप्ति के बाद ही भ्रम की स्थिति दूर हो सकती हैI
रश्मि: लघुकथा के वास्तविक स्वरूप को जो बिगाड़ रहे हैं, उसके विरुद्ध आवाज़ कौन उठाएगा?
प्रभाकर: रश्मि जी, किसी विधा के मूल स्वरूप से वक्ती खिलवाड़ तो किया जा सकता है, किन्तु उसे नष्ट नहीं किया जा सकताI ऐसे लोगों को इस विधा के जानकार ही सही मार्ग पर ला सकते हैं I इस विधा के जानकार केवल वही लोग नहीं हैं जो इस पर दशकों से काम कर रहे हैं, बल्कि कोई भी अध्ययन, अभ्यास और अनुभव से इस विधा की बारीकियों से परिचित हो सकता हैI लेकिन अफ़सोस की बात तो यह है कि लोगबाग बिना सोचे समझे केवल लिखने में ही व्यस्त हैं, अध्ययन शायद उन्हें पसंद ही नहीं हैI
रश्मि: आप लघुकथा का भविष्य कैसा देखते हैं I?
प्रभाकर: मैं यह बात दावे के साथ कह सकता कि आने वाले बरसों में ढेरों नए हस्ताक्षर इस विधा से जुड़ेंगे I लेकिन नए पाठक कितने जुड़ेंगे यह कहना बेहद मुश्किल हैI
रश्मि: वैसे तो आपने शुरू में ही मना कर दिया था, किन्तु एक प्रश्न का उत्तर आपको देना ही होगाI हमें पता है कि आप कुछ पुस्तकों पर काम कर रहे हैं, केवल इतना बता दें कि आपकी अपनी पुस्तक कब छपकर आ रही है?
प्रभाकर: मेरा लघुकथा संग्रह “अपने अपने सावन” इस वर्ष के अंत तक आ जाएगाI I एक ग़ज़ल संग्रह “बेगानी ज़मीन पर” तथा एक सार-छंद संग्रह “कहकर मुकर गए” भी छपने के लिए तैयार हैंI फिलहाल एक साझा लघुकथा संग्रह “जुगनुओं का काफिला” पर काम चल रहा है जो अगले ३-४ महीने तक छप कर आ जाएगाI इस संग्रह में एक दर्जन से ज्यादा उन चुनिन्दा बेहद प्रतिभाशाली नवोदित रचनाकारों की १०० से ज्यादा लघुकथाएँ हैंI मुझे विश्वास है कि इसमे से अधिकतर रचनाकार संभवत: आने वाले १५-२० साल तक लघुकथा विधा का परचम बुलंद करेंगेI
रश्मि: लघुकथा विधा पर इतनी विस्तृत चर्चा तथा इस विधा से सम्बंधित मेरे कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर देकर मेरी जिज्ञासा शांत करने हेतु आपका बहुत बहुत शुक्रिया I
(मौलिक और अप्रकाशित)
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