मानवीय विकासगाथा में काव्य का प्रादुर्भाव मानव के लगातार सांस्कारिक होते जाने और संप्रेषणीयता के क्रम में गहन से गहनतर तथा लगातार सुगठित होते जाने का परिणाम है । मानवीय संवेदनाओं को सार्थक अभिव्यक्ति नाट्यशास्त्र और इसकी विधाओं से मिली जहाँ से काव्यशास्त्र ने अपने लिए आवश्यक अवयव ग्रहण किये । इन्हीं अवयवों के कारण ही निवेदन गहनतर होते चले गये । काव्यशास्त्र के आधारभूत अवयव कविता को समझने और कविता के माध्यम से वैचारिक संप्रेषणीयता को समझाने के भी मूल रहे हैं ।
भाव-संप्रेषण की वह शाब्दिक दशा जो मानवीय बुद्धि के परिप्रेक्ष्य में मानवीय संवेदना को तथ्यात्मक रूप से अभिव्यक्त करे, कविता होती है | सपाट भावाभिव्यक्ति सहज और सुगम भले हो, तथ्यात्मकता को संवेदनाओं का साहचर्य और संबल नहीं दे सकती | इसीकारण भावुकता का अर्थवान स्वरूप जहाँ कविकर्म है वहीं उसकी शाब्दिक परिणति कविता है | यही कारण है, कि कविता शब्द-व्यवहार के कारण भाषायी-संस्कार को भी जीती है | इसी कारण भाषा-व्यवहार और शब्द-अनुशासन कविता के अभिन्न अंग हैं | तात्पर्य यह है कि भावुक अभिव्यक्ति या भाव-उच्छृंखलता कभी कविता नहीं हो सकती | जबकि यह भी उतना ही सत्य है, कि भावुकता ही कविता का मूल है | यानि, मात्र एक तार्किक शब्द अपने होने मात्र से कविता का निरुपण कर सकता है | क्योंकि शब्द इंगित मात्र न होकर भाव-भावना-अर्थ का भौतिक समुच्चय हैं | इसे यों समझें, कि शब्द वृत्तियों के भौतिक निरुपण की भौतिक इकाई हैं | वृत्तियों के संचरण और निर्वहन में शब्द एक बडी भूमिका निभाते हैं | अतः चित्त का विवेक, यानि बुद्धि, कविता की उत्पत्ति और समझ दोनों के लिए अनिवार्य है |
कविता संप्रेषण के कई साधन हो सकते हैं तथा इन साधनों की कितनी ही प्रासंगिक, अप्रासंगिक विधायें होती हैं ! छंदबद्धता, छंद-उन्मुक्तता इसके मुख्य साधन हैं और मात्रिकता, गणना, तुकान्तता, गेयता, अलंकार, संप्रेष्य तथ्य आदि-आदि उन साधनों के अवयव | अर्थात, गीति-काव्य के अंतर्गत हुआ संप्रेषण और स्वच्छंद भावाभिव्यक्ति, इन दोनों माध्यमों से भाव-संप्रेषण होता है । यानी, ये दोनों ही कविता के दो भिन्न स्वरूप हैं । यानी, वर्तमान में व्यावहारिकता के लिहाज से कविता दो तरह की होती हैं - एक, ऐसी कविता जो भाव-विस्फोट को शब्दों की ऐसी काया दे जो गेय या वाच्य हो । दूसरी, वह कविता जो प्राणिगत भावोद्गार को शब्दों का ऐसा प्रारूप दे जिसे बुद्धि द्वारा साधा जा सके । लेकिन, यह भी सही है कि माध्यम कोई हो, वह इतना प्रच्छन्न नहीं होता । उनके मिश्रित स्वरूप भी हैं जिन्हें हम आगे देखेंगे । कहने का तात्पर्य है कि कविता सुनने और गाने के साथ-साथ पढ़ने-गुनने और उसके आगे मनन-मंथन की भी चीज हो जाती है |
वस्तुतः कविता का मुख्य कार्य श्रोता-पाठक की भावदशा को संवेदित करना है | इस आधार पर हम यह कहने की स्वतंत्रता ले सकते हैं कि जिस शब्द-व्यवहार से मानवीय संवेदनाएँ प्रभावित तथा संवेदित हो सकें, वही कविता है | अनुभूति की उच्च अवस्था के पहले भाव-साधना तथा शब्द-साधना के घोर तप से गुजरना होता है | कविता का कोई रूप क्यों न हो उसका हेतु और उसकी प्रासंगिकता मानवीय संवेदना को संतुष्ट या प्रभावित करना है | इस स्तर पर कविता का शिल्पगत स्वरूप प्रभावी नहीं होता, बल्कि तथ्यात्मक संप्रेषण की महत्ता अधिक होती है । इस विचार से कविता गेय हो या वाच्य हो या मननीय हो, कविता मात्र कविता होती है |
किन्तु संप्रेषण-माध्यम के अनुरूप कविता को वैधानिक शिल्प मिलना आवश्यक हो जाता है । यहीं से कविता कभी गीत की शक्ल में सामने आती है तो शब्द-चित्र की शक्ल में, कभी गेय-बन्द के रूप में सुनने को मिलती है तो वहीं कविता मनन-मंथन के तौर पर कई विन्दु साझा करती हुई दिखती है जिसका स्वरूप कई बार गद्य के अत्यंत निकट का होता है ! अ-कविता, गद्य-कविता, क्षणिकाएँ, नयी कविता, गीत, नवगीत आदि-आदि भावानुभूतियों के ही कई स्वरूप हैं । कविता के इन सभी स्वरूपों के वैधानिक ही नहीं प्रस्तुतीकरण के हिसाब से भी अपने-अपने मान्य आग्रह हैं ।
पुराने मनीषियों की अवश्यकता और समझ के अनुसार कविता श्रव्य थी | इसी कारण, कविता और छंदों में शाब्दिक चमत्कार को निरुपित करने के लिए अलंकारों की आवश्यकता होती थी | उससे पूर्व नाट्यशास्त्र के नव-रसों के माध्यम से कविता को श्रेणीबद्ध करने का साग्रह प्रयास किया गया ताकि कोई शाब्दिक संप्रेषण मानवीय मनोदशा की आवश्यकता के अनुसार हुए शाब्दिक-निवेदन को इकाईगत किया जा सके | कालांतर में आज कविता पठनीय हो गयी है | इसके प्रारूपों में मात्र शब्द ही नहीं, बल्कि गणित शास्त्र के मान्य और स्वीकृत गणितीय-चिह्न भी कविता का मुख्य भाग बन गये हैं जिनको ध्वनियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता | अतः कविता श्रव्य मात्र रह ही नहीं गयी है | अपितु, यह विचारों की अति गहन इकाई भी हो चुकी है | अर्थात कविता का यह भी एक आधुनिक स्वरूप है । क्योंकि, ऐसा संप्रेषण भी व्यवहार में समेकित रूप से मानवीय संवेदना को प्रभावित करता है । अतः कविता है ! यदि कोई वर्ग वास्तव में ऐसे संप्रेषणों को समझता है और इनसे प्रभावित होता है तो ऐसे संप्रेषण अवश्य कविता हैं | यह कविकर्म की मानसिक सम्पन्नता और श्रोता-पाठक की मानसिक व्यवस्था के संयमित मेल पर निर्भर करता है कि कोई संप्रेषण मानवीय मर्म की किस गहराई तक अपनी पहुँच बना पाता है |
यानि, एक स्तर से नीचे की कविता प्रबुद्ध श्रोता-पाठकों को जहाँ संवेदित या संतुष्ट नहीं कर सकती, तो एक स्तर से आगे की कविता कतिपय श्रोता-पाठकों के लिये दुरूह हुई उनसे अस्वीकृत हो जाती है | इस के लिए जहाँ तक संभव हो, दोनों इकाइयों का उत्तरोत्तर मानसिक विकास आवश्यक है | अन्यथा, एक विन्दु के बाद कविता अपने कर्तव्य से गिरती दिखती है, तो श्रोता-पाठक अपने मानसिक, वैचारिक, भावप्रधान विकास से वंचित रह जाते हैं |
हम अब गीतों की अवधारणा समझें और इनके हेतु पर संक्षिप्त चर्चा करें । सभ्यता की विकास यात्रा में सांस्कारिकता के अपने उसूल हैं । मनुष्य सामुहिक तौर पर जीता हुआ प्राणी है । अतः उसकी वैयक्तिकता भी सामुहिक प्रभाव से संवेदित होती है । नितांत वैयक्तिकता हो ही नहीं सकती । और यहीं गीत किसी समूह या समाज की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनने लगे । भारतीय समाज एक प्रारम्भ से, अर्थात सैकड़ों-हज़ारों साल से, गीत को वैयक्तिक और सामाजिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है । भारतीय उपमहाद्वीप में गीतों की लम्बी परिपाटी रही है । इस उपमहाद्वीप के प्रायः सभी देशो में बहुसंख्य आमजन अपने सभी सुख-दुख, हर्ष-विषाद, उत्साह-उमंग, उल्लास-विषाद, जय-पराजय, संघर्ष की चेतना और मुक्तिसंघर्ष की भावना की सहज अभिव्यक्ति गीत के माध्यम से करते रहे हैं । जीवन यापन और जीवन व्यवहार के सभी अवसरों, ऋतुओं, उत्सव-त्यौहारों एवं भौतिक-वैचारिक-सामाजिक-आध्यात्मिक व्यापारों केलिए भिन्न-भिन्न गीत उद्भूत हुए हैं । गीतों का फैलाव बहुत ही विस्तृत है । श्रमजीवी समाज के लिए गीत जीवनी-शक्ति का पर्याय थे जिनके माध्यम से वह अपनी सामुहिकता को स्वर देता हुआ अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को अभिव्यक्त हुआ पाता था । गीतों के माध्यम से समाज के सभी वर्गों के लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों को अत्यंत ही संवेदनशील और सार्थक अभिव्यक्ति मिलती रही है । अतः हम कह सकते हैं कि गीत वह काव्य रचना है, जिसकी परिणति व्यापक जन-समूह द्वारा गाया जाना है । अर्थात, गेय होना गीत के लिए अनिवार्य शर्त है । सुप्रसिद्ध जनवादी गीतकार नचिकेता का स्पष्ट मानना है कि ’जो गेय नहीं है, वह गीतात्मक कविता हो सकती है, लेकिन गीत कदापि नहीं । इसका अभिप्राय यह भी नहीं है, कि जो रचनाएँ गेय हैं वे सभी रचनाएँ गीत हैं । दरअसल, गीतात्मक आंतरिकता की रुपात्मक अभिव्यक्ति ही गीत है ।’
छन्दानुशासन, गेयता और सांगीतिक लयात्मकता ही किसी रचना के गीत होने की कसौटी हैं । गीत-रचना में विचारों का अन्तःसंगीत और उसके शब्दों की लयात्मकता का होना अनिवार्य शर्त है । ऊपरी सतह पर देखने में गीत भले ही रचनाकार की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति प्रतीत हों, किन्तु, आंतरिक संरचना के हिसाब से ये उसके स्व की खोज़ की प्रक्रियास्वरूप ही आकार पाते हैं । एक गीतकार अपनी गीत-रचना के माध्यम से अपने को व्यष्टि के सापेक्ष अभिव्यक्त कर पाता है । इस क्रम में अपने अनुभवों को समाज के अनुभवों से जोड़ कर अपने आप को सामाजिक सम्बन्धों के साँचे में ढाल कर सामाजिक दृष्टि से एक अत्यंत ही मूल्यवान वस्तु का निर्माण करता है । इस प्रकार, यह भी कह सकते हैं कि गीत की रचना असंयत व्यक्तिगत सम्बन्धों, बदलते हुए सामाजिक सम्बन्धों आदि के उपजे तनाव से होती है । प्रत्येक सार्थक गीत वस्तु से चेतना का और समाज से व्यक्ति का ऐतिहासिक सम्बन्ध निरुपित करता हुआ सामने आता है । यह सम्बन्ध रचना में जितना अधिक स्पष्ट और विशिष्ट होगा, गीत उतना ही मूल्यवान होगा, अर्थपूर्ण होगा । गीतों की सफलता अभिव्यक्त हुई भाषा और भाव में कवि द्वारा स्वयं को बिला देने से आँकी जा सकती है । ऐसा कि, कवि नहीं बल्कि भाव और भाषा का अपना स्वर रचना के माध्यम से गूँजने लगे जो सबके लिए सहज स्वीकार्य हो ।
वस्तुतः, गीत और कविता एक दूसरे के पूरक हैं । इसके बावज़ूद गीत और कविता की रचना-प्रक्रिया, उसके रूपबंध, उद्येश्य और प्रभावोत्पदकता में स्पष्ट भिन्नता होती है । कोई भी गीत अगर कविता के अनिवार्य आंतरिक तत्वों से रिक्त है, तो वह एक अलग इकाई या स्वच्छंद ’गाना’ हो सकता है, गीत कत्तई नहीं हो सकता । गीत और कविता की रचना प्रक्रिया रूपबंध, प्रभावोत्पदकता, अभिव्यक्ति-भंगिमा और रचनात्मक उद्येश्यों में काफ़ी भिन्नता होती है, यानी, गीत की कसौटी वही नहीं होगी जो समान अर्थवाली कविता की होगी । प्रगतिवाद के बाद प्रयोगवाद और नयी कविता युग के गंभीर काव्य-विमर्शों ने गीत को विस्थापित कर दिया है । किन्तु इस विन्दु पर अभी नहीं आगे देखेंगे ।
कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में ’गीत कविता का ’नितांत निजी स्वर’ है । ’नितांत निजी स्वर’ में यह ध्वन्यार्थ अंतर्निहित है कि भारतीय या हिन्दी गीत और पश्चिम के लिरिक (गीत/प्रगीत) में गुणात्मक भिन्नता है ।’ यह अलग बात है कि हिन्दी के प्रखर मार्क्सवादी आलोचक भगवत शरण उपाध्याय की दृष्टि में ’गीति-काव्य जैसी किसी काव्य विधा का विधान भारतीय काव्यशास्त्र में नहीं है । इस विधा का नाम हिन्दी में अंग्रेजी लिरिक से अनुदित हो कर पड़ा है ।’ नामवर सिंह के विचार में ’वेद की ऋचाओं को गाने के लिए छन्दबद्ध कर के गेय बनाया गया है । इसलिए वैदिक ऋचाएँ वैदिक संदेश को प्रचारित और प्रसारित करने में बहुत सहायक हुई हैं । इन्हें हम गीत का आदिम स्वरूप ही कह सकते हैं । सामवेद, जिनमें छान्दसिकता का मूल स्वरूप स्पष्ट रूप से दृष्टव्य है, के अनुसार गीत के चार प्रकार हैं - (1) ग्राम्य गीत, अर्थात लोकगीत (2) अरण्यगीत, यानी, आदिवासी गीत (3) ऊहगीत, अर्थात, विचार प्रधान गीत, यानी, साहित्यिक गीत (4) ऊहागीत, यानी, राग-रागिनियों का आश्रय ले कर रचे गये गीत, जो वाद्ययंत्रों की सहायता से गाये जाते हैं ।
कालांतर में अनुभूति की संरचना भाषा-शिल्प की बनावट, विषयवस्तु और संवेदना के धरातल पर मांसल, रूमानियत, लिजलिजी भावुकता, लय-छन्दों में अनावश्यक विस्तार आदि के कारण गीत भिन्न ही नहीं आमजन की भावनाओं से असंपृक्त दिखने लगे । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि में ’पण्डितों की बाँधी प्रणाली पर चलने वाली काव्यधारा के साथ-साथ सामान्य अपढ़ जमात के बीच एक स्वच्छन्द और प्राकृतिक भावधारा भी गीतों के रूप में चलती रहती है । ठीक उसी प्रकार जैसे बहुत काल से स्थिर आती हुई पण्डितों की साहित्य भाषा के साथ-साथ लोकभाषा की स्वाभाविक धारा भी बराबर चलती रहती है । जब पण्डितों की काव्य भाषा स्थिर हो कर उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हुई लोकभाषा से दूर निकल जाती है, और जनता के हृदय पर प्रभाव डलने की उसकी शक्ति क्षीण होने लगती है, तब शिष्ट समुदाय लोकभाषा का सहारा लेकर अपने काव्य परम्परा में नया जीवन डालता है ।’ यह उद्घोषणा ऐसा सत्य है जो काव्य के शैल्पिक ही नहीं, बल्कि उसके अंतर्निहित संप्रेषण के विन्दुओं की भी परीक्षा लेता है । रचनाकर्म कैसे अपने समय के पारम्परिक स्वरूप से आगे बदलाव की पटरी पर बढ़ चलते हैं, यह उक्ति उसका कारण बताती है ।
पद्य-साहित्य के इतिहास में छान्दसिक अनुशासनों की ओट में एक ऐसा समय आया, जब रचनाओं में कथ्य के तथ्य प्रभावी नहीं रह गये । रचनाओं से ’क्यों कहा’ गायब होने लगा और ’कैसे कहा’ का शाब्दिक व्यायाम महत्त्वपूर्ण होने लगा । अभिव्यक्तियाँ वाग्विलास और शब्द-कौतुक या अर्थ-चमत्कार की पोषक तथा आग्रही भर रह गयीं । पद्य-रचनाएँ सामान्य जन की भावनाओं, भाव-दशाओं या आवश्यकताओं से परे विशिष्ट वर्ग के मनस-विकारों को पोषित करने का माध्यम मात्र रह गयी थीं । ऐसे काल-खण्डों में साहित्य अपने हेतु से पूरी तरह से भटका हुआ प्रतीत हुआ है । चूँकि छन्द रचनाकर्म की अनिवार्यता हुआ करते थे, अतः इस पद्य-साहित्य में ऐसे अन्यथाकर्मों का सारा ठीकरा फूटा छन्दों पर । छन्दों को ही त्याज्य समझा जाने लगा । छन्द आधरित गेय रचनाओं या गीतों को ’मरणासन्न’ और, बादमें तो, ’मृत’ ही घोषित कर दिया गया । पद्य-संप्रेषणों के प्रयास के क्रम में गेयता के निर्वहन हेतु किया गया कोई प्रयास निरर्थक घोषित होने लगा । इसके विरुद्ध सामाजिक प्रतिक्रिया तो होनी ही थी ।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पूरे देश में उत्साह का वातावरण तारी हुआ था । उल्लास और नव निर्माण की नयी चेतना से जन मानस में नये-नये स्वप्न उत्पन्न हुए थे । लेकिन शीघ्र ही नेहरू युग की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आज़ादी की योजनाएँ विफलता और निराशा का दर्द पैदा करने लगीं । इसी स्थिति ने जनमानस के व्यवहार में आक्रोश, विद्रोह, विरोध, अस्वीकृति, खीझ, व्यंग्य, रोष, आतंक, तनाव, अवसाद, संत्रास, विवशता, संकट, पीड़ा, आत्महत्या, आत्मनिर्वासन, आत्मरति, श्रम के परायेपन, अवमानवीकरण, सांस्कृतिक मूल्यो के विघटन, संदर्भहीनता, निरर्थकता आदि का होना देखा । मूल्यहीनता चीत्कार कर उठी और मोहभंग अभिव्यक्ति में घर कर गयी । मूल्यों का यह अंधायुग था जिसने ’नयी कविता’ को भीतर बाहर से बेचैन किये रखा । रचनाकार को अनेक सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारणों से जीवन के प्रति आस्था खोती दिख रही थी । वह अनुभूति की ईमानदारी से अनास्था, संत्रास, विवशता, अकेलापन, आत्मनिर्वासन आदि को व्यक्त करने लगा । ऐसे में नयी कविता में युगबोध को बौद्धिकता और अनुभव की प्रामाणिकता से स्वर मिला । आधुनिकता का अर्थ बनी-बनायी परम्परा के विरुद्ध जाना हो गया । अतः नयी कविता बदलते रागात्मक सम्बन्धों को रेखांकित करने वाली युग चेतना का वाहक बन गयी ।
आधुनिक भारतीय भाषाओं में स्वाधीनता प्राप्ति के आसपास की नयी काव्य चेतना को व्यापक अर्थों और संदर्भों में ’नयी कविता’ नाम से सम्बोधित किया जाने लगा । इसका कारण भारतीय समाज मात्र की सामाजिक, साहित्यिक या सामयिक प्राप्ति नहीं थी । बल्कि, द्वितीय विश्वयुद्ध की भयंकर विभीषिकाओं ने अपने प्रभाव-दबाव से विश्व भर में एक पुराने संसार को नष्ट कर दिया था । काव्यकर्म का व्यवहार बदलना ही था । यह बदलाव आया वैश्विक रूप से ! काव्यकर्म का नया भावबोध, नये राजनीतिकरण, सामाजिकीकरण, सांस्कृतिकीकरण, आधुनिकीकरण की जटिल प्रक्रिया से पैदा होने के कारण जीवन की जटिलता, यंत्रणा और पीड़ा को मानव चेतना के केन्द्र में दिखाने का प्रयास करने लगा । इसमें सफलता भी मिली । नयी संवेदना इसी कारण नयी काव्य भूमि ढूँढने लगी । नयी कविता आवश्यक हो चली नवीन संवेदना, आवश्यक लगते नये रूपों, प्रतीकों, ऐसी छवियों, शैलियों और ऐसे विचारधाराओं की ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति थी । कविताओं में दिख रहा वैश्विक प्रयोगवाद भारतीय संदर्भों में पुराने आदर्शवाद, व्यक्तिवाद, जुगुप्साकारी सौंदर्यवाद और गाँधीवाद के विरुद्ध बगावती अभिव्यक्तियों के रूप में स्थान बना रहा था । इन पहलुओं को अपने में आत्मसात करने वाली विद्रोही कविताएँ ही नयी कविता के रूप में सामने आयीं । कृष्णदत्त पालीवाल के अनुसार ’समय के साथ ये सच्चाई स्पष्ट होती गयी है कि भारतीय नयी कविता विदेशी प्रभावों को लेकर भी हमारी ही काव्य परम्परा के भीतर से विकसित हुई है । और इसमें हमारे ही सांस्कृतिक सामाजिक जीवन के वास्तविक अनुभवों ने काव्यात्मक रचाव पाया है । यह परम्परा का नया विकास था ।’
इस नयी कविता में न कोई अनुभूति वर्जित है और न कोई जीवन दर्शन बहिष्कृत । निराश प्रेम से यौन वर्जनाओं तक, क्रान्ति से भ्रांति तक, सामाजिक सकारात्मक लालसा से लेकर जीवन की रंगीनियों तक इसका विस्तार हुआ । संचेतना के नाम पर अभिव्यक्ति में रौद्र स्फोट अभिव्यक्त होने लगा । इस काल के मुख्य स्तम्भ अज्ञेय, उमाशंकर जोशी आदि ने सार्थक और ठोस अभिव्यक्तियों के माध्यम से तात्कालिक जीवन-दर्शन को रेखांकित किया । मानव मूल्यों को लेकर सामाजिक संघर्ष काव्य क्षेत्र में त्रिआयामी रूप से इंगित हुआ - (1) युगबोध के तत्त्व को समझने के लिए संघर्ष (2) अभिव्यक्ति में नयी सृजनात्मक ऊर्जा लाने के लिए संघर्ष (3) नवीन विचार चेतना और दृष्टि दर्शन का संघर्ष ।
काल्पनिक बिम्बों के स्थान पर विचार-बिम्बों को स्थान मिलने लगा । मानव के अवचेतन में झाँकने की कला विकसित होने लगी । काव्य के इस स्वरूप में जीवन की वास्तविकताओं, विद्रूपताओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, मूल्य संघर्षों को उद्घाटित करने की शक्ति देखी जाने लगी । रचनाकर्म की ऐसी प्रवृत्तियो का विकास दो धाराओं में हुआ - (1) प्रगतिवादी धारा (2) प्रयोगवादी काव्यधारा ।
क्रमशः
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कविता की विकास यात्रा : नयी कविता, गीत और नवगीत (भाग -२) // --सौरभ
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आदरणीय सौरभ सर
इस लेख के माध्यम से बहुत सारी जानकारी आपने साझा की है / इस सारगर्भित लेख में गहन चिंतन है / इस लेख के लिए मेरी तहे दिल बधाई स्वीकार करें सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय सौरभ सर, कविता की विकास यात्रा को सटीक समझाने के लिए हार्दिक आभार आपका. सादर
आप सभी को जिनने इस आलेख के इस पहले भाग को पढ़ा, और अपने सहमति साझा की, उनके अनुमोदन के प्रति हार्दिक धन्यवाद.
अपने तात्कालिक ही नहीं पाठकीय विचार भी साझा किये होते तो मुझे भी लाभ हुआ होता.
शुभेच्छाएँ
1-मानवीय विकासगाथा में काव्य का प्रादुर्भाव मानव के लगातार सांस्कारिक होते जाने और संप्रेषणीयता के क्रम में गहन से गहनतर तथा लगातार सुगठित होते जाने का परिणाम है-------------- आ० लगातार संस्कारिक होते जाने की बात मार्मिक और ध्यातव्य है .
2-भाव-संप्रेषण की वह शाब्दिक दशा जो मानवीय बुद्धि के परिप्रेक्ष्य में मानवीय संवेदना को तथ्यात्मक रूप से अभि कालांतर में आज कविता पठनीय हो गयी है | इसके प्रारूपों में मात्र शब्द ही नहीं, बल्कि गणित शास्त्र के मान्य और स्वीकृत गणितीय-चिह्न भी कविता का मुख्य भाग बन गये हैं जिनको ध्वनियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता | अतः कविता श्रव्य मात्र रह ही नहीं गयी है | अपितु, यह विचारों की अति गहन इकाई भी हो चुकीव्यक्त करे, कविता होती है------- भावुकता का अर्थवान स्वरूप जहाँ कविकर्म है वहीं उसकी शाब्दिक परिणति कविता है-------------------------------------कविता की यह परिभाषा आधुनिक है और' मिथ' को तोडती है
भावुक अभिव्यक्ति या भाव-उच्छृंखलता कभी कविता नहीं हो सकती-----------------------सत्य कहा आदरणीय
4-अनुभूति की उच्च अवस्था के पहले भाव-साधना तथा शब्द-साधना के घोर तप से गुजरना होता है |--------------बिलकुल दुरुस्त
बहुत कुछ क्हना चा---ह रहा था पर शायद स्पेस की सीमा ख़त्म हो गयी है ---इस बेहतरीन आलेख के लिए मेरी बधाई सादर .
आदरणीय गोपाल नारायण जी, आपको मेरा प्रयास सार्थक लगा. और मेरी समझ आपको मान्य हुई, इस हेतु आपका सादर आभारी हूँ.
आप इसी आलेख का दूसरा भाग भी देखें. आपके सुधी मंतव्य से मुझे दिशा भी मिलेगी और आपकी सलाहों से मुझमें अपेक्षित सुधार भी होगा.
शुभ-शुभ
प्रणाम आ० सौरभ जी
गीत की विकास यात्रा के किसी एन्साइक्लोपीडिया को पढ़ लिया जैसे इस आलेख को पढ़ कर... बहुत खूबसूरती से गीत के उद्भव, प्रारूप, विकास यात्रा, गीत की अपेक्षाएं, सब कुछ सम्मिलित किया है आपने..
शायद एक बिंदु पर पहले भी मंच के किन्ही पन्नों में चर्चा हो चुकी है आपसे, लेकिन एक अरसा बीत जाने पर मेरी स्पष्टता उस बिंदु विशेष पर कुछ धूमिल हो गयी है..कृपया पुनः प्रकाश डालियेगा
//इसके प्रारूपों में मात्र शब्द ही नहीं, बल्कि गणित शास्त्र के मान्य और स्वीकृत गणितीय-चिह्न भी कविता का मुख्य भाग बन गये हैं जिनको ध्वनियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता//
इस रिसर्च बेस्ड विस्तृत और गहन आलेख के लिए धन्यवाद आदरणीय
सादर
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ,नमस्कार ! "कविता की विकास यात्रा' पढ़ते वक्त ऐसा लग रहा था कि यह इंसान की विकास यात्रा पढ़ रहा हूँ और हो क्यों न ? इंसान की अभिव्यक्ति ही तो उसे औरों से श्रष्ट बनाती है | इंसान में पल्लवित सभी सहज प्रवृत्ति --आक्रोश, विद्रोह, विरोध, अस्वीकृति, खीझ, व्यंग्य, रोष, आतंक, तनाव, अवसाद, संत्रास, विवशता, संकट, पीड़ा, आत्महत्या, आत्मनिर्वासन, आत्मरति, श्रम के परायेपन, .....आदि का सम्प्रेसन का माध्यम नाट्यकाव्य , गद्य काव्य और पद्य की सभी विधाएं हैं |इसके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता | यह शोधात्मक आलेख संग्रहनीय है | शोध कर्मियों के लिए अत्यंत उपयोगी है | हार्दिक बधाई स्वीकार करें |सादर
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