परम आत्मीय स्वजन,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 53 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह खुदा-ए-सुखन मीर तकी 'मीर' ग़ज़ल से लिया गया है| पेश है मिसरा-ए-तरह
"कुछ अजब तौर की कहानी थी"
२१२२-१२१२-२२
फाइलातुन मुफाइलुन फेलुन
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 28 नवम्बर दिन शुक्रवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक २९ नवम्बर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन से पूर्व किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | ग़ज़लों में संशोधन संकलन आने के बाद भी संभव है | सदस्य गण ध्यान रखें कि संशोधन एक सुविधा की तरह है न कि उनका अधिकार ।
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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शुक्रिया दिगंबर जी
आ. नीलेश भाई , हर शेर पर सौ सौ दाद कबूल करें l
शुक्रिया आ. लक्षमण जी
आदरणीय नीलेशभाईजी, आपकी ग़ज़लें सीधे भावनाओं के कुण्ड से महमहाती हुई साझा होती हैं.
रात ख़्वाबो में कौन आया था,
सुब’ह साँसों में रातरानी थी.
पढ़ते पढ़ते गुज़र गया शाइर,
हाथ में डायरी पुरानी थी.
इन दो अशआर की रौशनी में आपकी ग़ज़ल को दिल से सुन रहा हूँ.
सादर बधाइयाँ और शुभकामनाएँ
शुक्रिया आ. सौरभ सर .. बहुत दिनों के बाद ये कोशिश की है ..आजकल ग़ज़ल का साथ छूटता जा रहा है ..आप की दाद से हौसला मिला है.
//इसलिए हार हमने मानी थी,
जो मुसीबत थी, आसमानी थी.//
इस मतला को शेर बना दें, और हुस्ने मतला को मतला, वरना काफ़िया में गड़बड़ी हो जाएगी
इसलिए हार मानी थी हमने ,
जो मुसीबत थी, आसमानी थी.
काफ़िये पर मेरा मंतव्य कमेंट में स्पष्ट किया है मैंने ..
आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक ...सहर होने तक, जिगर होने तक, ख़बर होने तक ...
मानी.. मानना का एक्सटेंशन है और आसमानी आसमान का ..दोनों मूल शब्द हैं अत: मेरे हिसाब से यहाँ कनफ्लिक्ट नहीं होगा.
फिर भी आ. तिलकराज कपूर सर, राणा प्रताप सर और वीनस केसरी जी की भी इस्लाह चाहूँगा इस विषय पर
ग़ालिब की इस ग़ज़ल में
असर और सर दोनों में स अलग अलग हैं
स्वाद और शीन ........इसीलिए ग़ालिब की उस ग़ज़ल में काफिये एकदम दुरुस्त हैं| मुझे ऐसा लगता है कि आप काफिये बदल लें ..हुस्ने मतला करने से भी सिनाद का ऐब रह जायेगा
जी, आपका आदेश सर माथे पर ...
तीन शेर और कहे थे ...उन पर भी नज़र डाल लें
.
झेंप जाता है देख कर मुझको,
साथ में उम्र जो बितानी थी.
.
शम’अ बुझते ही आप बुझने लगे,
आपको धडकनें सुनानी थी.
.
उनको तो सिर्फ़ ख़त जलाने थे,
ज़िन्दगी तो हमें जलानी थी.
.
सादर
बहुत सही.. आपका तर्क़ भी कई जगहों पर देखा है..
मैं अब भी कन्विंस नहीं हो पा रहा हूँ ..कहानी, रवानी के साथ बुझानी लगानी आदि से :(
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