परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 61 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह खुदा -ए सुखन मीर तकी मीर की ग़ज़ल से लिया गया है|
"रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया"
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फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फा
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 24 जुलाई दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 जुलाई दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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सिमरन, पूजन और-आवाहन प्रतिदिन आठों याम किया
प्रेम मिलन में आतुर मन ने केवल इतना काम किया
वह तो एक विशाल हृदय है, हर इच्छा करता पूरी
उसने खुद को श्याम किया तब इच्छित को बलराम किया
मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थककर चूर हुईं
जब बच्चों को हँसते देखा, आँखों ने आराम किया
‘उसकी माया वो ही जाने’ इसका मतलब यूं समझो
धरती पर खुद रावण भेजा फिर धरती पर राम किया
जब-जब मेरी आँखें बरसीं, तब-तब दिल ने समझाया
सारा जीवन दोनों ने ही अपना - अपना काम किया
कैसे बाज़-आ जाए बनिया, आखिर अपनी फितरत से
खेतों में जो पाला देखा, उसने घर गोदाम किया
पापों के साए में खुद को, यूँ जीवित रखते है हम
घट भरने की बारी आई, सीधा तीरथ धाम किया
अवसादों में घिरकर भी आँखों से इतना रीता हूँ
जब भी छत पर बादल आया, उसको देख सलाम किया
दुनिया की मस्ती में डूबा, भटका बस मृगतृष्णा में
तेरा आज दयार मिला तो पहली बार कयाम किया
प्रेम विरह में विकल हृदय अब...... करता है केवल इतना
“रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया”
(मौलिक व अप्रकाशित)
बेहद ही खूबसूरत कलाम से इस मुशायरे का आगाज़ किया है भाई मिथिलेश जी। ग़ज़ल बहुत पुरकशिश हुई है जिसके लिए दिली मुबारकबाद ककूल फरमाएं। पांचवें और आखरी शेअर में तक़ाबुल-ए-रदीफैन का ऐब है उसपर तवज्जो दें।
आदरणीय योगराज सर, कुछ अलग तरह से ग़ज़ल कहने का प्रयास किया है और बहुत डरते डरते ये प्रयास हुआ है कि कहीं शायरी पर असर न पड़े. आपका अनुमोदन मिल गया तो आश्वस्त हुआ हूँ. आपकी सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
जब-जब मेरी आँखें बरसीं, तब-तब दिल ने समझाया
सारा जीवन दोनों ने ही अपना - अपना काम किया..... आपने सही कहा इस शेर में तक़ाबुल-ए-रदीफैन का ऐब है. इसे मैंने सुधार कर मिसरा "जब-जब मेरी आँखें बरसीं, तब-तब समझाया दिल ने" और फिर "जब भी मेरी आँखें बरसीं, तब समझाया दिल ने है" किया था किन्तु इससे कहन प्रभावित हो रही थी इसलिए फिर से उसे मूल रूप में रख दिया जैसा पहली बार लिखा था.
गिरह के शेर में त्रुटी हुई है जिसे "करता केवल इतना है" के रूप में सुधारने का प्रयास किया है.
ग़ज़ल पर आपकी सराहना और मार्गदर्शन पाकर सदैव मेरा मनोबल बढ़ता है. प्रशंसा और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन.
वाह्ह बहुत सुन्दर ग़ज़ल लिखी है बधाई ...पोस्ट पर कल फिर से आती हूँ शुभरात्रि
आदरणीया राजेश दीदी सराहना के लिए आभार. विस्तृत प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में..... शुभरात्रि
बहुत उम्दा ग़ज़ल है। साधुवाद आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी। बधाई स्वीकार करें।
‘उसकी माया वो ही जाने’ इसका मतलब यूं समझो
धरती पर खुद रावण भेजा फिर धरती पर राम किया---वाह वाह।
दुनिया की मस्ती में डूबा, भटका बस मृगतृष्णा में
तेरा आज दयार मिला तो पहली बार कयाम किया -- बहुत खूब शेर
आदरणीया डॉ नीरज शर्मा जी, ग़ज़ल पर सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आप जैसी संजीदा रचनाकार से प्रशंसा पाना मेरे लिए मायने रखता है. बहुत बहुत धन्यवाद.
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल से आपने आगाज़ किया है आयोजन का जिसके लिए मुबारकवाद । सभी शेर खूब हुए हैं और उनपर दिली दाद क़ुबूल कीजिये ।
// मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थककर चूर हुईं
जब बच्चों को हँसते देखा, आँखों ने आराम किया // , इस शेर जीत लिया । बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति के लिए आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी..
आदरणीय विनय जी आपकी आत्मीय प्रशंसा पाकर बहुत ख़ुशी मिली. ग़ज़ल के प्रयास पर सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय मिथिलेश भाईजी, ग़ज़ल के शेर ज़मीनी निकाले हैं आपने. गाँव और सीधी-सादी मानसिकता को स्वर देने का प्रयास भला लगा. मुझे आदरणीय भाई खुर्शीद खैराड़ी की बरबस याद आगयी. जाने वो भाई कहाँ हैं आजकल ?
अवसादों में घिरकर भी आँखों से इतना रीता हूँ
जब भी छत पर बादल आया, उसको देख सलाम किया ..
यह बहुत ही अच्छा शेर हुआ है.. सीधे दिल से निकलता हुआ..
दिल से दाद कुबूल कीजिये
अलबत्ता, तकाबुले रदीफ़ के लिहाज से देखिये तो ग़िरह के शेर को छोड़ भी दें मगर जब-जब मेरी आँखें बरसीं.. वाला शेर अवश्य सुधार चाहता है.
हार्दिक शुभेच्छाएँ
आदरणीय सौरभ सर, आपने बिलकुल सही कहा गाँव और सीधी-सादी मानसिकता को स्वर देने का प्रयास हुआ है और यह भी कि इस लहजे में आदरणीय खुर्शीद खैराड़ी जी की ग़ज़लों से प्रेरित भी है और उनका प्रभाव भी है. दरअसल प्रचलित जमीन पर लिखने के बाद अब 'थोड़ा हटकर' का प्रयास हुआ है. ग़ज़ल का प्रयास आपको अच्छा लगा, मेरे लिए बड़ी बात है. आपने तकाबुले रदीफ़ के लिहाज से जो मार्गदर्शन किया है, निवेदन है -
जब-जब मेरी आँखें बरसीं, तब-तब दिल ने समझाया
सारा जीवन दोनों ने ही अपना - अपना काम किया..... आपने सही कहा इस शेर में तक़ाबुल-ए-रदीफैन का ऐब है. इसे मैंने सुधार कर मिसरा "जब-जब मेरी आँखें बरसीं, तब-तब समझाया दिल ने" और फिर "जब भी मेरी आँखें बरसीं, तब समझाया दिल ने है" किया था किन्तु इससे कहन प्रभावित हो रही थी इसलिए फिर से उसे मूल रूप में रख दिया जैसा पहली बार लिखा था.
गिरह के शेर में त्रुटी हुई है जिसे "करता केवल इतना है" के रूप में सुधारने का प्रयास किया है.
ग़ज़ल पर आपकी सराहना और मार्गदर्शन पाकर सदैव मेरा मनोबल बढ़ता है. प्रशंसा और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन.
आदरणीय सौरभ सर, इस शेर को कोट करने के लिए बहुत बहुत आभार....
अवसादों में घिरकर भी आँखों से इतना रीता हूँ
जब भी छत पर बादल आया, उसको देख सलाम किया ..
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