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आदरणीया बबिता जी, गोष्ठी की प्रथम प्रस्तुति हेतु आभार । एक बार लघुकथा की दृष्टि से विचार कीजिये, क्या कथा पूर्ण हो सकी, आपने एक दृश्य उत्पन्न कर जैसे छोड़ दिया लेकिन conclude नहीं हो सका।
सादर।
शायद।आभार आपका ध्यानाकर्षण के लिए आदरणीय सरजी।
आदरणीया बबिता जी, हार्दिक बधाई इस सामयिक कथा के लिए।
इस गोष्ठी में आपकी प्रथम प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई। इस रचना से एक सजीव चित्रण उभर कर आ रहा है। आदरणीय योगराज प्रभाकर सर ने आपकी रचना को पुनः लिखकर चार-चाँद लगा दिए हैं। इस मार्मिक रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
गरिमा
.
" मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकता हूँ , और सब की छोड़ मैं अम्मा तक को भुला सकता हूँ। "
रेवती ने हँसते हुए कहा, " अरे ! नौकरी मिले एक महीना भी नही हुआ हैं लगता हैं दिमाग चल गया हैं।"
गम्भीर होते हुए धीरज ने कहा, " नौकरी की ही प्रतीक्षा थी वरना कब का - - - -।"
" क्या बके जा रहे हो तुम , मेरी समझ से परे हैं आज तुम्हारी बातें "
" समझ मेरी बात , मैं तुझे प्यार करता हूँ और सारी दुनिया से टकराने के दम रखता हूँ। हमे कोई नही समझेगा , चल भाग चलते हैं। बाद में सब ठीक हो जाएगा।"
रेवती अपने पर ही विश्वास नही कर पा रही थी।दादी , चाची का उसके और धीरज के रिश्ते पर उंगली उठाना सही और मां का उन दोनों के प्रति अटूट विश्वास मिथ्या साबित हो गया था।वह अपने मे ही गुम होती जा रही थी की :
" अरे ! गूंगी क्यों हुई जा रही हैं ? ऐसा करते हैं कल बाहर कहीं मिल लेते हैं और सब प्लान कर लेते हैं।" कहते हुए हाथ गालों से फिसलते हुए कंधों से पीठ तक पहुँच गए।
अब तक वह सारी हकीकत समझ चुकी थी।शरीर पर रेंगते हुए हाथ को झटकते हुए अपना निर्णय एक झटके में सुना दिया , " स्नेहिल पवित्र रिश्ते की आड़ में भले ही मेरे शरीर पर तुम कीड़े की तरह रेंग लिए लेकिन दांत नही गड़ाने दूंगी। आज के बाद रिश्तों की गरिमा बरकरार रख पाये तब ही इस देहरी पर आइयेगा। "
मौलिक एवं अप्रकाशित
सीख और सबक सिखाती विषयांतर्गत सुन्दर रचना।बहुत-बहुत बधाई, दी।
आपका हार्दिक धन्यवाद आ. बबिता गुप्ता जी
आपकी रचना की पंक्चुएशन थोड़ी दुरुस्त की है आ० अर्चना त्रिपाठी जी, बताइएगा सम्प्रेषण कुछ बेहतर हुआ कि नहीं.
गरिमा
.
“मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकता हूँ, और सबकी छोड़ मैं अम्माँ तक को भुला सकता हूँ।”
रेवती ने हँसते हुए कहा, “अरे! नौकरी मिले एक महीना भी नहीं हुआ हैं लगता हैं दिमाग़ चल गया हैं।”
गंभीर होते हुए धीरज ने कहा,
“नौकरी की ही प्रतीक्षा थी वरना कब का----।”
“क्या बके जा रहे हो तुम, मेरी समझ से परे हैं आज तुम्हारी बातें”
“समझ मेरी बात, मैं तुझे प्यार करता हूँ और सारी दुनिया से टकराने के दम रखता हूँ। हमें कोई नहीं समझेगा, चल भाग चलते हैं। बाद में सब ठीक हो जाएगा।”
रेवती अपने पर ही विश्वास नहीं कर पा रही थी। दादी, चाची का उसके और धीरज के रिश्ते पर उँगली उठाना सही और माँ का उन दोनों के प्रति अटूट विश्वास मिथ्या साबित हो गया था। वह अपने में ही गुम होती जा रही थी की :
“अरे! गूँगी क्यों हुई जा रही हैं? ऐसा करते हैं कल बाहर कहीं मिल लेते हैं और सब प्लान कर लेते हैं।” कहते हुए हाथ गालों से फिसलते हुए कंधों से पीठ तक पहुँच गए।
अब तक वह सारी हक़ीक़त समझ चुकी थी। शरीर पर रेंगते हुए हाथ को झटकते हुए अपना निर्णय एक झटके में सुना दिया, “स्नेहिल पवित्र रिश्ते की आड़ में भले ही मेरे शरीर पर तुम कीड़े की तरह रेंग लिए लेकिन दाँत नहीं गड़ाने दूँगी। आज के बाद रिश्तों की गरिमा बरक़रार रख पाए तब ही इस देहरी पर आइयेगा।”
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदाब। बहुत ख़ूब आदरणीय सर जी। बहुत-बहुत शुक्रिया हमें भी मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु।
क्षमा चाहती हूं आ. सर। पढ़ तो कल ही लिया था परंतु जवाब नही दे पाई थी।इतने उम्दा मार्गदर्शन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद ।यह हमारी ऐसी त्रुटियां हैं जिसे हम चाहकर भी ठीक नही कर पा रहे हैं। आगे कोशिश रहेगी।
आदरणीय सर
इस लघुकथा में सम्प्रेषण तो आ गया है परंतु इस रचना में कहीं 'तुम' और कहीं तुझे' का प्रयोग हो रहा है। क्या इस तरह से लिखना सही होता है ?
सादर।
आदरनीया अर्चना जी, इस सोच में उलझे जा रहा हूँ , ये रिश्ते सच में मिथ्या हैं, या जिस आधार पे हैं वो आधार ही अब बिखर रहा है , लघुकथा के लिए बधाई हो
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