परम आत्मीय स्वजन 66वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर है| मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और हरे अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|
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मिथिलेश वामनकर
विरोध पाल लिया आपने जो झरने का
सलीका सीख लो पानी में अब उतरने का
अभी तो प्रात का स्वागत हो, फिर ठिठुर लेना
तनिक समय दो नई धूप को संवरने का
गृहस्थ मोह से उपराम हो गए लेकिन
निवृत्ति नाम है संसार से विचरने का
हरेक बात पे बस हाँ में हाँ नहीं कहते
समझ लो मित्र नया ढंग ये मुकरने का
कभी तो भर लो ये सौन्दर्य अपनी बाँहों में
मज़ा लो कांपते हाथों में भी सिहरने का
प्रत्येक दोष का बस दण्ड हल नहीं भाई
सभी को एक तो अवसर मिले सुधरने का
सभी का आसरा जो है, उसी तिरंगे से
सलीका सीख लें परचम सभी लहरने का
विधान जब से उड़ानों के हक़ में पारित है
नियम भी साथ बना एक पर कुतरने का
पुकारता है गगन, चल जगत के सागर से
“तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का”
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Samar kabeer
क़लम से अपने तसव्वुर को क़ैद करने का
मैं काम करता हूँ ग़ज़लों में रंग भरने का
कोई तलाश,कोई जुस्तुजू तो लाज़िम है
यूँ,बैठे बैठे मुक़द्दर नहीं सँवरने का
ये बचपने में दिया था सबक़ बुज़ुर्गों ने
नहीं किसी से ख़ुदा के सिवाए डरने का
हमारी मौत ही आकर इसे उतारेगी
कि,जीते जी तो नहीं बोझ ये उतरने का
क़लील वक़्त ,मसाफ़त तवील है यारो
सवाल ही नहीं उठता कहीं ठहरने का
हमें तो साथ ही जीना है और मरना भी
यही उसूल है दुनिया में प्यार करने का
अब इसको शैर में तब्दील किस तरह से करें
हमारे सामने इक क़ाफ़िया है झरने का
इक हिचकी आई हमें और ठहर गईं साँसें
"तमाशा ख़त्म हुवा डूबने उभरने का"
किसी की याद ने पहरे बिठा दिए हैं "समर"
अब इस तरफ़ से कोई ग़म नहीं गुज़रने का
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MOHD. RIZWAN
यही है काम तुझे ज़िन्दगी में करने का
दिलों में सबके मोहब्बत का रंग भरने का
बना सका न वही दिल में मेरे घर अपना
था इन्तज़ार जिसे उम्र भर ठहरने का
कुरेदता रहा जो ज़ख्म हाय दिल मेरे
जो कर रहा है जतन आज उनके भरने का
सब अपनी अपनी सियासत में मुब्तिला हैं यहाँ
है किसको दर्द ग़रीबे वतन के मरने का
हयात रूठगई खौफ भी हुआ रुखसत
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का
ख़बर फरिश्ते ये लाये हैं इब्ने मरियम की
ये दिन है आज का सजने का और संवरने का
करोगे तुम जो इबादत ये सोचलो रिज़वान
यही है कब्र में बिस्तर तेरे ठहरने का
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Ravi Shukla
लहर से दूर किनारे पे कुछ ठहरने का
तरीका सीख ले साहिल से बात करने का
ये ज़िन्दगी है इसे प्यार से गुज़ार सकूँ
बनूँ सबब न किसी की अना बिखरने का
तमाम लोग सुकूं की तलाश में डूबे
नदी को रंज नही पर किसी के मरने का
ख़याल दिल में जो पैहम रहे ख़ुदा तेरा
सवाल पैदा ही क्यूँ हो किसी से डरने का
गुलाब ख़ार खिले है चमन में दोनों ही
सवाल ये है कि वक़्फा तो हो ठहरने का
ये ज़िन्दगी भी सभी को नही मुफ़ीद मगर
किसी तरह से हो जीवन में रंग भरने का
हुआ ये कौन हमारे हुक़ूक़ में हाइल
अमीरे शह्र से पूछेँ सबब मुकरने का
उदास शाम में डूबा हुआ कोई लम्हा
गुज़र भी जाए तो दिल से नहीं गुज़रने का
सिमट सिमट के जिए जा रहा था मैं लेकिन
किरण किरण ने सिखाया मज़ा बिखरने का
दख़ील तुम हो मनाज़िर के इल्तिज़ा तुमसे
न ख़ुदकुशी में तलाशो सलीक़ा मरने का
चलो ये लाश उठाओ मज़ा तमाम हुआ
तमाशा खत्म हुआ डूबने उभरने का
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शिज्जु "शकूर"
हवा के तेज़ थपेड़ों में जीने मरने का
है खूब तज़्रिबा ये कर्ब से गुज़रने का
लो तैरने लगी सच्चाई सत्ह पर आके
“तमाशा खत्म हुआ डूबने उभरने का”
न जाने कौन से रस्ते में था तमाम सफर
मिला न मौका किसी मोड़ पर ठहरने का
खुशी तलाशते गुजरी है मेरी उम्र तमाम
मेरा तो काम ही है इंतज़ार करने का
न टिक सका कभी मौसम के सामने कोई
सबब ये भी था मेरे टूटने बिखरने का
बुझी-बुझी हुई बेआस नज़रों से हर शाम
नज़ारा देखता हूँ रात के उभरने का
है हर्फ़-हर्फ़ शराबोर जज़्बा-ए-दिल से
वरक़ पे उतरा हो जैसे बहाव झरने का
भला मैं तन्हा तलातुम से कैसे लड़ता ‘शकूर’
था वाकिया मेरी कश्ती में पानी भरने का
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Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"
मलाल अब न करो टूटकर बिखरने का।
तो क्या हुआ कि तुम्हें शौक था संवरने का।।
उसे गलत भी कहें तो भला कहें कैसे।
विनाश फल है रहा दामिनी के गिरने का।।
उठी थी दर्द भरी जो सुनामी ठीक हुआ।
तमाशा खत्म हुआ डूबने उभरने का।।
गज़ब सवाल ये तुमने किया 'ये काहें हुआ'
ईनाम ही है यही इश्क़ यार करने का।।
हज़ार बार सलामी तुम्हारी हिम्मत को।
मनाएं जश्न चलो आग से गुज़रने का।
ख़ुशी मनाओ चलो पीर- नीर की 'पंकज'।
सही मिला है ये पोषण तेरे निखरने का।।
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गिरिराज भंडारी
जहाँ न सूर्य को मौका दिया उभरने का
वहाँ दियों को समय मिल गया निखरने का
हरेक ज़ेह्न मिला कैंचियों की धार लिये
बुनेंगे ख़्वाब हमेशा वो पर करतने का
पसे खमोशी वो जो चीख़ तिलमिलाती है
कभी दो मौक़ा उसी चीख को उभरने का
उधर की धमकियों के लफ्ज़ सुन के बेहूदे
इधर प्रयास हुआ सिर्फ शांत करने का
कहीं मिसाइलें ज़हनों में हैं, कहीं चरखे
है इंतिज़ार मुझे रग में आग भरने का
हरेक ईंट का, हरदम जवाब पत्थर हो
अभी समय नहीं है प्यार में उतरने का
डरे हुओं से कहो छिप के बैठ जायें कहीं
इशारा हौसला मन्दों को है बिखरने का
वो सांस आखिरी थी, अब हटें तमाशाई
“ तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का ”
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laxman dhami
उन्हें तो शौक परिंदों के पर कतरने का
मगर तू हौसला रखना उड़ान भरने का /1
बिछा के जाल यहाँ डालते हैं दाना सब
समझ के फैसला करना जरा उतरने का /2
जमाना और था पनघट की सिम्त जाते थे
मिलन को रोज बहाना था नीर भरने का /3
फिसलना हमको था यारब गली से गुजरे वो
बहाना खूब मिला खुल के आह भरने का /4
मिटादी ओढ़ के चिलमन जो दीद की हसरत
जनाजा खूब उठा आस के गुजरने का /5
लगे न दाग ये सोचा तुम्हारी हसरत को
वगर्ना शौक था किसको यहाँ सवरने का /6
कहा है आपने जब से है आइना मुझको
वो इंतजार करे टूट के बिखरने का /7
पराई जब से हुई हैं वो झील सी आखें
तमाशा खत्म हुआ डूबने उतरने का /8
सदा जो साँझ में दी है सुना है मंजिल ने
डगर में अब तो ‘मुसाफिर’ कहा ठहरने का /9
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Tasdiq Ahmed Khan
इरादा करलिया हमने भी प्यार करने का /
सवाल ही नहीं उठता किसी से डरने का /
हमारे बीच कोई है तो वह है तन्हाई
यही है वक़्त हदे इश्क़ से गुज़रने का /
मिटा सका न ज़माना हमारी हस्ती को
उठा रहा है मगर फ़ायदा बिखरने का /
शिकस्त खाने पे नाराज़गी भला कैसी
मिला नहीं है क्या मौक़ा तुम्हें सुधरने का /
भँवर के जाल में पैराक आगया ख़ुद ही
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का /
मरीज़ बाप की परवाह है भला किसको
हरीस बेटों को है इन्तज़ार मरने का /
हुक़ूक़ मिलते नहीं सिर्फ़ गिड़गिड़ाने से
सहारा लीजिए लहजा बदलके धरने का /
नशा है इश्क़ का एैसा अगर यह चढ़ जाए
पलट के नाम कभी भी न ले उतरने का /
परिन्दगान का भी हक़ है जब रिहाई पर
गुनाह करते हैं क्यों आप पर कतरने का /
बुलन्दियों पे पहुँच कर न फ़ख्र कर इतना
कमाल सिर्फ़ है ऊँचाई पे ठहरने का /
ठहर गए हैं वह तस्दीक़ ग़ैर के दिल में
ख़याल छोड़दो बाहों में उनको भरने का /
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rajesh kumari
लगा के दिल किसी पत्थर से आह भरने का
बहुत है शौक इन्हें टूट कर बिखरने का
पढ़ाई में न लगे दिल मगर फटाफट से
रटें ये खूब सबक प्यार व्यार करने का
मचलते ख़्वाब कई आसपास झीलों के
मिलेगा रास्ता कोई नया उतरने का
अज़ल से ख़ोज रही है उदास पगडंडी
निशाँ कोई तो मिले कारवाँ गुजरने का
सिमटते जा रहे पर्वत बीमार हैं नदियाँ
रहेगा फिर कहाँ साबुत वजूद झरने का
करीब ले गई साहिल के कशमकश अपनी
तमाशा खत्म हुआ डूबके उभरने का
पनप रहे हैं यहाँ सुब्ह शाम बलवाई
जिगर में खौफ़ कहाँ आज उनके मरने का
लगे हैं खेत में दिन रात पेट की खातिर
न ख्वाहिशें न उन्हें वक़्त है सँवरने का
उड़ान भर रही हैं बुलबुलें बुलंदी तक
ज़माना बीत गया पंख अब कुतरने का
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दिनेश कुमार
हुनर नहीं जो हवाओं के पर कतरने का
रहेगा खौफ़ हमेशा ही बुझ के मरने का
हम आइनों के मुख़ातिब न हो सकेंगे कभी
हमें तो ख़तरा है अपना नक़ाब उतरने का
वफ़ा की राह पे मरना भी था मुझे मन्जूर
कोई तो होगा सबब मेरे अब मुकरने का
दरार बढ़ती है बढ़ जाये बदगुमानी की
ये मैंने सोचा है उनसे न बात करने का
बहेलिये की कहानी से ही डरे ताइर
रहा न हौसला उनमें उड़ान भरने का
न उसने दिल से मुझे रोकने की कोशिश की
न मेरे पास समय था वहाँ ठहरने का
लो उनकी झील सी आँखों के हम हवाले हुए
'' तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का "
सफ़ेद होने लगीं हैं हमारी भी क़लमें
निशान पड़ने लगा वक़्त के गुज़रने का
फ़लक से राह नुमाई दिनेश ने की थी
सवाल उठता कहाँ ज़ुल्मतों से डरने का
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Ahmad Hasan
खुशा के वक़्त है तिनके पे तिनका धरने का
ख़िज़ाँ का दौर है तिनकों का घर बिखरने का /
तुम्हें जो शौक़ था इलज़ाम हम पे धरने का
अब आज दिन है तुम्हें मान हानि भरने का /
अभी भी वक़्त है कुछ नेक काम कर जाओ
यही तो रास्ता है मुक्ति प्राप्त करने का /
हम अपने ख़ूने जिगर में क़लम डुबोने लगे
हुनर जो सीख लिया हम ने रंग भरने का /
खुशामदों की है पतवार मस्त हैं माझी
अब और कौन सा दिन होगा डूबमरने का /
जो बूँद स्वात की थी सीप में वो आ ही गई
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का /
मेरी पुकार को सुनते ही सांस टूट गई
ये काम और बढ़ा उनको दफ़्न करने का /
सफ़ीना डूबे है तूफ़ान में है भवसागर
मगर है हौसला तूफाँ के पार उतरने का /
ग़मों की धूप में ठंडक तलाश करने को
हम अपनी आँख से लेते हैं काम झरने का /
किसे ये तर्ज़े अमल जिंदगी का रास आया
बदन से रूह को रह रह के दूर करने का /
जवान बेटे को यमराज ले गया अहमद
मुझे ये कह गया बुढ्ढे नहीं तू मरने का /
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जयनित कुमार मेहता
चुनावी वायदे करके सदा मुकरने का
सियासी चाल है ये,अपना पेट भरने का
न लुत्फ़ ज़िन्दगी का वो कभी उठा पाया
है ख़ौफ़ हद से ज़ियादा जिसे भी मरने का
नदी, पहाड़, भँवर रास्ते-से लगते हैं
हो जज़्बा दिल में अगर कुछ भी कर गुजरने का
बही गुनाहों की कुछ तो ज़रूर सिमटेगी
न छोड़ मौका कभी नेक काम करने का
गँवारा इसको नहीं एक पल ठहर जाना
ये मेरी ज़िन्दगी है या है पानी झरने का
अब उनकी झील-सी आँखों में 'जय' नहीं बसता
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का
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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
सवाल है ही कहाँ अब किसी से डरने का
यही है वक्त घमासान कर गुजरने का
उसे जहां में भला कौन रोक पाया है
जिसे है इल्म हवाओं पे वार करने का
तमाम बात कही आपने खफा होकर
नहीं विचार किया बात के अखरने का
कभी विचार हवा में उडा दिए हमने
कभी विचार किया ख्वाब में विचरने का
शहर का शोर प्रदूषण यही मिला तुमको
दिखा पहाड़ नहीं या मिजाज झरने का
लिये जो तोड़ सभी आपने हसीं रिश्ते
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का
बड़ी अजीम नियामत है जिन्दगी यारों
करो अभी तो नही इन्तजार मरने का
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Sachin Dev
नहीं है खौफ उन्हें टूट कर बिखरने का
जिन्हें है शौक मुसीबत में ही निखरने का
खुला हुआ है यहाँ आसमां बराबर से
किसी को हक़ नही पर और के कुतरने का
गली-गली में मिलेंगे यहाँ पे दुस्साशन
मिले न कृष्ण सबक दे जो चीर हरने का
वो जिसने छीन लिया हक किसी से जीने का
मिला है हक़ उसे कानून से सुधरने का
जरा सा जोश दिखाया तो पार सागर के
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का
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मोहन बेगोवाल
अगर मिला है ये अवसर हमें सुधरने का
चलो सबब कोई तो हो यहाँ विचरने का
अभी दिखाई जो तस्वीर थी हमें तुमने
लगा बनाया बहाना यूँ रंग भरने का
बता गया था बनी खास हैं तेरी राहें
तभी बना लिया मन आम पर गुजरने का
लगी नहीं कोई बातें नई हमें उसकी
तभी लगा कोई दिल में नहीं उतरने का
बसाई वोट की खातर जो भूख की बस्ती
चुनाव जो हुआ तो सिलसिला बिखरने का
उभर आया हूँ मैं जो डूब कर सतह पर अब
"तमाशा खत्म हुआ डूबने उभरने का"
खड़ा वहाँ न यहाँ कोई साथ अब मेरे
नहीं रहा है तभी खौफ अब यूँ डरने का
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shree suneel
ये वादियाँ,ये चमन,औ सफेद झरने का
है लुत्फ़ ख़ूब तेरी ज़ीस्त में उतरने का.
ख़ुनुक फ़ज़़ा है बिछाओ तो लाॅन में चादर
ये वक़्त,धूप में हीं गुफ़्तगू है करने का.
मैं बार-बार हीं नाकामयाब होता हूँ
मगर हुआ न कभी तज़्रिबा बिखरने का.
ये सरगुज़श्त है दिल टूटने बिखरने की
सुने वही, है हुनर जिसमें आह भरने का
मैं मुंतजिर था चमन में कि अब खिलेंगे गुल
पयाम आया बहारों के पर मुकरने का.
उठा रही हैं सरें ताक़तें कुछ ऐसी आज
ऐ अहले हिन्द डरो वक़्त आया डरने का.
मक़ामे इश्क़ है ये क्या 'सुबन्धु'अब जिसमें
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का.
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Nilesh Shevgaonkar
.
शगल था, मेरी हर इक चाल पर बिफ़रने का,
मलाल वक़्त करेगा मेरे गुज़रने का.
.
दिया है मौका मेरी रूह को सँवरने का,
तमाम उम्र इबादत ख़ुदा की करने का.
.
न आरज़ू न तमन्ना न कोई ख्वाहिश है,
रहा न वक़्त मेरे पास अब ठहरने का.
.
बड़ी तलब थी मुझे, रोज़ रोज़ जीने की,
सुनाया हुक्म गया रोज़ रोज़ मरने का.
.
क़तर न पर अभी सैयाद तू क़फ़स में मेरे,
कि ताज्रिबा तो करूँ मैं उड़ान भरने का.
.
भुला चुका हूँ तेरी आँखों के समुन्दर को,
“तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का.”
.
वो शख्स अपने बिगड़ने का क्या करे शिकवा,
मिला नहीं जिसे मौका कभी सुधरने का.
.
अगरचे जादू मेरा बोलता है सर चढ़कर
किया इरादा है दिल में तेरे उतरने का.
.
करम ख़ुदा का जो बक्शा मुझे हुनर-ए-क़लम,
मुझे भी मौक़ा दिया “नूर” बन बिखरने का.
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Dr Ashutosh Mishra
नहीं ये वक़्त मेरे दोस्तों बिखरने का
वतन के वास्ते मौका ये काम करने का
लगाया मुझपे है इल्जाम तुमने डरने का
सिपाही हूँ है नहीं खौफ मुझको मरने का
हसीन जुल्फों गुलाबी लवों की मलिका भी
है चाहे वक़्त मिले थोडा तो संवरने का
रखो संभाल के माचिस, दियों में तेल रखो
फलक से वक़्त है सूरज के अब उतरने का
तमाम उम्र गुजारी है बैठ साहिल पे
है इंतज़ार नदी के अभी उतरने का
हथेलियों में समंदर संभालते हैं हम
रियाज रोज सबब बनता फन निखरने का
क़ज़ा से मिल के बड़े चैन से आशू बोले
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का
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Sheikh Shahzad Usmani
रहा लगाव कभी फ़र्ज़ से उभरने का,
रहा झुकाव कभी स्वार्थ से संवरने का ।
तराशना न रहा आसां' आज बेटे को,
दिमाग़ रोज़ भटकता कहां निखरने का ।
हुआ रिवाज़ लुटाना जमीर, जर, अस्मत,
तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का ।
कि जश्न ख़ूब हुआ आज पर्व क्रिसमस पर,
सवाल ही न रहा धर्म-भेद करने का ।
हुआ विरोध, न फ़तवा बलात क्रिसमस पर,
कि पर्व आज हुआ प्रेम, दोस्ती' करने का ।
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अजीत शर्मा 'आकाश'
दबाव डालेंगे मांगों को पूरी करने का ।
सही समय है प्रदर्शन का और धरने का ।
डुबो दिया है जो सूरज को रात ने आकर
मिला है मौक़ा सितारों को भी उभरने का ।
बिगाड़ रक्खा है माहौल इस क़दर उसने
नहीं है फ़ायदा कोई भी, बात करने का ।
सुरूर मय का तो चढ़ के उतर ही जायेगा
ग़ुरूर नाम न लेगा कभी उतरने का ।
नहीं है कोई भी मंज़िल कठिन किसी के लिए
जो मन में हौसला हो कुछ भी कर गुज़रने का ।
उसे निगल ही के माना ग़ुरूर दरिया का
[[तमाशा ख़त्म हुआ डूबने उभरने का ]]
बुझाता रहता है ‘आकाश’ तिश्नगी सबकी
परोपकार है हरदम स्वभाव झरने का ।
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सीमा शर्मा मेरठी
सभी को शौक़ है घर में क़याम करने का
किसी को वक्त नही दश्त से गुजरने का ।
कहानी खत्म हुई गिर गए सभी पर्दे
"तमाशा खत्म हुआ डूबने उभरने का "।
फ़िराक़ में था समन्दर अभी डुबाने को
थपेड़ों शुक्रिया उस पार मुझको करने का ।
जरा सी देर में मंजर बदल गए सारे
पता चला न मुझे रास्ता गुज़रने का ।
तुझे गुरूर अगर है जमाल पर अपने
मुझे भी वक्त नही आज प्यार करने का ।
गिरा न पायी मुझे आंधिया किसी भी तरह
हवा को शौक था कितना ही पर कतरने का।
ज़रा सी देर को सोया है दर्द सीने में
ये वक्त ठीक नही तुझको याद करने का ।
दी मौत ने मिरी दहलीज़ पे ज़रा दस्तक़
रहा न जीस्त को अब शौक ही संवरने का ।
हो सीमा आइना बचना कि संगे दुनिया से
किसी को मौका न दो खुद पे चोट करने का।
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Karunik
उसे भी शौक था कभी बहुत सवरने का,
है आज भूली सलीका जो मांग भरने का
तमाम उम्र झुका ना कहीं भी जो आदम,
उसे ही खौफ सताता है आज मरने का
भुला सको तो भुला दो ये रंजिशें, ये गिले,
मिला है क्या ही इन्हे साथ ले पसरने का
जो हो सका न मुक्कमल कभी भी जीते-जी,
दिया है मौत ने मौका उसे निखरने का
समझ सको तो समझ लो जहाँ के सच को ज़रा,
है फायदा न सनम सच से यूँ मुकरने का
गिरा दो अब तो ये पर्दा-ऐ-ज़िन्दगी 'हासिल',
तमाशा खत्म हुआ डूबने उभरने का
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मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|
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जनाब राणा साहिब , बेहतर निज़ामत और कामयाब मुशायरे के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं / शेर 10 का ऊला मिसरा हरे रंग में है / मेहरबानी करके इसकी कमी बताने की ज़हमत कीजिये। .. शुक्रिया
जनाब तस्दीक साहिब आप जिस शेर का ज़िक्र कर रहे हैं उसमे ऐब-ए-तकाबुल-ए- रदीफैन ऐब है|
जनाब राणा साहिब , मेरे हिसाब से तो ऊला मिसरा रदीफ़ के मुक़ाबिल सही है पता नहीं आपको ऐसा क्यों लग रहा है। ....... बहुत बहुत शुक्रिया
सर रदीफ़ का अंत भी अलिफ़ से हो रहा है और मिसरा-ए-ऊला भी अलिफ़ से ख़त्म हो रहा है ..ऐसे में अगर केवल ये शेर अकेले पढ़ा जाएगा तो मतले का आभास देगा ...इसलिए यह एक ऐब माना जाता है|
बहुत बहुत शुक्रिया
जनाब राना साहिब , शेर 10 के ऊला मिसरे को इस तरह तब्दील करने की ज़हमत कीजिये। .... बुलन्दियों पे पहुँच के न फ़ख्र इतना कर। .... शुक्रिया
जी आप बिलकुल सही कह रहे हैं ..आप भी इस ऐब पर नज्रेसानी कर लें|
शंशोधित ग़ज़ल
अगर मिला है ये अवसर हमें सुधरने का
चलो सबब कोई तो हो यहाँ विचरने का
अभी दिखाई जो तस्वीर थी हमें तुमने
लगा बनाया बहाना यूँ रंग भरने का
बता गया था बनी खास हैं तेरी राहें
तभी बना लिया मन आम पर गुजरने का
लगी नहीं कोई बातें नई हमें उसकी
तभी लगा कोई दिल में नहीं उतरने का
बसाई वोट की खातर जो भूख की बस्ती
चुनाव जो हुआ तो सिलसिला बिखरने का
मैं डूब कर हमेशा तेरे में गुम गया हूँ
"तमाशा खत्म हुआ डूबने उभरने का"
खड़ा वहाँ न यहाँ कोई साथ अब मेरे
नहीं रहा है तभी खौफ अब यूँ डरने का
आदरणीय राणा सर आयोजन की सफलता हेतु हार्दिक बधाई एवं संकलन हेतु आभार.
मतले की त्रुटी पकड़ नहीं पा रहा हूँ मार्गदर्शन निवेदित है.
लाल हुए मिसरे में निम्नानुसार संशोधन निवेदित है-
हरेक दोष का बस दण्ड हल नहीं भाई
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