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शुभप्रभात। हमें प्रदत्त शीर्षक/विषयांतर्गत सार्थक लघुकथा प्रविष्टियों हेतु प्रतीक्षारत और प्रयासरत।
मेड़ चलती है
सेमर का यह पेड़ मेड़ के इस पार था।'
' कैसे पता ?'
' उसे मैंने ही बोया था।यह मेरा ही खेत है।'
'फिर यह उधर कैसे चला गया?'
' समय लगा है इसमें। मेड़ उधर से धीरे धीरे खिसकी है। पहले वह पेड़ से मिली,फिर उसे पार कर गई।'
' अरे वाह!मेड़ भी चलने लगी?' दूसरा मित्र हँसी नहीं रोक सका।
'हां भाई,क्योंकि पेड़ तो महज ऊपर की ओर चलता है।मेड़ ही तो धरती पर चलती है न?' खेतपति मित्र ने सफाई पेश की।
'और उधर के खेतवाले भैया के बारे में क्या खयाल है?' मित्र ने ठिठोली की।
'मेल जोल के कायल हैं।अपने ही खेतों में आठ -दस मेड़ कायम कर चुके हैं। कहते हैं ,मेरे रहते बंटवारा नहीं होगा। सब भाई साथ साथ रहेंगे।'
'पहुंचे हुए हैं।'
'हां भई।'खेतपति मित्र ने हामी भरी।
'सेमर के फूल उनके ध्येय हैं।'दूसरे मित्र ने ठप्पा जड़ा।
"मौलिक व अप्रकाशित"
हार्दिक स्वागत आदरणीय। विषयांतर्गत बढ़िया व उम्दा रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह साहिब। शीर्षक? (पहली पंक्ति, या?)
शीर्षक है आदरणीय।
लघुकथा को मान देने के लिए आपका दिली आभार आ.उस्मानी जी।
वाहः बहुत ही अच्छी लघुकथा भाई मनन जी। शिक्षाप्रद कथानक।
आपका आभार आ.संदीप जी।
बहुत सुन्दर रचना संदेशात्मक। बहुत-बहुत बधाई,आदरणीय मनन सरजी।
आपका आभार आ.बबिता जी।
आ. भाई मनन जी, बहुत खूबसूरत अंदाज में कपटी मनों टर चोट की है । बहुत बहुत बधाई।
आ.लक्ष्मण भाई जी,आपका आभार।
यथार्थ (लघुकथा) :
नई सदी में नवीन वाइरस संक्रमण से फैली महामारी काल में नई महामारी से जूझकर ज़िंदा बचे लोगों से कुछ सवाल पूछे गये एक प्रश्नोत्तरी में। उस प्रश्नोत्तरी पर चर्चा करते हुए एक बुद्धिजीवी ने अपने साथी से कहा, "अधोलिखित सवाल में रिक्त स्थान की पूर्ति करनी थी सही विकल्प चुनकर।
जिसका कोई नहीं, उसका तो ----------- है यारो, मैं नहीं कहता, हालातों ने सिखाया है यारो!
उत्तर के विकल्प थे :
(क)- पैसा/नेता/क्रेता/उद्योगपति/जुगाड़
(ख)- ईश्वर (भगवान)/ख़ुदा/धर्मग्रंथ/ नीति-शास्त्र/आदर्श
(ग)- विवेक/हौसला/इच्छाशक्ति/मनोबल/इम्युनिटी
चालीस फ़ीसदी लोगों का उत्तर (क) था, पचास प्रतिशत का (ग) और दस प्रतिशत का उत्तर था विकल्प (ख)।" यह बताते हुए उस बुद्धिजीवी ने साथी से पूछा, "विकल्प (ख) कम चुने जाने के पीछे कारण क्या हो सकता है?"
जवाब मिला, "उनमें से असली ग़रीब कोई न रहा होगा!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
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