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//‘‘ इस जमाने में दस से पन्द्रह लाख तो साधारण लोग भी खर्च कर देते हैं फिर हमारा स्तर तो,,, आप जानते ही हैं‘‘//-------लडके वालों का यह सोच का स्तर जाने कितने मासूम रिश्तों को कोढ़ लगा जाता है। सतर्क रहने के कारण ही पाण्डेय जी तो बच गए लेकिन कोई दूसरा जरूर चंगुल में फंस ही जायेगा। इस प्रवृत्ति के लोग लोलुप गिद्द के सामान समाज में व्याप्त है और शीर्ष पदों पर आसीन हो ये समस्त खेल रचाते है। जहां भी निरीह लड़की वाले इनके हत्थे चढ़े की खेल शुरू।
ये सबसे बड़ी वजह है समाज में लड़कियों को सामान दर्ज़ा देने के राह में।
चिंतन को उद्वेलित करती बेहतरीन लघुकथा आपने पेश की है आदरणीय त्रेलोक्य रंजन जी। अभिभूत हुई ये सार्थक रचना पढ़कर। सादर।
आदरणीय कान्ता जी ! कथा की सराहना और उसमें निहित यथार्थ की परखपूर्ण टिप्पणी करने के लिए विनम्र आभार।
आदरणीय शेख साहिब ! आपकी सराहना और सारगर्भित टिप्पणी के लिए विनम्र आभार।
सुन्दर लघुकथा रची है आ० डॉ टी आर सुकुल जी I बेटी वालों को ऐसे ही निर्भीकता से बात करनी चाहिए I आप ये लड़के लड़की वालों की बात को केवल फोन पर ही होने दें, पाण्डेय जी को त्रिपाठी जी के घर बुलाने से सीक्वेंस अटपटा सा हो रहा है I बहरहाल, इस प्रस्तुति पर मेरी बधाई स्वीकार करें I
आदरणीय महोदय ! कथा को यथेष्ठ समय देकर सार्थक टिप्पणी करने के लिए विनम्र आभार। आपका सुझाव शिरोधार्य। कल जब इसे लिखा गया था तो वार्ता टेलीफोन से ही दर्शायी गयी थी परन्तु पोस्ट करने के समय अचानक विचार आया कि आजकल लोग लेनदेन की बातें, भविष्य में कोई झंझट न बन जाए इस डर से फोन पर नहीं करते। इस प्रकार फिर घर पर बुलाये जाने का परिवर्तन किया गया। ससम्मान।
आदरणीय Rahilaji ! आपकी सराहना और सारगर्भित टिप्पणी के लिए विनम्र आभार।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ टी आर सुकुल जी!बहुत सशक्त लघुकथा!बच्चों को कितनी ही उच्च शिक्षा दिला दो!दहेज के लोभी उनका मूल्यांकन भेड बकरियों की ही तरह करते हैं!
आदरणीय Singh sab ! आपकी सराहना और सारगर्भित टिप्पणी के लिए विनम्र आभार।
आपकी सराहना के लिए विनम्र आभार,आदरणीय ।
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