आदरणीय साथियो,
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उस रोज़ तुम पर हाथ उठाते-उठाते, मैं रुक गया। अचानक ज़हन में उठा सुधा का ख़याल, मुझे खींच ले गया मेरे अतीत की ओर। यही उम्र रही थी मेरी भी और यूँ ही, मैं भी खड़ा था नज़रें झुकाये... तब तुम्हारे नाना के थप्पड़ ने मेरे अबोध मन को बड़ी ठेस दी थी, पर मैं कैसे भूल गया... कि इस उम्र में तो "आकर्षण" स्वभाविक है।
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदाब। इस गोष्ठी का आकर्षण बढ़ाती हुई रचना के साथ इसका आग़ाज़करने हेतु बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरमा रक्षिता सिंह साहिबा। आत्मकथ्यात्मक शैली की इस रचना में उन सभी के लिये कथ्य सम्प्रेषित हुआ है, जो यह भूल/चूक कर डालते हैं या करने से पहले स्वयं को.यूँ सँभाल लेते हैं। आज के दौर में काश यह तथ्य माता-पिता/परिवारजन भी समझ लें, आकर्षण का रसायन समझ सकें, किशोर/युवा मनोविज्ञान समझ सकें, तो समाज की बहुत सी.समस्याएं स्वतः हल हो सकेंगी। शीर्षक देना आप भूल.गई हैं। कृपया कमेंट में या बाद में संशोधन के समय इंगित कर दीजिएगा।
आ. रक्षिता जी, बेहतरीन कथा से मंण की शुरुआत करने के लिए हार्दिक बधाई।
मुहतरमा रक्षिता जी, अच्छी लघुकथा हुई है, मुबारक बाद कुबूल फरमाएं
दोस्त 1 :तुझे तो कोई पुराने हिन्दी गाने सुनने वाली पसन्द होगी क्योकि खुद दिन भर सुनता है वही....
दोस्त 2 :हां या कोई ऐसी जो शांत मिजाज हो भीड़ से दूर रहने वाली इसकी तरह....
दोस्त 3: हां या गजल शायरी लिखने वाली....!!!
.......
.....
अब इन्हे क्या पता कि वो अंग्रेजी गाने सुनती है....भीड़ मे मगन हो जाती है....और गजल सुनाने पर मासूमियत से पूंछती है "इसका मतलब?"
ये दोस्त बेचारे कमजोर थे रसायन विज्ञान मे #आकर्षण का नियम आज तक न समझ पाऐ.....
(मौलिक व अप्रकाशित)
वाह। बहुत ही उम्दा लिखा है आपने। हार्दिक बधाई आदरणीय समर्थ देव जी।शायद इस मासिक गोष्ठी में हम पहली बार आपकी रचना पढ़ रहे हैं। हार्दिक स्वागत आपका। आकर्षण का रसायन विज्ञान वास्तव में समझा या समझाया जाना चाहिए। ज़िंदगी में एक पड़ाव ऐसा भी आता है, जब दोस्त आपस में ऐसा वार्तालाप करते हैं, ऐसे दौर से गुजरते हुए। रचना की अंतिम पंक्तियाँ कौन कह रहा है, यह मुझे स्पष्ट नहीं हो.सका। दोस्त 3 ही कह रहा है या लेखकीय पंक्तियाँ/अंदाज़ा है? इसे.लेखकीय दख़ल कहा जा सकता है। ये पंक्तियाँ भी किसी दोस्त के संवाद के माध्यम से कहलवायी जा सकती हैं मेरे विचार से। शीर्षक देना आप भूल गये हैं। कृपया कमेंट में या गोष्ठी सम्पन्न हो चुकने के बाद संशोधन में इंगित कर दीजिएगा।
आ. भाई समर्थ जी, अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
आ. भाई शेखशहजाद जी की बात का संज्ञान लें।
जनाब समरथ जी, अच्छी लघुकथा हुई है, मुबारक बाद कुबूल फरमाएं
तक़ाज़ा (लघुकथा) :
दफ़्तर में काफ़ी काम निबटाने के बाद लिपिक बड़े बाबू दूसरे कक्ष में पहुंचे थे, तो कुछ दूर से ही अपने दो साथी युवा कर्मचारियों को स्मार्ट फ़ोनों की स्क्रीन पर उत्तेजक तस्वीरों से आँखें सेंकते देखकर उल्टे पाँव लौट गये थे। कार्य संबंधित जिज्ञासावश वे दोनों बड़े बाबू के कक्ष में जब पहुंचे, तो कुछ दूर से ही बड़े बाबू को एक ख़ूबसूरत नवयुवती के साथ चाय की चुश्की लेते हुए गपशप करने के साथ ही आँखें भी सेंकते देखकर उल्टे पाँव लौट गये।
जब वह युवती अपना आवश्यक लिपिकीय कार्य निबटा कर चली गई, तो पुनः वे दोनों उनके कक्ष में पहुंच कर उन्हें छेड़ने लगे।
"आज तो आप बड़े लकी रहे! सारी थकान दूर हो गई होगी उस युवती की ख़ूबसूरती देख-देख कर!" पहले युवा कर्मचारी ने कहा।
"क्यों छेड़ते हो यार, बड़े बाबू को मज़े ले लेने दो; 'रिटायर' होने ही वाले हैं!" दूसरे कर्मचारी ने भी चुटकी ली और फ़िर बड़े बाबू से बोला, "वैसे क्या-क्या देख रहे थे आप उसमें, हमें भी तो बताइये न?"
"सौंदर्य... नारी सौंदर्य!" बड़े बाबू ने आँखें फाड़कर अपनी बत्तीसी निपोरकर चुटकी लेते हुए कहा, "हे हे हे...'पूर्ण नग्न' नारी तो बेहद वीभत्स लगती है! साक्षात सामने हो, या स्मार्ट फ़ोन पर!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
आ. भाई शेख शहजाद जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन लघुकथा हुई है। आर्दिक बधाई ।
आदाब। रचना पटल पर समय.देकर हौसला अफ़ज़ाई हेतु शुक्रिया जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' साहिब।
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