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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-81 (विषय: विश्वास)

आदरणीय साथियो,

सादर नमन।
.
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-81 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है,
:  
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-81 
"विषय: 'विश्वास'  
अवधि : 30-12-2021  से 31-12-2021 
.
अति आवश्यक सूचना:-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, १०-१५ शब्द की टिप्पणी को ३-४ पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है। गत कई आयोजनों में देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। 
.    
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.
.
मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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"विश्वास"

ओ.बी.ओ. पर लघु कथागोष्ठी का विषय आज फिर मुझे मेरे अतीत की ओर ले गया...तब मैं महज़ चार साल की थी, उस रोज़ पापा के साथ, मैं ज़िद करके बाजार आयी थी। जब पापा दुकान में सामान खरीदने जाते तब स्कूटर की वेवीशीट पर बैठी मैं दुकानों में टंगे खिलौने ताकती। पापा सामान लेकर दुकान से बाहर आए और स्कूटर में चाबी लगाई। मैं झट से नीचे उतर गयी और सामने दुकान पर टंगी लाल फ्राक बाली गुड़िया की तरफ इशारा करते हुए बोली " पापा...उसे भी ले चलो ना।" नहीं बेटा... तुम पर पहले से ही बहुत हैं कहते हुए पापा ने मुझे गोद में उठाकर शीट पर बिठा दिया। इससे पहले की वो स्कूटर स्टार्ट करते मैं फिर नीचे उतर गयी, ऐसा दो-तीन बार हुआ। जब पापा की आखरी वार्निंग पर भी मैं नहीं मानी तो उन्होंने कहा "ठीक है! तो तुम यहीं खड़ी रहो मैं जा रहा हूँ" कहकर उन्होंने स्कूटर स्टार्ट किया और चले गए। मैं अब भी वहीं खड़ी थी... कुछ दूर जाकर पापा वापस आये और बोले " तुम्हें डर नहीं लगा ? तुम रोयीं नहीं ? तब मैं मुस्कुराते हुए बोली, " मुझे पता था आप मुझे छोड़कर नहीं जायेंगे "।

(मौलिक व अप्रकाशित)

आदाब। हार्दिक स्वागत। हमारे जीवन से जुड़े सहज बाल-प्रसंग की याद ताज़ा कराती विषयांतर्गत बहुत बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया रक्षिता सिंह जी। कुछ एक टंकण त्रुटियाँ रह गयी हैं। इसे लघुकथा का बेहतर रूप देने हेतु इस पर अभी और काम भी आप करेंगी ही। इसे 'मैं' द्वारा कहने के बजाय पात्रों के कथनोपकथन रूप में भी कहा जा सकता है मेरे विचार से। अन्य सहभागियों की रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी।

आदरणीय उस्मानी जी, सादर प्रणाम ।

मार्गदर्शन करने हेतु ह्रदय से आभार, आपके द्वारा बतायी गयीं बातों को ध्यान में रखकर मैं अगली बार बेहतर लिखने का प्रयास करूँगी। 

रक्षिता सिंह जी, वर्तमान स्वरूप में आपकी यह रचना मात्र एक संस्मरण बनकर रह गई है। इसे लघुकथा में ढालने का प्रयत्न करें। टंकण त्रुटियाँ भी बहुत हैं, इन्हें भी दूर करें। इस सद्प्रयास हेतु हार्दिक अभिनंदन स्वीकार करें।

आदरणीय प्रभाकर जी सादर प्रणाम ।

लघुकथा, संस्मरण के रूप में नहीं लिखी जाती इस बात का मुझे ज्ञान ना था।  रचना  पर प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन हेतु ह्रदय  से आभार।

अपनी लघुकथा का परिमार्जित रूप देखें,

.

चार वर्षीय गुड्डी ज़िद करके अपने पापा के साथ बाज़ार आई थी। जब पापा दुकान में सामान ख़रीदने गए तो वह स्कूटर की बेबीसीट पर बैठी दुकानों में टँगे खिलौने ताकने लगी। पापा सामान लेकर दुकान से बाहर आए और स्कूटर में चाबी लगाई। गुड्डी झट से नीचे उतर गई और सामने दुकान पर टँगी लाल फ़्रॉक वाली गुड़िया की तरफ़ इशारा करते हुए बोली “पापा...उसे भी ले चलो न।”
“नहीं बेटा... तुम पर पहले से ही बहुत हैं।” कहते हुए पापा ने उसे गोद में उठाकर सीट पर बिठा दिया। इससे पहले की वे स्कूटर स्टार्ट करते गुड्डी फिर नीचे उतर गई। ऐसा दो-तीन बार हुआ। जब पापा की आख़िरी वार्निंग पर भी वह नहीं मानी तो वे बोले,
“ठीक है! तो तुम यहीं खड़ी रहो, मैं जा रहा हूँ।” कहकर उन्होंने स्कूटर स्टार्ट किया और वहाँ से चले गए।
गुड्डी वहीं खड़ी रही...
कुछ दूर जाकर पापा वापस आए और पूछा,
“तुम्हें डर नहीं लगा? तुम रोईं नहीं?”
मुस्कुराते हुए गुड्डी ने उत्तर दिया,
“नहीं...  क्योंकि मुझे पता था आप मुझे छोड़कर नहीं जाएँगे।"

सधा अंदाज,सुगठित बुनावट।

हार्दिक आभार आ० मनन कुमार सिंह जी.

सादर नमस्कार। गोष्ठी में प्रशिक्षण देता बहुत बढ़िया लघुकथा परिमार्जन। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सर श्री योगराज जी।

हार्दिक आभार उस्मानी भाई जी.

बहुत खूब, बेहतरीन परिमार्जन आदरणीय..

हार्दिक आभार आ० लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी..

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