आदरणीय साथियो,
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" बहुत देर कर दी आते- आते" नमन आदरणीय भाई योगराज प्रभाकर जी ! न जाने कब से लघुकथा के मंच पर मुझे आपके आगमन की प्रतीक्षा थी । साल बीतते ही सही आप इस मंच पर प्रकट तो हुए। आपके बिना सच कहूँ तो अधूरा था । आशा करता हूँ आगामी आयोजनों में सदस्यों को इसी तरह आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा । नव वर्ष की वेला में अशेष शुभकामनाओं के साथ ,,,,,सादर
आ० प्रो. चेतन प्रकाश जी, कई बार हालात कुछ ऐसे हो जाते हैं की इनसान चाह कर भी कोई काम नहीं कर पार। ओबीओ की गोष्ठियों से ग़ैर-हाज़िरी भी इन्हीं हालत के तहत होती रही। बहरहाल, अब गोष्ठी में उपस्थित रहने का पूरा प्रयास रहेगा। आगे जो हरि इच्छा।
आदरणीय प्रभाकर जी सादर प्रणाम ।
वास्तव में, अब ये एक लघुकथा हुई । मेरी रचना पर आपका बहुमूल्य समय देकर सुंदर परिमार्जन करने हेतु ह्रदय से आभार आदरणीय ।
आपकी कथा का कथ्य प्रभावशाली है और विषय के साथ पूर्ण न्याय भी कर रहा है आदरणीया रक्षित जी।हार्दिक बधाई। आदरणीय योगराज जी ने उसे लघुकथा शैली में ढाल कर प्रभाव दोगुना कर दिया है।
लघुकथा गोष्ठी- 81
1 इंडवा
"यह क्या है मम्मी जी?स्टोर रूम से मिला है।कितना सुंदर रिंग है!" यह।त्रिशा ने चहकते हुए कहा।
"तुझे नहीं मालूम… !कभी देखा नहीं क्या?"त्रिशा की ददिया सास चश्मे से झाकते हुए बोली।
"नहीं…!वॉल हैंगिंग है क्या… ?बताओ न दादी।"
"आज की लड़कियों को अपनी जड़ों से कोई मतलब नहीं… बताओ एक मामूली सा इंडवा भी नहीं देखा …!!"
"इंडवा…!यह कैसा नाम हुआ…?इसका मतलब क्या होता है दादी...।"
"ईब थारे को मतलब भी बताऊँ…! जाकर स्टोर साफ कर ले...बीच में काम छोड़ कर बैठ गई...।"दादी ने झिड़कते हुए कहा।
दादी की बात सुनकर त्रिशा का चेहरा लटक गया।
"यह इंडवा है त्रिशा…।यह सिर पर रखा जाता है.. .वजन को बैलेंस करने के लिए...।"
अब तक चुप बैठी त्रिशा की सास बोल पड़ी..।
"वह कैसे मम्मी जी!"
अब त्रिशा सासूमां की ओर देखने लगी...।
"लो !अब कैसे, यह भी बताओ…ले आई जींस वाली बहू तो भुगत खुद..।"दादी चिढ़ते हुए बोली।
"लाओ बताती हूँ...।"सास ने त्रिशा के हाथ से इंडवा लेकर उसके सिर पर रख दिया।
"देखो इसे ऐसे रखते हैं। और इसके ऊपर वजन...।यह बहुत महत्वपूर्ण होता है वजन और सिर के रिश्ते को बचाने के लिए।"
सासूमाँ ने त्रिशा के सिर पर एक पास पड़े मटके को रखकर कहा।
"मम्मी… सिर और वजन का रिश्ता..!"मैं समझी नहीं…!"
"तुम्हें सिर पर मटका चुभता महसूस हो रहा है…?"
"नहीं मम्मी जी।"
"बस यही है इंडवे का काम… चुभन को कम कर जीवन को सरल करना…।"
"हुऊं...ज्यादा अंग्रेजी न पढ़ा...सीधी सी बात को इतना बढ़ा कर बता रही है… जैसी सास वैसी बहू…।"दादी ने मुँह बिचका कर कहा।
" माँजी… आपको याद है यह इंडवा आपने ही मुझे दिया था… ताकि मुझे पानी का मटका उठाने में दिक्कत न हो !"
"हाँ री...तब पानी भी तो भर कर लाना पड़ता था...दो मटके सिर पर रखकर… मेरी सास ने भी दिया था मुझे एक ऐसा ही।"दादी ने कहा।
"पर अब तो इन बहूओं के लिए आराम हो गया… ऐश हो गई इनकी..।"दादी ने मखौल बनाते हुए कहा।
"तभी तो मैंने भी अपनी बहू को एक इंडवा दिया है ताकि वह अपनी जिंदगी में बैलेंस बना सके….लेकिन रिश्तों के वजन का।
"हैंय… कौन सा अनोखा इंडवा दिया तूने!..दिखा तो जरा…!"दादी ने उत्सुकता से कहा।
"मैं खुद हूँ न…!त्रिशा का इंडवा।उसके सिर पर रखे गए हर वजन को कम करने के लिए।"
"मम्मी...।" खुशी से सास के गले लग गई त्रिशा।
दादी के चेहरे पर भी एक मुस्कान खिल गई...पर यह मुस्कान दादी ने सबसे छिपा ली।
दिव्या शर्मा।
मौलिक व अप्रकाशित
अच्छी लघुकथा हुई है दिव्या शर्मा जी। पंक्चुएशन में सुधार की आवश्यकता है। क्योंकि रचना बिखरी-बिखरी-सी लग रही है।
सर प्रणाम,
आपके सुझाव के अनुसार सुधार का प्रयास करूंगी।
आभार सर।
देखकर बताएँ अब आपकी रचना का चेहरा-मोहरा कुछ बेहतर हुआ या नहीं?
आदाब। बढ़िया उम्दा सकारात्मक रचना । हार्दिक बधाई आदरणीया दिव्या राकेश शर्मा जी। इंडवा के बारे में जानकारी मिली। मुझे लगता है कि इसे आप कुछ कम शब्दों में भी कह सकेंगी। जैसा कि आदरणीय सर जी ने परिमार्जित रूप में प्रस्तुत किया है हमें मार्गदर्शन प्रदान करते हुए।
आ. दिव्या जी, अच्छी लघुकथा हुई है । बहुत बहुत बधाई ।
इंडवा का प्रतीक लेकर विषय को सफलता से परिभाषित किया है आपने।हार्दिक बधाई। थोड़ी कसावट से कथ्य और उभर आयगा
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