आदरणीय साथियो,
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सादर नमस्कार। चिरपरिचित मुद्दे और प्रसंग पर एक और विचारोत्तेजक रचना। हार्दिक बधाई आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी।
धागे
विश्वास और आस्था की जड़ें बहुत गहरी होती हैं, इतनी गहरी कि अक्सर तर्क को भी दरकिनार कर देती हैं। लगभग यही संदेश आपकी लघुकथा से भी निकलकर आ रहा है। अंतिम पंक्ति बिलकुल इसी ओर इशारा कर रही है। इस सधी और कसी हुई प्रस्तुति हेतु मेरी आत्मिक बधाई स्वीकार करें आ० प्रतिभा पांडेय जी।
ओह अंतिम पंक्ति पेस्ट होने से छूट गई । कृपया अंतिम पंक्ति इस प्रकार पढें या हो सके तो रचना में जोड़ दें आदरणीय योगराज जी।। " बुढ़िया काँपते हाथों से अपने पोते के साथ खड़ी बरगद पर मन्नत का धागा बाँध रही थी।
वह पंक्ति जोड़ दी है आ० प्रतिभा पांडेय जी।
आदरणीय योगराज जी
सादर अभिवादन। लंबे अर्से के बाद आयोजन में आपकी उपस्थिति व मार्गदर्शन मंच के लघुकथाकारों में फिर से उत्साह का संचार करेगा। प्रस्तुतिकरण पर हुई त्रुटी के सुधार व उत्साहवर्धन के लिये हार्दिक आभार आदरणीय
आ. प्रतिभा वहन, अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
आदाब। विश्वास को परिभाषित करती उम्दा और समसामयिक बढ़िया सृजन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा जोशी पाण्डेय जी। कम शब्दों में गहरी बात।
बहुत उत्कृष्ठ लघुकथा प्रतिभा जी. कहने को आप ने कुछ छोडा ही नही.
बहुत बहुत बधाइ
वरिष्ठ नागरिक - लघुकथा -
प्रिय मित्र दीना नाथ,
नमस्कार,
तीन दिन पहले एक सज्जन ने एक पत्रिका में एक लेख लिखा था कि जीने का असली मजा तो साठ के बाद ही है।
तीन दिन हो गये इस बात पर रिसर्च करते हुए लेकिन मुझे तो कहीं भी कोई मजे का अनुभव प्राप्त नहीं हुआ ।
हाँ रह रह कर उन महानुभाव को कुछ गालियाँ देने का मन अवश्य करता है।
और लोगों की तो पता नहीं लेकिन मैं अपने अनुभवों के बारे में बताता हूँ। ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जिस दिन एक दो बार जलील नहीं होना पड़ता हो। घर में केवल तीन प्राणी हैं। बेटा, बहू और मैं। बेटे को अपने काम धंधे से घर के किसी मामले को देखने या हस्तक्षेप की फ़ुर्सत ही नहीं होती। महीने में दस बारह दिन तो वह दौरे पर ही रहता है।घर की हर व्यवस्था पर उसकी पत्नी का एकाधिकार है। मेरी पत्नी के स्वर्गवास के बाद मेरी पत्नी जिन कार्यों में बहू का हाथ बटाती थी, वे सारे कार्य बहू ने बड़ी सफाई और चतुराई से मेरे माथे डाल दिये।
घर के कामों के लिये दो दो बाइयाँ लगा रखी हैं इसके बावजूद आधे काम मुझसे कराती है। साथ में यह ज्ञान भी देती है कि बाबूजी हाथ पैर चलाते रहना जरूरी है वरना जंग लग जाती है।
सुबह मुझे जल्दी उठने की आदत है। पत्नी ने बिस्तर पर ही चाय पिला पिला कर आदत बिगाड़ दी। उसके देहान्त के बाद अब खुद ही चाय बनाओ और पीओ।
सुबह घूमने जाओ तो सूखे और गीले कचरे की थैलियां लेकर जाना और सड़क पर लगे कचरे के डिब्बों में डालना। लौटते समय
बाज़ार से सामान लाना भी मेरा ही काम है। बहू सामान में मीन मेख अवश्य निकालती है।ये ख़राब है।ये गला है। क़ीमत अधिक दे दी है।
मटर छीलना, मैथी के पत्ते तोड़ना, और सब्जियाँ भी काटना आदि भी मेरे ही काम हैं।
और तो और अपने कमरे में साफ सफाई भी खुद करो। बहू से बोला तो जवाब मिला,"बाबूजी, सफाई वाली लड़की आपके कमरे में आने से डरती है। सो उससे सफाई करानी है तो आप उस समय छत पर चले जाया करो या खुद ही कर लिया करो।” सबसे ज्यादा मुसीबत का काम होता है जब बहू कपड़े धोने की मशीन लगाती है। बड़ी लोहे की बाल्टी में धुले कपड़े रख देती है," बाबूजी छत पर जाओ तो ये अपने कपड़े तार पर फैला देना।"
असल में उस बाल्टी में मुश्किल से मेरे तो दो कपड़े ही होते हैं।मैंने एक बार कहा भी था,"बहू बाल्टी भारी हैं। उसे लेकर मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने में दिक्कत होती है।”
जवाब मिला," "थोड़े थोड़े कपड़े हाथ में ले जाकर डाल दिया करो।"
मैंने समझाने का प्रयास किया," बहू कितनी बार छत पर चढ़ना उतरना पड़ेगा। थक जाऊंगा।”
"अच्छा है ना। अच्छी खुल कर भूख लगेगी।"
लेकिन मजे की बात ये है कि रोटी कभी दो से ज्यादा नहीं मिलती हैं। बहाना ये कि डाक्टर ने दो से ज्यादा रोटी देने को मना किया है।
अब आप सुनो इस मुद्दे का आश्चर्यजनक पहलू। यह बहू मेरे ही मित्र राघव की बेटी है। मैं और मेरी पत्नी देखने गये थे। हम दोनों को बहुत आदर सम्मान से साष्टांग प्रणाम किया था। सोफ़े के कोने में सिकुड़ी सिमटी बैठी थी। एक शब्द भी नहीं बोली थी।मेरी पत्नी बोली,"कितनी संस्कारी लड़की है?" और आज देखो,"संस्कार की परिभाषा ही बदल कर रख दी।"
आज कुछ अच्छे मूड में शाम की चाय पीते समय बहू ने बोला, बाबूजी, आपकी वजह से मेरी जिंदगी नर्क होने से बच गई।”
मेरे मन में तो आया कि कह दूँ कि तुम्हारी वजह से मेरी जिन्दगी तो नर्क बन गई।”
तुम्हारा बचपन का सखा,
राम बाबू
मौलिक एवं अप्रकाशित
पत्र-शैली में अच्छी लघुकथा कही है। लेकिन यह लघुकथा प्रदत्त विषय 'विश्वास' को कैसे परिभाषित करती है आ० तेजवीर सिंह जी? कुछ रौशनी डालें तो आगे बात करूँ।
हार्दिक आभार आदरणीय योगराज भाई जी, आपकी राय से मैं बिल्कुल सहमत हूँ। लघुकथा पोस्ट करने से पहले मैं भी इसी दुविधा में था। एक दो मित्रों से सलाह ली। विचार विमर्श हुआ। एक मित्र ने सुझाव दिया कि जिस विश्वास और आशा के साथ राम बाबू अपने मित्र की कन्या को बहू बना कर लाते हैं, उसमें कहीं ना कहीं उन्हें निराशा तो होती ही है। वैसे मुझे उनकी दलील से संतुष्टि नहीं मिली। लेकिन मैंने लघुकथा को यही सोच कर पोस्ट कर दिया कि आपसे अवश्य ही इस संदर्भ में उचित मार्ग दर्शन मिलेगा। आप चाहे तो इसे गोष्ठी से हटा सकते हैं।सादर।
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