आदरणीय साथियो,
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मेरी रचना पर आपकी राय/प्रतिक्रिया का इंतज़ार है।
आदरणीय मनन कुमार सिंह जी बहुत ख़ूब बादलने बढ़िया व विचारणीय प्रश्न किए। बधाई।
आभार आ.रचना जी।
समझौता या समर्पण
"आखिर कब तक उसके आगे झुकती रहोगी? तुम्हारी लाई कोई भी चीज उसे पसंद नहीं आती?उसके एक इशारे पर उस चीज को बदलवा आती हो ?क्या तुम्हारा दिल नहीं करता अपनी मर्जी चलाने का? इतना समझौता क्यों, किसलिए ?उसे छोड़ना तुम्हारे लिए इतना मुश्किल क्यों है?आफिस से लौटते हुए सुनयना ने भावना को लगभग डाँटते हुए कहा।
बहुत देर से चुपचाप सुनती भावना आखिर बोल पड़ी "नहीं, उसे छोड़ना मेरे लिए मुश्किल नहीं है मुश्किल तो है लोगों की तरस खाती निगाहें देखना, बच्चों को बिन बाप की औलाद कहकर बेचारा समझना। और..जिसे तुम समझौता या झुकना समझ रही हो न..वह मेरी ममता के प्रति समर्पण है।"
मौलिक व अप्रकाशित
वाह। ममता का समर्पण! ममता के प्रति समर्पण (समझौता नहीं)। प्रदत्त विषयांतर्गत बढ़िया मार्मिक लघुकथा। हार्दिक बधाई मुहतरमा रचना भाटिया साहिबा। शीर्षक सामान्य न रखकर कोई नया सोचा जा सकता है। यह समस्या बिन बाप की संतान के साथ ही नहीं तलाक़ की कगार वाले रिश्तों और तलाक पा चुकी माँ और पीड़ित संतान के साथ भी है। माँ बाप.के बीच पिसती संतान के.साथ भी है। ममता का समर्पण कहें या समझौता भी कहें। संतान की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी। यही समर्पण की मंज़िल है। शीर्षक में कोई बिम्ब या प्रतीक लीजिएगा।
लेखनी व गोष्ठी के प्रति समयनिष्ठ होकर इस तरह यह गोष्ठी भी सफल रही। सभी सहभागियों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं। शुभ रात्रि।
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