आदरणीय साथियो,
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हार्दिक आभार आदरणीय मनन कुमार जी।
दरअसल रचना विषयांतर्गत संतान पर केंद्रित विसंगतियों पर आधारित है। मैं उपरोक्त टिप्पणियों से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। रचना की अंतिम व पंचपंक्ति प्रामाणिकता की विडंबनाओं पर.चिंतन करा रही है; नकारात्मकता को नहीं बढ़ा रही है। क़ानून को अंधा कहने का कारण भी.यही है कि प्रमाणों के अभाव में क़ानून भी मज़बूर होता पाया/देखा गया है। आशय यह कि यदि पात्र नाम बदल भी दिये जायें, तो भी रचना अपना लक्ष्य साध सकेगी।
जैसा कि स्पष्ट है कि जनाब तेजवीर सिंह जी की रचना केवल संवादात्मक शैली की कथनोपकथन वाली अनावश्यक विवरण रहित बेहतरीन लघुकथा है आदरणीय चेतन प्रकाश जी। अतिशयोक्ति लग सकती है। लेकिन अपने देश में ही नहीं अन्यत्र भी ऐसे मिलते जुलते प्रकरण रहे हैं। लेकिन इस लघुकथा का मुख्य मक़सद केवल प्रदत्त विषयांतर्गत है, जिसे समझा जाना चाहिए।
सादर अभिवादन आदरणीय तेजवीर जी
लघुकथा का शीर्षक अपने आप मे सब कुछ कह रहा है। कबीर जिन्होने राम अली दोनो के बंदों को पाखण्ड के लिये बराबर फटकारा है अपने दोहो में।आपकी अधिकतर लघुकथाएँ संवादात्मक ही पढ़ी हैं।ये अवश्य है कि फाँसी को लेकर कुछ तथ्यात्मक बातों का ध्यान आवश्यक था। बहरहाल एक व्यथित मजबूर पिता का कष्ट उकेरती इस लघुकथा के लिये हार्दिक बधाई
आदाब। हार्दिक स्वागत आदरणीया जी। मार्गदर्शन हेतु शुक्रिया।
आदरणीया, " ये अवश्य है कि फाँसी को लेकर कुछ तथ्यात्मक बातों का ध्यान आवश्यक था " कितने लोगों को स्वतंत्र भारत के इतिहास में दंगों में शामिल होने के कारण फाँसी हुई है कि आप कबीर की मनगढ़ंत फाँसी को तथ्य / सत्य मान रही हैं , कृपया बताइगा, जरूर ! सादर
जी आपकी बात से सहमत हूँ कि हमारे देश मे न्याय व्यवस्था बहुत धीमी है और खासकर फाँसी के मामलों में। धर्म विशेष को न्याय नहीं मिल पाता ये कहना भी अतिश्योक्ति है। पर रचना का शिल्प और शीर्षक सराहनीय है।
हार्दिक आभार आदरणीय प्रतिभा जी।
शिल्प की दृष्टि से संवाद-शैली में लिखी हुई यह लघुकथा बहुत कसी और सधी हुई है आ० तेजवीर सिंह जी. लेकिन कथ्य की दृष्टि से काफी ढीली है. मैंने अनेक मंचो से यह निवेदन किया है कि लघुकथा में 'लाउड' होना 'अलाउड' नहीं है. आपकी लघुकथा कई जगह 'लाउड' हुई है. फांसी देने वाली बात भी 'लाउड' हो गई है. भारत में जब भी कहीं फांसी दी जाती है तो वह एक राष्ट्रीय स्तर की खबर बन जाती है, ऐसे में राजू को ये बात पता न हो, यह कैसे संभव है? सुधि साथियों ने फांसी से संबंधित तथ्यात्मक बिंदुयों को नज़रंदाज़ करने की जो बात की है, मैं उसे सहमत हूँ. फिर यह निम्नलिखित पंक्ति:
//“मुझे उसका नाम कबीर नहीं रखना चाहिये था।वह हिन्दू है।”//
यह सरासर नकारात्मक सन्देश दे रही है कि किसी को सिर्फ मुस्लिम होने के कारण फांसी दी जा रही है.
आप इस रचना पर दोबारा काम करें, अच्छी रचना उभर कर आएगी. बहरहाल इस सद्प्रयास हेतु मेरी बधाई स्वीकार करें.
हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी।आपके सही मार्ग प्रदर्शन का सदैव आभारी रहूँगा।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी मानवता से ओतप्रोत वहीं सटीक तंज़ कसती हुई बहुत अच्छी लघुकथा ।
हार्दिक बधाई।
हार्दिक आभार आदरणीय रचना जी।
मानवता पर विमर्श व चिंतन कराती लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
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