सार छंद एक अत्यंत सरल, गीतात्मक एवं लोकप्रिय मात्रिक छंद है.
हर पद के विषम या प्रथम चरण की कुल मात्रा १६ तथा सम या दूसरे चरण की कुल मात्रा १२ होती है. अर्थात, पदों की १६-१२ पर यति होती है.
पदों के दोनों चरणान्त गुरु-गुरु (ऽऽ, २२) या गुरु-लघु-लघु (ऽ।।, २११) या लघु-लघु-गुरु (।।ऽ, ११२) या लघु-लघु-लघु-लघु (।।।।, ११११) से होते हैं.
किन्तु गेयता के हिसाब से गुरु-गुरु से हुआ चरणान्त अत्युत्तम माना जाता है लेकिन ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं हुआ करती.
अलबत्ता यह अवश्य है, कि पदों के किसी चरणान्त में तगण (ऽऽ।, २२१), रगण (ऽ।ऽ, २१२), जगण (।ऽ।, १२१) का निर्माण न हो. 
 
 उदाहरण - 
 कोयल दीदी ! कोयल दीदी ! मन बसंत बौराया ।
 सुरभित अलसित मधुमय मौसम, रसिक हृदय को भाया ॥
 
 कोयल दीदी ! कोयल दीदी ! वन बसंत ले आयी ।
 कूं कूं उसकी प्यारी बोली, हर जन-मन को भायी ॥     (श्री विंध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी ’विनय’)
 
 
 इसी छंद का एक और प्रारूप है जो कभी लोक-समाज में अत्यंत लोकप्रिय हुआ करता था.
किन्तु अन्यान्य लोकप्रिय छंदों की तरह रचनाकारों के रचनाकर्म और उनके काव्य-व्यवहार का हिस्सा बना न रह सका. सार छंद के इस प्रारूप को ’छन्न पकैया’ के नाम से जानते हैं.
 सार छंद के प्रथम चरण में ’छन्न-पकैया छन्न-पकैया’ लिखा जाता है और आगे छंद के सारे नियम पूर्ववत निभाये जाते हैं. ’छन्न पकैया छन्न पकैया’ एक तरह से टेक हुआ करती है जो उस छंद की कहन के प्रति श्रोता-पाठक का ध्यान आकर्षित करती हुई एक माहौल बनाती है और छंद के विषय हल्के-हल्के में, या कहिये बात की बात में, कई दफ़े गहरी बातें साझा कर जाते हैं. 
 
 यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि सार छंद की इस पुरानी शैली को पुनः लोक-व्यवहार के मध्य प्रचलित करने का श्रेय ओबीओ मंच को जाता है.मंच के प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ने इस लुप्तप्राय विधा को इस मंच के माध्यम से पुनः सफलतापूर्वक प्रतिस्थापित किया है. 
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया, बजे ऐश का बाजा,
 भूखी मरती जाये परजा, मौज उडाये राजा |
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया, सब वोटों की गोटी,
 भूखे नंगे दल्ले भी अब ,खायें दारु बोटी | 
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया, देख रहे हो कक्का,
 बड़े-बड़े जो हैं बाहुबली, टिकट सभी का पक्का |  (श्री गणेश जी बाग़ी) 
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया, हर जुबान ये बातें
 मस्ती मस्ती दिन हैं सारे, नशा नशा सी रातें |
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया, डर के पतझड़ भागे 
 सारी धरती ही मुझको तो, दुल्हन जैसी लागे |
 
 छन्न पकैया छन्न पकैया, बात बनी है तगड़ी 
 बूढे अमलतास के सर पर, पीली पीली पगड़ी |   (श्री योगराज प्रभाकरजी)
 
 *****
--सौरभ
ज्ञातव्य : आलेख का कथ्य उपलब्ध जानकारियों पर आधारित है.
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छन्न पकैया, छन्न पकैया, इतनी सुन्दर बातें| 
मोह लिया है इसने मन को, फिर फिर पढ़ते जाते ||
छन्न पकैया, छन्न पकैया, छनक उठा मेरा मन|
इतने सुंदर छंद बने हैं, जैसे नंदन कानन||
छन्न पकैया छन्न पकैया,  धन्यवाद है भइया 
सार्थक कर्म हुआ है मेरा,   झूमूँ ता-ता थइया
छन्न पकैया छन्न पकैया, रचनाकर्म करें जी 
शब्द-नियोजन को यदि साधें, तुक पर ध्यान धरें जी 
हार्दिक धन्यवाद
छन्न पकैया, छन्न पकैया, सर जी का आभारी |
अंगुलियां गिन गिन थक जाती, मति जाती है मारी ||
छन्न पकैया, छन्न पकैया, रचनाकर्म करूँगा |
जब भी ठोकर लग जायेगी, प्रोत्साहन चाहूँगा ||
आदरणीय सौरभ सर हम सब नौसिखिओं के लिए लाभप्रद जानकारी के लिए हार्दिक आभार
विश्वास है, आदरणीया सरिताजी, आपने प्रस्तुत विधान-आलेख को मनोयोग से पढ़ा होगा. यदि आपको लगे कि कुछ तथ्य और बेहतर ढंग से निरुपित किये जा सकते हैं और आलेख की संप्रेषणीयता बढ़ायी जा सकती तो अवश्य साझा करें. 
हम सभी समवेत सीख ही रहे हैं. 
दूसरे, ज्ञातव्य है, कह-मुकरिया के साथ सार छंद का ’छन्न पकैया’ वाला स्वरूप ही माह मार्च’१३ होली अंक के चित्र से काव्य तक छंदोत्सव के लिए प्रबन्धन द्वारा मान्य हुआ है. इस लिहाज़ से उक्त आयोजन की भूमिका के साथ इस आलेख पर रचनाकारों का विशेष तौर पर ध्यान रहे. 
सादर
बहुत सुन्दर उदाहरणों सहित जानकारी आदरणीय
आदरणीय सौरभ सर एक बात जानना चाहूँगी कि प्रथम चरण में// छन्न पकैया, छन्न पकैया,// या //कोयल दीदी कोयल दीदी // जैसी आवृति आवश्यक है क्या ?
// (सार छंद के) प्रथम चरण में ’छन्न पकैया, छन्न पकैया’ या ’कोयल दीदी कोयल दीदी’ जैसी आवृति आवश्यक है क्या ? //
आदरणीय वन्दनाजी, ऐसा कत्तई नहीं है. 
सार छंद के लिए उदाहरण प्रस्तुत करने के क्रम में भाई विंध्येश्वरीजी की प्रस्तुति सुलभ थी इसलिये उसके कुछ बंद उद्धृत कर लिये. विंध्येश्वरी भाई की इस प्रस्तुति से मुझे भी इस तरह के कन्फ्यूजन की आशंका थी. किन्तु, चूँकि ऐसी किसी आवृति की चर्चा आलेख में नहीं है, अतः ऐसे मंतव्य नहीं निकाले जाने चाहिये.
अलबत्ता, ’छन्न पकैया’ प्रस्तुतियों के साथ यह बाध्यता अवश्य है कि छंद का प्रथम चरण ’छन्न पकैया छन्न पकैया’ हुआ करता है. यह इसका लोक-व्यवहार है और इसी कारण इसका ’छन्न पकैया’ नाम भी पड़ा है. 
सादर
छंद पकैया छन्द पकैया, जाऊ मै बलिहारी
सुन्दर सुन्दर छंद रचे है, हँसने की है बारी |
छंद पकैया छन्द पकैया,हम सब है आभारी,
लुप्त विधा जीवित करते है,ओबीओ पर सारी
छन्न पकैया छन्न पकैया, किन्तु हुआ है गड़बड़ 
छन्द छन्न में गड़बड़झाला, किया करें मत हड़बड़
अनुमोदन के लिए सादर आभार आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी. 
सादर
 
| नयी विधा से परिचय कराने के लिये आपका आभार | 
धन्यवाद भाईजी.
किन्तु, कम-से-कम ओबीओ के मंच पर न सार छंद, न छन्न पकैया नयी विधाएँ रह गयी हैं.
सादर
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