आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ साठवाँ आयोजन है।.
छंद का नाम - लावणी छंद
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
19 अक्टूबर’ 24 दिन शनिवार से
20 अक्टूबर’ 24 दिन रविवार तक
हम आयोजन के अंतर्गत शास्त्रीय छन्दों के शुद्ध रूप तथा इनपर आधारित गीत तथा नवगीत जैसे प्रयोगों को भी मान दे रहे हैं. छन्दों को आधार बनाते हुए प्रदत्त चित्र पर आधारित छन्द-रचना तो करनी ही है, दिये गये चित्र को आधार बनाते हुए छंद आधारित नवगीत या गीत या अन्य गेय (मात्रिक) रचनायें भी प्रस्तुत की जा सकती हैं.
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
लावणी छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ ताटंक छंद के आलेख को क्लिक करें
जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
19 अक्टूबर’ 24 दिन शनिवार से 20 अक्टूबर’ 24 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं।
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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रचनाओं की प्रतीक्षा में ..
***
मौलिक/अप्रकाशित
बहुत ही बढ़िया रचना हुई है लक्ष्मण भाई।
विशेषतः अंतिम छंद बहुत ही भावपूर्ण लगा।
//न मिट्टी का सोने का मन, मानव बना नहीं पाया है।। इसमें मानव बन नहीं पाया है
//सभी छंद ताटंक छंद में निबद्ध हो रहें हैं, देखिएगा।
आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। छंदों पर उपस्थिति स्नेह व त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार।छंदों में संशोधन कर नीचे पोस्ट कर दिया है। सादर
बहुत बेहतर है लक्ष्मण भाई।
किंतु सभी चार पदों का क्रम बदलने की जगह आप दो को बदल कर भी छन्द विधान को निभा सकते हैं क्योंकि नियम दो-दो पदों की तुकांतता का है। और चारों पड़ो में परिवर्तन कहीं कहीं असहज लग रहा है।
सादर
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रदत चित्रानुकूल सुंदर सृजन हेतु बधाई स्वीकार करें।
आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। उत्साहवर्धन के लिए आभार।
एड्मिन महोदय से निवेदन है की प्रस्तुत रचना की जगह यह संशोधित रचना पोस्ट करने की कृपा करें। क्योंकि उसमें छंद गलत हो गया है । सादर।
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चन्दा सूरज अनगिन जुगनू, हैं नभ में लाख सितारे।
पर मानव को भरी निशा में, हैं बोलो कौन सहारे।।
आज आधुनिक तकनीकी ने, हैं चहुँदिश भले निखारे।
किन्तु अमा में अब भी सबको, हैं लगते दीपक न्यारे।।
*
एक अमावस सब पर भारी, है डरता बहुत उजाला।
चमकाये मुख झूठ घूमता, पर सच अब छिपने वाला।।
जोर उसी का इस युग देखो, है जिसको धन की शाला।।
न्याय पक्ष में कौन खड़ा हो, है मन मंदिर में ताला।
*
दीपपर्व की धूम मचाने, है बाहर ढब उजियारा।
गेह गली तो उजले लेकिन, है अन्तस तम की कारा।।
रामराज्य की बात कही नित, पर शासन नहीं सुधारा।
ले तो आये राम अयोध्या, पर मन में नहीं उतारा।।
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ईश्वर ने जैसा रच डाला, उसमें फर्क कहाँ आया है।
तन मिट्टी का सोने का मन, है मानव कब कर पाया।।
जग में चाहे कुम्भकार ने, है दीपक सदा बनाया।
दीपपर्व पर लेकिन किसने, है मन का दीप जलाया ?
*
एक अमावस की चिंता में, फिर जिस ने चाक निकाला।
करता जो अरदास यही नित, हो चारों ओर उजाला।।
जगमग सबके घर हों कहता, हो सब के हाथ निवाला।।
उसको भी कुछ मिले रोशनी, हो कभी न जीवन काला।।
***
मौलिक/अप्रकाशित
ले तो आये राम अयोध्या, मन में नहीं उतारा है ।।...वाह ! वाह ! आशा है इस दीपावली यह कमी पूरी होगी.
जग में चाहे कुम्भकार ने, दीपक सदा बनाया है।
दीपपर्व पर लेकिन किसने, मन का दीप जलाया है?... इसी की जब महती आवश्यकता है. बहुत बधाई.
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी सादर, प्रदत्त चित्र पर सुन्दर छंद रचना की है आपने. बहुत ही वाजिब प्रश्न भी उठाये हैं. हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। छंदो पर उपस्थिति , उत्साहवर्धन व स्नेह के लिए आभार।
कुम्हारों के हाथों में अब, चाक दिखाई देता है।
त्योहारों का मौसम आया, साफ दिखाई देता है।
मेहनतकश की नस-नस में अब, ताव दिखाई देता है।
जुटा हुआ है बच्चा-बच्चा, चाव दिखाई देता है।
कान खोलकर सुन लो लोगो, कौम बड़ी मतवाली ये।
माटी मूरत जिंदा करती, करतब की रखवाली ये।
मटके हांडी करवा दीपक, चिलम बनाने वाली ये।
रग रग में बसती खुद्दारी, करके खाने वाली ये।
जड़ से जुड़कर माटी की ये, जग में जोत जगाते हैं।
खुद का स्वेद मिला माटी में, भांडे सभी बनाते हैं।
दिवाली के अवसर पर सब, मिलकर दीप जलाते हैं।
सबके घर को रोशन करने, दीपों संग बुलाते हैं।
नया ज्ञान मिलता है सबको, आती नई बहारों से।
जगमग जगमग जलते दीपक, जग रोशन उजियारों से।
हाथों की महिमा है दिखती, जलती दीप कतारों से।
करता है 'कल्याण' दुआ ये, चमकें चांद सतारों से।
मौलिक एवम् अप्रकाशित
दिवाली को दीवाली पढ़ा जाए
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