कोशिश ये रही है कि प्रमुख शायरों के स्तरीय शेर ही चुने जाएँ. साथ ही हर दौर की शायरी के अच्छे शेरों का एक प्रतिनिधि चयन करने का भी प्रयास रहा है. बहुत कुछ अच्छा होते हुए भी विस्तार भय से छोड़ देना पड़ा है.
मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
ज़मीन-ए-चमन गुल खिलाती है क्या क्या
बदलता है रंग आसमाँ कैसे कैसे
न गोर-ए-सिकंदर न है क़ब्र-ए-दारा
मिटे नामियों के निशाँ कैसे कैसे - हैदर अली आतिश
हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे - अमीर मीनाई
ग़ज़ल उस ने छेड़ी मुझे साज़ देना
ज़रा उम्र-ए-रफ़्ता को आवाज़ देना - सफ़ी लखनवी
ये क्या चीज़ तामीर करने चले हो
बिना-ए-मुहब्बत को वीरान कर के - अहमद जावेद
ये कहना था उन से मुहब्बत है मुझ को
ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं - ख़ुमार बाराबंकवी
बहारें लुटा दीं जवानी लुटा दी
तुम्हारे लिए ज़िंदगानी लुटा दी - जलील मानिकपूरी
सलामत रहें दिल में घर करने वाले
इस उजड़े मकाँ में बसर करने वाले
गले पर छुरी क्यूँ नहीं फेर देते
असीरों को बे-बाल-ओ-पर करने वाले
अंधेरे उजाले कहीं तो मिलेंगे
वतन से हमें दर-ब-दर करने वाले
गरेबाँ में मुँह डाल कर ख़ुद तो देखें
बुराई पे मेरी नज़र करने वाले - यास यगाना चंगेजी
वही एक तबस्सुम चमन दर चमन है
वही पंखुरी है गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ - फ़िराक़ गोरखपुरी
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं - अल्लामा इक़बाल
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबाँ आते आते - दाग़ देहलवी
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी - बशीर बद्र
ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था
हमीं सो गए दास्ताँ कहते कहते - साक़िब लखनवी
मुतक़ारिब सालिम 10-रुक्नी
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122 122
ज़मीं चल रही है कि सुब्हे-ज़वाले-ज़माँ है
कहो ऐ मकीनो कहाँ हो ये कैसा मकाँ है
कहीं तू मेरे इश्क़ से बदगुमाँ हो न जाए
कई दिन से होठों पे तेरे नहीं है न हाँ है - नासिर काज़मी
मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल
122 122 122 12
गिराना ही है तो मेरी बात सुन
मैं मस्जिद गिराऊँ तू मंदिर गिरा - मोहम्मद अल्वी
अँधेरा है कैसे तेरा ख़त पढ़ूँ
लिफ़ाफ़े में कुछ रौशनी भेज दे - मोहम्मद अल्वी
बहुत दूर तो कुछ नहीं घर मेरा
चले आओ इक दिन टहलते हुए - हफ़ीज़ जौनपुरी
पिया बाज पयाला पिया जाये ना
पिया बाज यक तिल जिया जाये ना - मोहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह
लगी कहने 'इंशा' को शब वो परी
मुझे भूत हो ये निगोड़ा लगा - इंशा अल्लाह ख़ान
न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की - बशीर बद्र .
मुतक़ारिब मुसम्मन अस्लम मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम
फ़ेलुन फ़ऊलुन फ़ेलुन फ़ऊलुन
22 122 22 122
दिल और वो भी टूटा हुआ दिल
अब जिंदगी है जीने के काबिल - तस्कीं
नै मुहरा बाक़ी नै मुहरा बाज़ी
जीता है रूमी हारा है काज़ी - अल्लामा इक़बाल
ऊँचा हुआ सर नेज़ा-ब-नेज़ा
यारों का एहसान लब्बैक लब्बैक - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ सालिम
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलुन
21 121 121 122
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22
काशी देखा,काबा देखा
नाम बड़ा दरसन छोटा है
इश्क़ अगर सपना है, ऐ दिल
हुस्न तो सपने का सपना है
यूँ तो हम खुद भी नहीं अपने
यूँ तो जो भी है अपना है
एक वो मिलना,एक ये मिलना
क्या तू मुझको छोड़ रहा है?
तू भी'फिराक़'अब आँख लगा ले
सुबह का तारा डूब चला है - फ़िराक़ गोरखपुरी
दिल में और तो क्या रक्खा है
तेरा दर्द छुपा रक्खा है - नासिर काज़मी
मैं हूँ रात का एक बजा है
ख़ाली रस्ता बोल रहा है - नासिर काज़मी
मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अल
21 121 121 12
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 2
अच्छे दिन कब आएँगे
क्या यूँ ही मर जाएँगे
अपने-आप को ख़्वाबों से
कब तक हम बहलाएँगे
खिलते हैं तो खिलने दो
फूल अभी मुरझाएँगे - मोहम्मद अल्वी
इस की बात का पाँव न सर
फिर भी चर्चा है घर घर
चील ने अण्डा छोड़ दिया
सूरज आन गिरा छत पर
अच्छा तो शादी कर ली
जा अब बच्चे पैदा कर
बीवी अकेली डरती है
शाम हुई अब चलिए घर - मोहम्मद अल्वी
पूरा दुख और आधा चाँद
हिज्र की शब और ऐसा चाँद
मेरी करवट पर जाग उठ्ठे
नींद का कितना कच्चा चाँद - परवीन शाकिर
तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं
जान बहुत शर्मिंदा हैं - इफ़्तिख़ार आरिफ़
कड़वे ख़्वाब गरीबों के
मीठी नींद अमीरों की
रात गए तेरी यादें
जैसे बारिश तीरों की - नासिर काज़मी
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ - नासिर काज़मी
रात घना जंगल और मैं
एक चना क्या फोड़े भाड़
मजनूँ का अंजाम तो सोच
यार मेरे मत कपड़े फाड़ - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ मुजाइफ़
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अल // फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अल
21 121 121 12 // 21 121 121 12
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा // फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 2 // 22 22 22 2
सावन की रुत आ पहुँची काले बादल छाएँगे
कलियाँ रंग में भीगेंगी फूलों में रस आएँगे
हस्ती की बद-मस्ती क्या हस्ती ख़ुद इक मस्ती है
मौत उसी दिन आएगी होश में जिस दिन आएँगे - साग़र निज़ामी
दिल का उजड़ना सहल सही बसना सहल नहीं ज़ालिम
बस्ती बसना खेल नहीं बसते बसते बसती है - फ़ानी बदायुनी
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ सालिम उल आखिर 10-रुक्नी
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अलुन
21 121 121 121 122
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 22
सब का ख़ुशी से फ़ासला एक क़दम है
हर घर में बस एक ही कमरा कम है - जावेद अख़्तर
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 12-रुक्नी
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अल
21 121 121 121 121 12
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 22 22 2
सूखा बाँझ महीना मौला पानी दे
सावन पीटे सीना मौला पानी दे
फ़सलें आते जाते लश्कर काटेगा
अपने भाग पसीना मौला पानी दे - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
इक इक पत्थर राह का 'ज़ेब' हटाता चल
पीछे आने वालों को आसानी दे - जेब गौरी
धूप बहुत है मौसम जल-थल भेजो ना
बाबा मेरे नाम का बादल भेजो ना - राहत इन्दौरी
सच ये है बे-कार हमें ग़म होता है
जो चाहा था दुनिया में कम होता है - जावेद अख़्तर
इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
आने वाले बरसों बाद भी आते हैं - ज़ेहरा निगाह
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ सालिम उल आखिर 12-रुक्नी
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अलुन
21 121 121 121 121 122
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 22 22
अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है - ज़ेहरा निगाह
उस की आँखों में भी काजल फैल रहा है
मैं भी मुड़ के जाते जाते देख रहा हूँ - जावेद अख़्तर
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 14-रुक्नी
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अल
21 121 121 121 121 121 12
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 22 22 22 2
जागता हूँ मैं एक अकेला दुनिया सोती है
कितनी वहशत हिज्र की लम्बी रात में होती है - शहरयार
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है
हम भी पागल हो जाएँगे ऐसा लगता है - क़ैसर-उल जाफ़री
चाँदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल
इक तू ही धनवान है गोरी बाक़ी सब कंगाल - क़तील शिफ़ाई
उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर मंतर सब
चाक़ू वाक़ू, छुरियां वुरियां, ख़ंजर वंजर सब
जिस दिन से तुम रूठी, मुझ से, रूठे रूठे हैं
चादर वादर, तकिया वकिया, बिस्तर विस्तर सब
तुलसी ने जो लिक्खा अब कुछ बदला बदला हैं
रावण वावण, लंका वंका, बन्दर वंदर सब - राहत इन्दौरी
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ मक़्सू्र 14-रुक्नी
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊल
21 121 121 121 121 121 121
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन // फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ाअ
22 22 22 22 // 22 22 21
(ये बह्र सरसी छंद के करीब है लेकिन इसमें मात्रा गिराने की छूट ली जा सकती है.
मिसरे के आखिर में 21(फ़ाअ)की जगह 2(फ़ा) का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
सरसी में इस तरह की स्वतंत्रता नहीं ली जा सकती)
ऊंची जिसकी लहर नहीं है, वो कैसा दरिया
जिसकी हवाएं तुंद नहीं हैं, वो कैसा तूफ़ान - अल्लामा इक़बाल
बिछड़ा साथी ढूँढ रही है कुंजों की इक डार
भीगे भीगे नैन उठाए देख रही है शाम
छोड़ शिकारी अपनी घातें बदल गया संसार
उड़ जाएँगे अब तो पंछी ले कर तेरा दाम
आँखों पर पलकों का साजन कब होता है बोझ
दूर से आए हो तुम नैना बीच करो आराम - इरफ़ाना अज़ीज़
चुपके चुपके क्या कहते हैं तुझ से धान के खेत
बोल री निर्मल निर्मल नदिया क्यूँ है चाँद उदास - इरफ़ाना अज़ीज़
नील-गगन पर सुर्ख़ परिंदों की डारों के संग
बदली बन कर उड़ती जाए मेरी शोख़ उमंग
सपनों की डाली पर चमका एक सुनहरा पात
चढ़ता सूरज देख के जिस का रूप हुआ है दंग - इरफ़ाना अज़ीज़
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ सालिम उल आखिर 14-रुक्नी
फ़ेल फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अलुन
21 121 121 121 121 121 122
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 22 22 22
रूप के पाँव चूमने वाले सुन ले मेरी बानी
फूल की डाली बहुत ही ऊँची तू है बहता पानी
सोंधी सोंधी ख़ुश्बू के बहते हैं शीतल झरने
खेतों पर लहराता है जब मेरा आँचल धानी - इरफ़ाना अज़ीज़
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 16-रुक्नी
फ़अलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़अल
21 121 121 121 121 121 121 12
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 22 22 22 22 2
किन लफ़्ज़ों में इतनी कड़वी इतनी कसीली बात लिखूँ
शेर की मैं तहज़ीब निबाहूँ या अपने हालात लिखूँ
तख़्त की ख़्वाहिश लूट का लालच कमज़ोरों पर ज़ुल्म का शौक़
लेकिन उन का फ़रमाना है मैं इन को जज़्बात लिखूँ
क़ातिल भी मक़्तूल भी दोनों नाम ख़ुदा का लेते थे
कोई ख़ुदा है तो वो कहाँ था मेरी क्या औक़ात लिखूँ
अपनी अपनी तारीकी को लोग उजाला कहते हैं
तारीकी के नाम लिखूँ तो क़ौमें फ़िरक़े ज़ात लिखूँ
जाने ये कैसा दौर है जिस में जुरअत भी तो मुश्किल है
दिन हो अगर तो उस को लिखूँ दिन रात अगर हो रात लिखूँ - जावेद अख़्तर
जिस्म दमकता, ज़ुल्फ़ घनेरी, रंगीं लब, आँखें जादू
संग-ए-मरमर, ऊदा बादल, सुर्ख़ शफ़क़, हैराँ आहू - जावेद अख़्तर
बात तुम्हारी सुनते सुनते ऊब गए हैं हम बाबा
अपनी जात के बाहर झांको बाहर भी है ग़म बाबा
थोड़े से अलफ़ाज़ की ख़ातिर कितना ख़ून जलाते हो
इक दिन बातें हो जाती हैं बेमानी मुबहम बाबा - अनीस अंसारी
नीची शाख़ का कच्चा फल थे, धूप की गोद में पलते थे
हाथ बढाकर उसने तोड़ा, चक्खा, बे-पहचान किया - ज़फ़र गौरी
दरवाज़े पर आहट सुन कर उस की तरफ़ क्यूँ ध्यान गया
आने वाली सिर्फ़ हवा हो ऐसा भी हो सकता है
हाल-ए-परेशाँ सुन कर मेरा आँख में उस की आँसू हैं
मैं ने उस से झूट कहा हो ऐसा भी हो सकता है - मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे - निदा फ़ाज़ली
एक ठिकाना आगे आगे, पीछे एक मुसाफ़िर है
चलते चलते साँस जो टूटे, मंज़िल का एलान करें - सनाउल्ला खां डार 'मीराजी'
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर, घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा, अपना पराया भूल गया - सनाउल्ला खां डार 'मीराजी'
तुम क्या जानो अपने आप से, कितना मैं शर्मिंदा हूँ
छूट गया है साथ तुम्हारा, और अभी तक ज़िंदा हूँ - साग़र आज़मी
हक़ अच्छा पर उस के लिए कोई और मेरे तो और अच्छा
तुम भी कोई मंसूर हो जो सूली पे चढ़ो ख़ामोश रहो
उन का ये कहना सूरज ही धरती के फेरे करता है
सर-आँखों पर सूरज ही को घूमने दो ख़ामोश रहो - इब्ने इंशा
दिल हिज्र के दर्द से बोझल है अब आन मिलो तो बेहतर हो
इस बात से हम को क्या मतलब ये कैसे हो ये क्यूँकर हो
वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं
अब सुख के सपने क्या देखें जब दुख का सूरज सर पर हो - इब्ने इंशा
मोती के दो थाल सजाए आज हमारी आँखों ने
तुम जाने किस देस सिधारे भेंजें ये सौगात कहाँ - फ़िराक़ गोरखपुरी
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं - फ़िराक़ गोरखपुरी
आतिश-ए-ग़म के सैल-ए-रवाँ में नींदें जल कर राख हुईं
पत्थर बन कर देख रहा हूँ आती जाती रातों को - नासिर काज़मी
तूफानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो - राहत इन्दौरी
देर लगी आने में तुम को शुक्र है फिर भी आए तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा वैसे हम घबराए तो - अंदलीब शादानी
पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी
आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था - जौन एलिया
मिट्टी हो कर इश्क़ किया है इक दरिया की रवानी से
दीवार-ओ-दर माँग रहा हूँ मैं भी बहते पानी से
वो मजबूरी मौत है जिस में कासे को बुनियाद मिले
प्यास की शिद्दत जब बढ़ती है डर लगता है पानी से - मोहसिन असरार
मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ सालिम अल आखिर 16-रुक्नी
फ़अलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलु फ़ऊलुन
21 121 121 121 121 121 121 122
तख्नीक से हासिल अरकान :
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन // फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 // 22 22 22 22
हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी
गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं - निदा फ़ाज़ली
ये भी कोई बात है आख़िर दूर ही दूर रहें मतवाले
हरजाई है चाँद का जोबन या पंछी को प्यार नहीं है - क़तील शिफ़ाई
मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम अल आख़िर मुजाइफ़
फ़ेल फ़ऊलुन फ़ेल फ़ऊलुन // फ़ेल फ़ऊलुन फ़ेल फ़ऊलुन
21 122 21 122 // 21 122 21 122
(इसे 'मुतक़ारिब मुसम्मन असरम सालिम मुजाइफ़' के नाम से भी जाना जाता है.लेकिन असरम सिर्फ़ पहले रुक्न के लिए
निर्धारित है यह मिसरे के हश्व(बीच) में नहीं आ सकता.ये बह्र 'मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़ सालिम अल आखिर 16-रुक्नी'
पर तख्नीक से भी हासिल की जा सकती है.)
हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुम से ज़ियादा
चाक किए हैं हम ने अज़ीज़ो चार गरेबाँ तुम से ज़ियादा
जाओ तुम अपने बाम की ख़ातिर सारी लवें शम्ओं की कतर लो
ज़ख़्म के मेहर-ओ-माह सलामत जश्न-ए-चराग़ाँ तुम से ज़ियादा - मजरूह सुल्तानपुरी
मुतदारिक
मुतदारिक मुसद्दस सालिम
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212 212 212
उस ने पूछा था क्या हाल है
और मैं सोचता रह गया - अजमल सिराज़
आज जाने की ज़िद ना करो
यूँ ही पहलू मे बैठे रहो - फैय्याज़ हाशमी
अहले दैरो-हरम रह गये
तेरे दीवाने कम रह गये - फ़ना निजामी कानपूरी
लज़्ज़त-ए-ग़म बढ़ा दीजिए
आप फिर मुस्कुरा दीजिए
मेरा दामन बहुत साफ़ है
कोई तोहमत लगा दीजिए - राज़ इलाहाबादी
मुतदारिक मुसम्मन सालिम
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212 212 212 212
ख़ार-ओ-ख़स तो उठें रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया क़ाफ़िला तो चले
उस को मज़हब कहो या सियासत कहो
ख़ुद-कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
इतनी लाशें मैं कैसे उठा पाऊँगा
आप ईंटों की हुरमत बचा तो चले - कैफ़ी आज़मी
बर्फ़ गिरती रहे आग जलती रहे
आग जलती रहे रात ढलती रहे
रात भर हम यूं ही रक्स करते रहें
नींद तन्हा खड़ी हाथ मलती रहे - नासिर काज़मी
उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो - राहत इन्दौरी
दूसरों पर अगर तब्सिरा कीजिए
सामने आइना रख लिया कीजिए - ख़ुमार बाराबंकवी
आप की याद आती रही रात भर
चश्म-ए-नम मुस्कुराती रही रात भर - मख़दूम मुहिउद्दीन
आपको देखकर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया - निदा फाज़ली
हर तरफ़ हर ज़गह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी - निदा फाज़ली
और क्या है सियासत के बाज़ार में
कुछ खिलौने सजे हैं दुकानों के बीच - जाँ निसार अख्तर
मेरे चेहरे से ग़म आश्कारा नहीं
ये न समझो कि मैं ग़म का मारा नहीं
डूबने को तो डूबे मगर नाज़ है,
अहल-ए-साहिल को हम ने पुकारा नहीं
यूँ दिखाता है आँखें हमें बाग़बाँ
जैसे गुलशन पे कुछ हक़ हमारा नहीं - फ़ना निज़ामी कानपुरी
मुतदारिक सालिम 10 रुक्नी
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212 212 212 212 212
तेरी फ़रियाद गूँजेगी धरती से आकाश तक
कोई दिन और सह ले सितम सब्र कर सब्र कर - नासिर काज़मी
दिन ढला रात फिर आ गई सो रहो सो रहो
मंज़िलों छा गई ख़ामुशी सो रहो सो रहो - नासिर काज़मी
मुतदारिक मुसम्मन सालिम मुजाइफ़
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212 212 212 212 212 212 212 212
एक समंदर के प्यासे किनारे थे हम, अपना पैगाम लाती थी मौजे रवां
आज दो रेल की पटरियों की तरह, साथ चलना है और बोलना तक नहीं - बशीर बद्र
क्या हुआ आज क्यों खेमा-ए-जख्म से, कज कुलाहने-ग़म फिर निकालने लगे
हम तो समझे थे अब शह्रे-दिल मिट चुका, थक गए दर्द के कारवाँ सो गए - बशीर बद्र
कच्चे फल कोट की जेब में ठूस कर जैसे ही मैं किताबों की जानिब बढ़ा
गैलरी में छिपी दोपहर ने मुझे नारियल की तरह तोड़ कर पी लिया - बशीर बद्र
आशियाँ जल गया गुलिस्ताँ लुट गया, हम क़फ़स से निकल कर किधर जायेंगे
इतने मानूस सैय्याद से हो गए, अब रिहाई मिली भी तो मर जायेंगे
अश्क-ए-ग़म ले के आख़िर किधर जाएँ हम, आँसुओं की यहाँ कोई क़ीमत नहीं
आप ही अपना दामन बढ़ा दीजिए, वर्ना मोती ज़मीं पर बिखर जाएँगे - राज़ इलाहाबादी
मुतदारिक मुसम्मन महज़ूज़
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ा
212 212 212 2
जब नज़र आप की हो गई है
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी हो गई है - फ़िराक़ गोरखपुरी
कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन
जब तक उलझे न काँटों से दामन
गुल तो गुल ख़ार तक चुन लिए हैं
फिर भी ख़ाली है गुलचीं का दामन - फ़ना निज़ामी कानपुरी
मुतदारिक मुसम्मन महज़ूज़ मुजाइफ़
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ा // फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ा
212 212 212 2 // 212 212 212 2
मेरा वादा है तुझ से यह हमदम, आँधियाँ आए तूफ़ान आए
ज़िन्दगी की डगर में सदा मैं, साथ तेरा निभाता रहूँगा - आरिफ़ हसन ख़ान
मुतदारिक मुसम्मन मक़्तूअ’
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ेलुन
212 212 212 22
राह में हो मुलाक़ात, नामुमकिन
हो कभी ये करामात, नामुमकिन - कमाल अहमद सिद्दीकी
मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून
फ़इलुन फ़इलुन फ़इलुन फ़इलुन
112 112 112 112
मेरा दुश्मन अगरचे जमाना रहा
तेरा यूँ ही मैं दोस्त यगाना रहा
न तो अपना रहा न बेगाना रहा
जो रहा सो किसी का फ़साना रहा
रही कसरते दाग़ बदौलते ग़म
मेरे पास हमेशा खज़ाना रहा
गया मौसमे-गर्दिशे-सागरे मै
न वो दौर रहा न ज़माना रहा - बहादुर शाह ज़फ़र
मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22
जो सूदो-जियां का ज़िक्र करे
वो इश्क नहीं मज़दूरी है
सब देखतीं हैं सब झेलतीं हैं
ये आँखों की मजबूरी है
मैं तुझ को कितना चाहता हूँ
ये कहना गैर ज़रूरी है - सलीम अहमद
मुतदारिक मुसद्दस मख़्बून मुसक्किन मुजाइफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 22 22
इन सहमे हुए शहरों की फ़ज़ा कुछ कहती है
कभी तुम भी सुनो ये धरती क्या कुछ कहती है
सब अपने घरों में तान के लम्बी सोते हैं
और दूर कहीं कोयल की सदा कुछ कहती है
बेदार रहो, बेदार रहो, बेदार रहो, बेदार रहो
ऐ हमसफ़रो आवाज़े-दरा कुछ कहती है
'नासिर'आसोबे-ज़माना से गाफिल न रहो
कुछ होता है जब ख़ल्के-ख़ुदा कुछ कहती है - नासिर काज़मी
मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन महज़ूज़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 2
मुझ में बस तू ही तू है
मैं तेरा आईना हूँ - आरिफ़ हसन ख़ान
मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन महज़ूज़ मुजाइफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा // फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 2 // 22 22 22 2
मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें
कुछ तुम भी बदल कर देखो कुछ हम भी बदल कर देखें
दो चार कदम हर रस्ता पहले की तरह लगता है
शायद कोई मंजर बदले कुछ दूर तो चलकर देखें - निदा फ़ाज़ली
मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन महज़ूज़ 16 रुक़्नी
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा
22 22 22 22 22 22 22 2
कतरा कतरा आंसू जिसकी तूफां तूफां शिद्दत है
पारा पारा दिल है जिसमें तूदा तूदा हसरत है - ज़ौक़
मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुजाइफ़
फ़इलुन फ़इलुन फ़इलुन फ़इलुन फ़इलुन फ़इलुन फ़इलुन फ़इलुन
112 112 112 112 112 112 112 112
नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें कि क़रार-ओ-शकेब ज़रा न रहा
ग़म-ए-इश्क़ तो अपना रफ़ीक़ रहा कोई और बला से रहा न रहा
न थी हाल की जब हमें अपने ख़बर रहे देखते औरों के ऐब-ओ-हुनर
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नज़र तो निगाह में कोई बुरा न रहा
उसे चाहा था मैंने के रोक रखूँ मेरी जान भी जाए तो जाने न दूँ
किए लाख फ़रेब करोड़ फ़ुसूँ न रहा न रहा न रहा न रहा - बहादुर शाह ज़फ़र
गए दोनों जहां के काम से हम न इधर के रहे न उधर के रहे
न खुदा ही मिला न विसाले - सनम न इधर के रहे न उधर के रहे - मिर्ज़ा सादिक़ शरर
मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून मुसक्किन मुजाइफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन // फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन
22 22 22 22 // 22 22 22 22
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी था
हर शाख़ पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा - शौक़ बहराइची
तक़दीर का शिकवा बेमानी जीना ही तुझे मंज़ूर नहीं
आप अपना मुक़द्दर बन न सके इतना तो कोई मजबूर नहीं - मजरूह सुल्तानपुरी
ऐ इश्क़ ये सब दुनिया वाले बे-कार की बातें करते हैं
पायल के ग़मों का इल्म नहीं झंकार की बातें करते हैं - शकील बदायुनी
सब का तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके
सब के तो गरेबाँ सी डाले अपना ही गरेबाँ भूल गए - असरार-उल-हक़ मजाज़
कब मेरा नशेमन अहल-ए-चमन गुलशन में गवारा करते हैं
ग़ुंचे अपनी आवाज़ों में बिजली को पुकारा करते हैं
तारों की बहारों में भी 'क़मर' तुम अफ़्सुर्दा से रहते हो
फूलों को तो देखो काँटों में हँस हँस के गुज़ारा करते हैं - क़मर जलालवी
'इंशा' जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूँ से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या
उस को भी जला दुखते हुए मन इक शोला लाल भबूका बन
यूँ आँसू बन बह जाना क्या यूँ माटी में मिल जाना क्या - इब्ने इंशा
ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम
जो याद न आए भूल के फिर ऐ हम-नफ़सो वो ख़्वाब हैं हम - शाद अज़ीमाबादी
नए कपड़े बदल कर जाऊँ कहाँ और बाल बनाऊँ किस के लिए
वो शख़्स तो शहर ही छोड़ गया मैं बाहर जाऊँ किस के लिए
वो शहर में था तो उस के लिए औरों से भी मिलना पड़ता था
अब ऐसे-वैसे लोगों के मैं नाज़ उठाऊँ किस के लिए - नासिर काज़मी
टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां मत देश विदेश फिरे मारा
कज़्ज़ाक़ अजल का लूटे हैं दिन रात बजा कर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैसा, बैल, शुतुर, क्या गौने, गल्ला सर भारा
क्या गेहूँ चावल मोठ मटर, क्या आग धुआँ और अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बंजारा - नज़ीर अकबराबादी
क्या लुत्फ़ रहा इस चाहत में जो हम चाहें और तुम हो ख़फ़ा
ये बात सुनी तो वो चंचल यूँ हँस कर बोला देखेंगे - नज़ीर अकबराबादी
मरने की दुआएँ क्यूँ मांगूँ , जीने की तमन्ना कौन करे
यह दुनिया हो या वह दुनिया अब ख्वाहिश-ए-दुनिया कौन करे - मुईन अहसन जज़्बी
ऐ मौज-ए-बला, उनको भी ज़रा दो-चार थपेड़े हल्के से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफ़ां का नज़ारा करते हैं - मुईन अहसन जज़्बी
हज़ज
हज़ज मुरब्बा सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222
हिलाले-ईद जाँ-अफ़ज़ा
दिखाई दे गया हर जा
जवानो-पीर गाते हैं
नहीं फूले समाते हैं - फ़रमान अली सुजानपुरी
हज़ज मुरब्बा अश्तर
फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन
212 1222
चाँद की कगर रौशन
शब के बाम-ओ-दर रौशन
इक लकीर बिजली की
और रहगुज़र रौशन - मोहम्मद अल्वी
धूप ने गुज़ारिश की
एक बूँद बारिश की - मोहम्मद अल्वी
कश्तियों कि लाशों पर
जमघटा है चीलों का
देख कर चलो नासिर
दश्त है ये फ़ीलों का - नासिर काज़मी
हज़ज मुरब्बा अश्तर महज़ूफ़
फ़ाइलुन फ़ऊलुन
212 122
रात ढल रही है
नाव चाल रही है
लोग सो रहे हैं
रुत बदल रही है
जाहिलों की खेती
फूल फल रही है - नासिर काज़मी
हज़ज मुरब्बा अश्तर मक़्बूज़
फ़ाइलुन मफ़ाइलुन
212 1212
ग़म है या ख़ुशी है तू
मेरी ज़िंदगी है तू
आफ़तों के दौर में
चैन की घड़ी है तू - नासिर काज़मी
हज़ज मुरब्बा अश्तर मुजाइफ़
फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन
212 1222 212 1222
आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से
काम चल नहीं सकता अब किसी बहाने से
अब जुनूँ पे वो साअत आ पड़ी कि ऐ 'मजरूह'
आज ज़ख़्म-ए-सर बेहतर दिल पे चोट खाने से - मजरूह सुल्तानपुरी
हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ
दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं - परवीन शाकिर
अब नहीं मिलेंगे हम कूचा-ए-तमन्ना में
कूचा-ए-तमन्ना में अब नहीं मिलेंगे हम - जौन एलिया
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
आज पहली बार उस से मैं ने बेवफ़ाई की - अहमद फ़राज़
शहर के अंधेरे को इक चराग़ काफ़ी है
सौ चराग़ जलते हैं इक चराग़ जलने से - एहतिशाम अख्तर
हज़ज मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222
तुम्हें भी इस बहाने याद कर लेंगे
इधर दो चार पत्थर फेंक दो तुम भी - दुष्यंत कुमार
हज़ज सालिम 12 रुक़्नी
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222 1222 1222
तुम्हारा हाथ जब मेरे लरज़ते हाथ से छूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
वो मोहकम बे-लचक वादा खिलौने की तरह टूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे
लिखा था एक तख़्ती पर कोई भी फूल मत तोड़े मगर आँधी तो अन-पढ़ थी
सो जब वो बाग़ से गुज़री कोई उखड़ा कोई टूटा ख़िज़ाँ के आख़िरी दिन थे - अमजद इस्लाम 'अमजद'
हज़ज मुसद्दस अख़रब मक़बूज़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु मुफ़ाइलुन फ़ऊलुन
221 1212 122
आँखों में कटी पहाड़ सी रात
सो जा दिले-बेकरार कुछ देर - नासिर काज़मी
मोती की तरह जो हो ख़ुदा-दाद
थोड़ी सी भी आबरू बहुत है - अमीर मीनाई
पहले तो मुझे कहा निकालो
फिर बोले ग़रीब है बुला लो
बे-दिल रखने से फ़ाएदा क्या
तुम जान से मुझ को मार डालो - अमीर मीनाई
आँखों में जो बात हो गई है
इक शरह-ए-हयात हो गई है
मुद्दत से ख़बर मिली न दिल की
शायद कोई बात हो गई है
इक़रार-ए-गुनाह-ए-इश्क़ सुन लो
मुझ से इक बात हो गई है
इस दौर में ज़िंदगी बशर की
बीमार की रात हो गई है
इक्का-दुक्का सदा-ए-ज़ंजीर
ज़िंदाँ में रात हो गई है - फ़िराक़ गोरखपुरी
हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122
बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तेरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है - असरार-उल-हक़ मजाज़
करें क्या दिल उसी को माँगता है
ये साला भी हटीला हो गया है - मोहम्मद अल्वी
मैं बिछड़ों को मिलाने जा रहा हूँ
चलो दीवार ढाने जा रहा हूँ - फ़रहत एहसास
नसीब अच्छे अगर बुलबुल के होते
तो क्या पहलू में कांटे, गुल के होते - बहादुर शाह ज़फ़र
उसे शोहरत ने तन्हा कर दिया है
समंदर है मगर प्यासा बहुत है
मेरा हँसना ज़रूरी हो गया है
यहाँ हर शख्स संजीदा बहुत है - बशीर बद्र
जिसे देखो ग़ज़ल पहने हुए है
बहुत सस्ता ये ज़ेवर वो गया है
असर है ये हमारी दस्तकों का
जहाँ दीवार थी दर हो गया है - विकास शर्मा 'राज़'
मुहब्बत करने वाले कम न होंगे
तिरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे
ज़माने भर के ग़म या इक तेरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे - हफ़ीज़ होशियारपुरी
तिरी चाहत के भीगे जंगलों में
मेरा तन मोर बन कर नाचता है
मैं उस की दस्तरस में हूँ मगर वो
मुझे मेरी रज़ा से माँगता है - परवीन शाकिर
न जाना आज तक क्या शै खुशी है
हमारी ज़िन्दगी भी ज़िन्दगी है
इसे सुन लो, सबब इसका ना पूछो
मुझे तुम से मुहब्बत हो गई है - फ़िराक़ गोरखपुरी
ये माना ज़िन्दगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारों चार दिन भी - फ़िराक़ गोरखपुरी
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ - फ़िराक़ गोरखपुरी
तेरे आने का धोका सा रहा है
दिया सा रात भर जलता रहा है - नासिर काज़मी
हमारे घर की दीवारों पे 'नासिर'
उदासी बाल खोले सो रही है - नासिर काज़मी
ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही है
तेरी आवाज़ अब तक आ रही है - नासिर काज़मी
रहा क्या जब दिलों में फ़र्क़ आया
उसी दिन से जुदाई हो चुकी बस - यास यगाना चंगेजी
हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
ये मुमकिन है वो उनको मौत की सरहद पे ले जायें
परिंदों को मगर अपने परों से डर नहीं लगता - सलीम अहमद
गनीमे वक़्त के हमले का मुझ को खौफ रहता है
मैं कागज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाता हूँ - सलीम अहमद
यहाँ मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूटे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है - हसीब सोज़
वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है
दिवाली देख ली हम ने दसहरे कर लिए हम ने - साक़ी फ़ारुक़ी
हमीं से कोई कोशिश हो न पाई कारगर वर्ना
हर इक नाक़िस यहाँ का पीर-ए-कामिल होने वाला है
चलो इस मरहले पर ही कोई तदबीर कर देखो
वगर्ना शहर में पानी तो दाख़िल होने वाला है - ज़फ़र इक़बाल
अक़ाएद वहम हैं मज़हब ख़याल-ए-ख़ाम है साक़ी
अज़ल से ज़ेहन-ए-इंसाँ बस्ता-ए-औहाम है साक़ी
मेरे साग़र में मय है और तेरे हाथों में बरबत है
वतन की सर-ज़मीं में भूक से कोहराम है साक़ी
ज़माना बरसर-ए-पैकार है पुर-हौल शोलों से
तेरे लब पर अभी तक नग़्मा-ए-ख़य्याम है साक़ी - साहिर लुधियानवी
न गुल अपना न ख़ार अपना न ज़ालिम बाग़बाँ अपना
बनाया आह किस गुलशन में हम ने आशियाँ अपना - नज़ीर अकबराबादी
ख़मोशी से मुसीबत और भी संगीन होती है
तड़प ऐ दिल तड़पने से ज़रा तस्कीन होती है - शाद अज़ीमाबादी
जवानी को बचा सकते तो हैं हर दाग़ से वाइ'ज़
मगर ऐसी जवानी को जवानी कौन कहता है - फ़ानी बदायुनी
मुहब्बत के लिए कुछ ख़ास दिल मख़्सूस होते हैं
ये वो नग़्मा है जो हर साज़ पर गाया नहीं जाता - मख़्मूर देहलवी
हवा उस को उड़ा ले जाए अब या फूँक दे बिजली
हिफ़ाज़त कर नहीं सकता मेरी जब आशियाँ मेरा - जगत मोहन लाल रवाँ
तुम्हारा दिल मेरे दिल के बराबर हो नहीं सकता
वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता - दाग़ देहलवी
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
मेरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है - दाग़ देहलवी
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता - अमीर मीनाई
सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइ'ज़
हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती - जिगर मुरादाबादी
वही साक़ी वही साग़र वही शीशा वही बादा
मगर लाज़िम नहीं हर एक पर यकसाँ असर होना - यास यगाना चंगेजी
मुझे दिल की ख़ता पर 'यास' शरमाना नहीं आता
पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता
सरापा राज़ हूँ मैं क्या बताऊँ कौन हूँ क्या हूँ
समझता हूँ मगर दुनिया को समझाना नहीं आता - यास यगाना चंगेजी
किया है बेअदब ख़ालिक ने पैदा, ऐ 'ज़फ़र' जिनको
करे क्या फ़ायदा उनको, अदब देना अदीबों का – बहादुर शाह ‘ज़फ़र’
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई
मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई - मुनव्वर राना
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है - मुनव्वर राना
बहुत नौहागरी करते हैं दिल के टूट जाने की
कभी आप अपनी चीज़ों की निगहबानी भी करते हैं - इरफ़ान सिद्दीक़ी
चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियाँ हों ज़िंदगी दुश्वार हो जाए - असग़र गोंडवी
ख़ुदावंदा ये तेरे सादा-दिल बंदे किधर जाएँ
कि दरवेशी भी अय्यारी है सुल्तानी भी अय्यारी - अल्लामा इक़बाल
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है - अल्लामा इक़बाल
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा - अल्लामा इक़बाल
तेरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था - असरार-उल-हक़ मजाज़
चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है
हमीं हम हैं तो क्या हम हैं तुम्ही तुम हो तो क्या तुम हो - सरशार सैलानी
तुम्हें ग़ैरों से कब फ़ुर्सत हम अपने ग़म से कम ख़ाली
चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली - जाफ़र अली हसरत
डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली - अकबर इलाहाबादी
मिटा दे अपनी हस्ती को अगर कुछ मर्तबा चाहे
कि दाना ख़ाक में मिल कर गुल-ओ-गुलज़ार होता है - सय्यद मोहम्मद मस्त कलकत्तवी
जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता - जावेद अख़्तर
हमारा झूठ इक चूमकार है बेदर्द दुनिया को
हमारे झूठ से बदतर जमाने की सचाई है - फ़िराक़ गोरखपुरी
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं - फ़िराक़ गोरखपुरी
कमर बाँधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं
बहुत आगे गए बाक़ी जो हैं तय्यार बैठे हैं - इंशा अल्लाह ख़ान
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए - बशीर बद्र
अगर बख़्शे ज़हे क़िस्मत न बख़्शे तो शिकायत क्या
सर-ए-तस्लीम ख़म है जो मिज़ाज-ए-यार में आए - नवाब अली असग़र
बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
ये फल पक कर दोबारा चाहता है ख़ाम हो जाए - नुशूर वाहिदी
दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है
चले आओ जहाँ तक रौशनी मालूम होती है - नुशूर वाहिदी
हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 1222 122
ख़राबी हो रही है तो फ़क़त मुझ में ही सारी
मेरे चारों तरफ़ तो ख़ूब अच्छा हो रहा है - ज़फ़र इक़बाल
चट्टानों से जहाँ थी गुफ़्तुगू-ए-सख़्त लाज़िम
वहीं शीरीं-सुख़न लहजे मुलाएम हो गए हैं - मुसव्विर सब्ज़वारी
मुझे तन्हाई की आदत है मेरी बात छोड़ें
ये लीजे आप का घर आ गया है हाथ छोड़ें - जावेद सबा
बुतों पे जान जाती है खुदा मारे कि छोड़े
उन्ही कि तर्ज़ भाती है खुदा मारे कि छोड़े - बहादुरशाह ज़फ़र
हज़ज मुसम्मन सालिम महज़ूफ़ 16 रुक़्नी
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 1222 1222 1222 1222 1222 122
ज़रा मौसम तो बदला है मगर पेड़ों की शाख़ों पर नए पत्तों के आने में अभी कुछ दिन लगेंगे
बहुत से ज़र्द चेहरों पर ग़ुबार-ए-ग़म है कम बे-शक पर उन को मुस्कुराने में अभी कुछ दिन लगेंगे
जहाँ इतने मसाइब हों जहाँ इतनी परेशानी किसी का बेवफ़ा होना है कोई सानेहा क्या
बहुत माक़ूल है ये बात लेकिन इस हक़ीक़त तक दिल-ए-नादाँ को लाने में अभी कुछ दिन लगेंगे - जावेद अख़्तर
हज़ज मुसद्दस मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212
वो साहिलों पे गाने वाले क्या हुए
वो कश्तियाँ चलाने वाले क्या हुए
वो सुब्ह आते आते रह गई कहाँ
जो क़ाफ़िले थे आने वाले क्या हुए
अकेले घर से पूछती है बेकसी
तेरा दिया जलाने वाले क्या हुए - नासिर काज़मी
हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया
लिपट रही है याद जिस्म से लिहाफ़ की तरह - मुसव्विर सब्ज़वारी
हथेलियों की ओट ही चराग़ ले चलूँ अभी
अभी सहर का ज़िक्र है रिवायतों के दरमियाँ - अदा जाफ़री
जमाहियाँ सी ले रहे हैं आसमान पर नुज़ूम
सुना रही है ज़िन्दगी, फ़साने कटती रात के - फ़िराक़ गोरखपुरी
लहू-चशीदा हाथ उस ने चूम कर दिखा दिया
जज़ा वहाँ मिली जहाँ कि मरहला सज़ा का था - परवीन शाकिर
सुख़नवरों ने ख़ुद बना दिया सुख़न को एक मज़ाक
ज़रा-सी दाद क्या मिली ख़िताब माँगने लगे - राहत इन्दौरी
दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ वो शक्ल तो दिखा गया
जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिए
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया - नासिर काज़मी
हज़ज मुसम्मन अखरब मकफ़ूफ़ मकफ़ूफ़ मुखन्नक
मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन मफ़ऊलु मुफ़ाईलुन
221 1222 221 1222
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई - मुज़फ़्फ़र रज़्मी
साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर
अफ़्सोस तो करते हैं इमदाद नहीं करते - फ़ना निज़ामी कानपुरी
दो तुंद हवाओं पर बुनियाद है तूफां की
या तुम न हसीं होते या मैं न जवां होता - आरज़ू लखनवी
बुत है कि ख़ुदा है वो माना है न मानूँगा
उस शोख़ से जब तक मैं ख़ुद मिल नहीं आने का
गर दिल की ये महफ़िल है ख़र्चा भी हो फिर दिल का
बाहर से तो सामान-ए-महफ़िल नहीं आने का - जौन एलिया
ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं
फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है - निदा फ़ाज़ली
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है - बशीर बद्र
या-रब ग़म-ए-हिज्राँ में इतना तो किया होता
जो हाथ जिगर पर है वो दस्त-ए-दुआ होता
इक इश्क़ का ग़म आफ़त और उस पे ये दिल आफ़त
या ग़म न दिया होता या दिल न दिया होता
नाकाम-ए-तमन्ना दिल इस सोच में रहता है
यूँ होता तो क्या होता यूँ होता तो क्या होता
उम्मीद तो बंध जाती तस्कीन तो हो जाती
वादा न वफ़ा करते वादा तो किया होता
ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने
कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता - चराग़ हसन हसरत
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है - जिगर मुरादाबादी
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता - अकबर इलाहाबादी
हंगामा है क्यो बर्पा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नही डाला चोरी तो नहीं की है - अकबर अलाहाबादी
कब ठहरेगा दर्दे दिल कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आयेंगे सुनते थे सहर होगी - फैज़ अहमद फैज़
हज़ज मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु मुफाईलु मुफाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122
औरत के ख़ुदा दो हैं हक़ीक़ी-ओ-मजाज़ी
पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता - ज़ेहरा निगाह
अब आए हो दुनिया में तो यूँ मुँह न बिगाड़ो
दो रोज़ तो रहना है बुरी है तो बुरी है - मोहम्मद अल्वी
फ़रमान से पेड़ों पे कभी फल नहीं लगते
तलवार से मौसम कोई बदला नहीं जाता - मुज़फ्फ़र वारसी
दिल टूट भी जाए तो मुहब्बत नहीं मिटती
इस राह में लुट कर भी ख़सारा नहीं होता - मुज़फ़्फ़र वारसी
तुम राह में चुपचाप खड़े हो तो गए हो
किस किस को बताओगे कि घर क्यूँ नहीं जाते - अमीर आग़ा क़ज़लबाश
हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते
जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते - महबूब-ख़िज़ाँ
ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था
क़ाइल ही तिरी बात का अंदर से नहीं था - राजेन्द्र मनचन्दा 'बानी'
जिस दिल में तिरी ज़ुल्फ़ का सौदा नहीं होता
वो दिल नहीं होता नहीं होता नहीं होता - ऐश देहलवी
होंटों पे कभी उन के मेरा नाम ही आए
आए तो सही बर-सर-ए-इलज़ाम ही आए - अदा जाफ़री
हम उन में हैं जिन की कोई हस्ती नहीं होती
हम टूट भी जाएँ तो तमाशा नहीं होता - मोहसिन असरार
आधी से ज़ियादा शब-ए-ग़म काट चुका हूँ
अब भी अगर आ जाओ तो ये रात बड़ी है - साक़िब लखनवी
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं - दाग़ देहलवी
ये जिस्म है या कृष्न की बंशी की कोई टेर
बल खाया हुआ रूप है या शोला-ए-पेचाँ - फ़िराक़ गोरखपुरी
बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता - निदा फ़ाज़ली
गर एक ग़ज़ब हो तो कोई उस को उठावे
रफ़्तार ग़ज़ब है तिरी गुफ़्तार ग़ज़ब है - मुसहफ़ी
अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएँगे इक दिन - साक़ी फ़ारुक़ी
शामिल पस-ए-पर्दा भी हैं इस खेल में कुछ लोग
बोलेगा कोई होंट हिलाएगा कोई और - आनिस मुईन
है कौन कि जो ख़ुद को ही जलता हुआ देखे
सब हाथ हैं काग़ज़ के दिया दें तो किसे दें - आनिस मुईन
कुछ तो तेरे मौसम ही मुझे रास कम आए
और कुछ मेरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी
इस तर्क-ए-रिफ़ाक़त पे परेशाँ तो हूँ लेकिन
अब तक के तेरे साथ पे हैरत भी बहुत थी
ख़ुश आए तुझे शहर-ए-मुनाफ़िक़ की अमीरी
हम लोगों को सच कहने की आदत भी बहुत थी - परवीन शाकिर
मुश्किल है कि अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई होती हुई सर से
कल रात जो ईंधन के लिए कट के गिरा है
चिड़ियों को बहुत प्यार था उस बूढ़े शजर से
निकले हैं तो रस्ते में कहीं शाम भी होगी
सूरज भी मगर आएगा इस रहगुज़र से - परवीन शाकिर
उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
शो'ला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो - मोमिन ख़ाँ मोमिन
अब रात की दीवार को ढाना है ज़रूरी
ये काम मगर मुझ से अकेले नहीं होगा - शहरयार
उम्मीद से कम चश्म-ए-ख़रीदार में आए
हम लोग ज़रा देर से बाज़ार में आए - शहरयार
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है - शहरयार
ये क्या है मुहब्बत में तो ऐसा नहीं होता
मैं तुझ से जुदा हो के भी तन्हा नहीं होता - शहरयार
चलता ही नहीं दानिश ओ हिकमत से कोई काम
बनती है यहाँ बात हिमाक़त से ज़ियादा - सुल्तान अख़्तर
दिल साफ़ हो किस तरह कि इंसाफ़ नहीं है
इंसाफ़ हो किस तरह कि दिल साफ़ नहीं है - मिर्ज़ा सलामत अली दबीर
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ - अकबर इलाहाबादी
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो - अकबर इलाहाबादी
दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो - कलीम आजिज़
चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले
आशिक़ का जनाज़ा है ज़रा धूम से निकले - मिर्ज़ा मोहम्मद अली फ़िदवी
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ - अहमद फ़राज़
रमल
रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122
अपने होंटों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
थक गया मैं करते करते याद तुझ को
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ - क़तील शिफ़ाई
रमल मुसद्दस महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 212
मौत तो आनी है आएगी मगर
और भी जीने में नुक़साँ हैं बहुत - मोहम्मद अल्वी
ज़िंदगी-भर मेरे काम आए उसूल
एक इक कर के उन्हें बेचा किया
बंध गई थी दिल में कुछ उम्मीद सी
ख़ैर तुम ने जो किया अच्छा किया - जावेद अख़्तर
इश्क़ है मैं हूँ दिल-ए-नाकाम है
इस के आगे बस ख़ुदा का नाम है - आनंद नारायण मुल्ला
उन का ग़म उन का तसव्वुर उन की याद
कट रही है ज़िंदगी आराम से - महशर इनायती
झूटे वादों पर थी अपनी ज़िंदगी
अब तो वो भी आसरा जाता रहा - अज़ीज़ लखनवी
हारने में इक अना की बात थी
जीत जाने में ख़सारा और है - परवीन शाकिर
क्या हुए सूरत-निगाराँ ख़्वाब के
ख़्वाब के सूरत-निगाराँ क्या हुए - जौन एलिया
उन का ज़िक्र उन की तमन्ना उन की याद
वक़्त कितना क़ीमती है आज कल - शकील बदायुनी
रंज़ की जब ग़ुफ़्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी - दाग़ देहलवी
रमल मुसद्दस सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 22
पहले आँखों में समंदर रक्खा
फिर मेरी प्यास पे पत्थर रक्खा
आबो-दाना तो नज़र भर रक्खा
मुझको हर लम्हा सफ़र पर रक्खा
मैं तेरी आग जला और तूने
पाँव पानी पे संभल कर रक्खा - अब्दुल्लाह कमाल
आग अपने ही लगा सकते हैं
ग़ैर तो सिर्फ़ हवा देते हैं - मोहम्मद अल्वी
उलझनें और भी थीं उस के लिए
एक मैं भी था मुसीबत उस की - मोहम्मद अल्वी
सोचने बैठें तो इस दुनिया में
एक लम्हा न गुज़ारा जाए - मोहम्मद अल्वी
दोस्त हर ऐब छुपा लेते हैं
कोई दुश्मन भी तेरा है कि नहीं - बाक़ी सिद्दीक़ी
पहले हर बात पे हम सोचते थे
अब फ़क़त हाथ उठा देते हैं - बाक़ी सिद्दीक़ी
दिल धड़कने का सबब याद आया
वो तेरी याद थी अब याद आया - नासिर काज़मी
वो सितारा थी कि शबनम थी कि फूल
एक सूरत थी अजब याद नहीं - नासिर काज़मी
ज़िंदगी ज़िंदादिली का है नाम
मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं - इमाम बख़्श ‘नासिख़’
रात की बात का मज़कूर ही क्या
छोड़िए रात गई बात गई - चराग़ हसन हसरत
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
ज़िन्दगी बीत रही है 'दानिश'
एक बेजुर्म सज़ा हो जैसे - अहसान बिन 'दानिश'
रमल मुसद्दस सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन मुजाइफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन // फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 22 // 2122 1122 22
कुछ तबीअत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत न हुई
जिस को चाहा उसे अपना न सके जो मिला उस से मोहब्बत न हुई
जिस से जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फ़साना बदला
रस्म-ए-दुनिया को निभाने के लिए हम से रिश्तों की तिजारत न हुई
दूर से था वो कई चेहरों में पास से कोई भी वैसा न लगा
बेवफ़ाई भी उसी का था चलन फिर किसी से ये शिकायत न हुई
वक़्त रूठा रहा बच्चे की तरह राह में कोई खिलौना न मिला
दोस्ती की तो निभाई न गई दुश्मनी में भी अदावत न हुई - निदा फ़ाज़ली
रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122
दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
मैं कि अक्स-ए-मुंतशिर इक एक मंज़र में अकेला - राजेन्द्र मनचन्दा 'बानी'
चाकरी में रह के इस दुनिया की मोहमल हो गए थे
हम तभी तो देखते ही उस को पागल हो गए थे
मेरे हर मिस्रे पे उस ने वस्ल का मिस्रा लगाया
सब अधूरे शेर शब भर में मुकम्मल हो गए थे - फ़रहत एहसास
रमल सालिम 10 रुक्नी
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122 2122
घुट के मर जाने से पहले अपनी दीवार-ए-नफ़स में दर निकालो
दर्द के वीराँ खंडर से मंज़र-ए-बे-नाम को बाहर निकालो
अब ये आलम है कि हर-सू मावरा-ए-मुंतहा तक हैं उड़ानें
आशियाँ तो इक क़फ़स है बाहर आ भी जाओ बाल-ओ-पर निकालो
किस लिए 'रम्ज़' इतनी ऊँची तुम ने कर रक्खी हैं दीवारें हुनर की
देखो अपने साथियों को रौज़न-ए-ख़ुद-आगही से सर निकालो - मोहम्मद अहमद रम्ज़
रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
छः दिनों तक शहर मे घूमा वो बच्चों की तरह
सातवें दिन जब वो घर पहुंचा तो बूढ़ा हो गया - कुमार पाशी
राहबर मेरा बना गुमराह करने के लिए
मुझ को सीधे रास्ते से दर-ब-दर उस ने किया
शहर में वो मोतबर मेरी गवाही से हुआ
फिर मुझे इस शहर में ना-मोतबर उस ने किया
शहर को बरबाद कर के रख दिया उस ने 'मुनीर'
शहर पर ये ज़ुल्म मेरे नाम पर उस ने किया - मुनीर नियाज़ी
पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
नाव पर काग़ज़ की फिर मुझ को सवार उस ने किया - अमीर इमाम
कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुक़द्दस ख़्वाब थे
हर ज़माने में शहादत के यही अस्बाब थे - हसन नईम
ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
ये तमाशा अब सर-ए-बाज़ार होना चाहिए
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
आदमी को साहब-ए-किरदार होना चाहिए - ज़फ़र इक़बाल
पहले पहल तो निगाहों मे कोई जंचता न था
रफ़्ता-रफ़्ता दूसरा फिर तीसरा अच्छा लगा - मंजूर हाशमी
लेके मैं ओढूँ बिछाऊँ या लपेटूँ क्या करूँ
रूखी फीकी ऐसी सूखी मेहरबानी आप की - इंशा अल्लाह ख़ान
इब्तिदा वो थी कि जीना था मुहब्बत में मुहाल
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया - जिगर मुरादाबादी
हम ने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका
मुस्कुरा कर तुम ने देखा दिल तुम्हारा हो गया - जिगर मुरादाबादी
शाम से ही गोश-बर आवाज़ है बज़्मे-सुख़न
कुछ फ़िराक़ अपनी सुनाओ कुछ ज़माने की कहो - फ़िराक़ गोरखपुरी
हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़ '
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम - फ़िराक़ गोरखपुरी
कौन रख सकता है इसको साकिनो-जामिद कि ज़ीस्त
इनक़लाबो - इनक़लाबो - इनक़लाबो - इनक़लाब - फ़िराक़ गोरखपुरी
जीतने में भी जहाँ जी का ज़ियाँ पहले से है
ऐसी बाज़ी हारने में क्या ख़सारा देखना - परवीन शाकिर
लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब
हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ - परवीन शाकिर
ये करें और वो करें ऐसा करें वैसा करें
ज़िंदगी दो दिन की है दो दिन में हम क्या क्या करें
कीजिएगा रहज़नी कब तक ब-नाम-ए-रहबरी
अब से बेहतर आप कोई दूसरा धंदा करें
इस पुरानी बेवफ़ा दुनिया का रोना कब तलक
आइए मिल-जुल के इक दुनिया नई पैदा करें
दिल हमें तड़पाए तो कैसे न हम तड़पें 'नज़ीर'
दूसरे के बस में रह कर अपनी वाली क्या करें - नज़ीर बनारसी
उम्र भर की बात बिगड़ी इक ज़रा सी बात में
एक लम्हा ज़िंदगी भर की कमाई खा गया - नज़ीर बनारसी
बद-गुमानी को बढ़ा कर तुम ने ये क्या कर दिया
ख़ुद भी तन्हा हो गए मुझ को भी तन्हा कर दिया - नज़ीर बनारसी
हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा - बशीर बद्र
लोग कहते हैं मुहब्बत में असर होता है
कौन से शहर में होता है किधर होता है - मुसहफ़ी
दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम
मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं
दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम – नज़ीर अकबराबादी
देख उसे रंग-ए-बहार-ओ-सर्व-ओ-गुल और जू-ए-बार
इक उड़ा इक गिर गया इक जल गया इक बह गया - नज़ीर अकबराबादी
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया - मजरूह सुल्तानपुरी
वो ख़मोशी उँगलियाँ चटख़ा रही थी ऐ 'शकेब'
या कि बूँदें बज रही थीं रात रौशन-दान पर - शकेब जलाली
बज़्म में अहल-ए-सुख़न तक़्तीअ' फ़रमाते रहे
और हम ने अपने दिल का बोझ हल्का कर दिया - आदिल मंसूरी
हम को किस के ग़म ने मारा ये कहानी फिर सही
किस ने तोड़ा दिल हमारा ये कहानी फिर सही - मसरूर अनवर
वक़्त दो मुझ पर कठिन गुज़रे हैं सारी उम्र में
इक तेरे आने से पहले इक तेरे जाने के बाद - मुज़्तर ख़ैराबादी
बाग़बाँ ने आग दी जब आशियाने को मेरे
जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे - साक़िब लखनवी
सुर्ख़-रू होता है इंसाँ ठोकरें खाने के बा'द
रंग लाती है हिना पत्थर पे पिस जाने के बा'द - सय्यद मोहम्मद मस्त कलकत्तवी
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ - ख़्वाजा मीर 'दर्द'
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है - बिस्मिल अज़ीमाबादी
चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है - हसरत मोहानी
गो ज़रा सी बात पर बरसों के याराने गए
लेकिन इतना तो हुआ कुछ लोग पहचाने गए - ख़ातिर ग़ज़नवी
रमल मुसम्मन सालिम मजहूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ा
2122 2122 2122 2
धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है
एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती है
मैं तुम्हें छू कर जरा सा छेड़ देता हूँ
और गीली पाँखुरी से ओस झरती है - दुष्यंत कुमार
रमल मुसम्मन सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो - जाँ निसार अख़्तर
जब लगें ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए - जाँ निसार अख़्तर
कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है
सब ने इंसान न बनने की क़सम खाई है - निदा फ़ाज़ली
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए - निदा फ़ाज़ली
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो - निदा फ़ाज़ली
दुश्मनी लाख सही ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिए - निदा फ़ाज़ली
तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़'
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला - अहमद फ़राज़
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें - अहमद फ़राज़
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिस को देखा ही नहीं उस को ख़ुदा कहते हैं - सुदर्शन फ़ाकिर
हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब
आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया - सुदर्शन फ़ाकिर
क्या भला शैख़-जी थे दैर में थोड़े पत्थर
कि चले काबा के तुम देखने रोड़े पत्थर
ऐ बसा कोहना इमारात-ए-मक़ाबिर जिन के
लोगों ने चोब-ओ-चगल के लिए तोड़े पत्थर
जाओ ऐ शैख़-ओ-बरहमन हरम-ओ-दैर को तुम
भाई बेज़ार हैं हम हम ने ये छोड़े पत्थर - इंशा अल्लाह ख़ान
जज़्बा-ए-इश्क़ सलामत है तो इंशा-अल्लाह
कच्चे धागे से चले आएँगे सरकार बंधे - इंशा अल्लाह ख़ान
घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
ये भी खुलता नहीं किस शै की कमी लगती है - सलीम अहमद
हुस्न चाहे जिसे हँस बोल के अपना कर ले
दिल ने अपनों को भी बेगाना बना रक्खा है - सलीम अहमद
जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला
हाथ आया जो यक़ीं वहम सरासर निकला - वहीद अख़्तर
कुछ भी हो जाए मगर तेरे तरफ़दार हैं सब
ज़िंदगी तुझ में कोई बात तो होती होगी - अमीर इमाम
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
सच तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है - नज़ीर अकबराबादी
था इरादा तिरी फ़रियाद करें हाकिम से
वो भी ऐ शोख़ तेरा चाहने वाला निकला - नज़ीर अकबराबादी
इश्वा है नाज़ है ग़म्ज़ा है अदा है क्या है
क़हर है सेहर है जादू है बला है क्या है - बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान
अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे
तेरा मुजरिम हूँ मुझे डूब के मर जाने दे
ज़िंदगी मैं ने इसे कैसे पिरोया था न सोच
हार टूटा है तो मोती भी बिखर जाने दे - नज़ीर बाक़री
जिस को तुम भूल गए याद करे कौन उस को
जिस को तुम याद हो वो और किसे याद करे - जोश मलसियानी
सिन ही क्या है अभी बचपन है जवानी में शरीक
सो रहें पास मेरे ख़्वाब में डरने वाले
क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
मुझ से लपटे हैं मेरे नाम से डरने वाले - रियाज़ खैराबादी
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुँचे - जिगर मुरादाबादी
क्या कहूँ दीदा-ए-तर ये तो मेरा चेहरा है
संग कट जाते हैं बारिश की जहाँ धार गिरे - शकेब जलाली
अव्वल-ए-उम्र में देखा उसे जिस ने ये कहा
काम आतिश का करेगा ये शरारा आख़िर - ग़ुलाम हमदानी ‘मुसहफ़ी’
आधी रात आए तेरे पास ये किस का है जिगर
चौंक मत इतना कि ऐ होश-रुबा हम ही हैं - ग़ुलाम हमदानी ‘मुसहफ़ी’
आग हो दिल में तो आँखों में धनक पैदा हो
रूह में रौशनी लहजे में चमक पैदा हो
मुझ से बहते हुए आँसू नहीं लिक्खे जाते
काश इक दिन मेरे लफ़्ज़ों में लचक पैदा हो - साक़ी फ़ारुक़ी
देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख - मजरूह सुल्तानपुरी
रोक सकता हमें ज़िंदान-ए-बला क्या 'मजरूह'
हम तो आवाज़ हैं दीवार से छन जाते हैं - मजरूह सुल्तानपुरी
सरहदें अच्छी कि सरहद पे न रुकना अच्छा
सोचिए आदमी अच्छा कि परिंदा अच्छा - इरफ़ान सिद्दीक़ी
रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग़
कम से कम रात का नुक़सान बहुत करता है - इरफ़ान सिद्दीक़ी
हम ने मुद्दत से उलट रक्खा है कासा अपना
दस्त-ए-दादार तेरे दिरहम-ओ-दीनार पे ख़ाक - इरफ़ान सिद्दीक़ी
हँस के मिलती है मगर काफ़ी थकी लगती हैं
उस की आँखें कई सदियों की जगी लगती हैं - मुनव्वर राना
घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं
लड़कियाँ धान के पौदों की तरह होती हैं - मुनव्वर राना
रास्ता सोचते रहने से किधर बनता है
सर में सौदा हो तो दीवार में दर बनता है - जलील 'आली'
वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा
मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा - परवीन शाकिर
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मेरे घनश्याम की थी - परवीन शाकिर
गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो
आँधियो तुम ने दरख़्तों को गिराया होगा - कैफ़ भोपाली
जी बहलता ही नहीं अब कोई साअ'त कोई पल
रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले - इब्न-ए-इंशा
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी - बहादुरशाह ज़फ़र
ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें - शहरयार
इन दिनों मैं भी हूँ कुछ कार-ए-जहाँ में मसरूफ़
बात तुझ में भी नहीं रह गई पहले वाली - शहरयार
जुस्तुजू जिस की थी उस को तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने - शहरयार
ज़िंदगी जैसी तवक़्क़ो थी नहीं कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है - शहरयार
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है - शहरयार
काम सब गैर-ज़रूरी हैं जो सब करते हैं
और हम कुछ नहीं करते हैं, ग़ज़ब करते हैं - राहत इन्दौरी
मेरे कारोबार में सबने बड़ी इम्दाद की
दाद लोगों की, गला अपना, ग़ज़ल उस्ताद की
उम्र भर चलते रहे आँखों पे पट्टी बाँध कर
जिंदगी को ढ़ूंढ़ने में जिंदगी बर्बाद की - राहत इन्दौरी
तेरी हर बात मुहब्बत में गवारा करके
दिल के बाज़ार में बैठे हैं ख़सारा करके - राहत इन्दौरी
चोर उचक्कों की करो कद्र, की मालूम नहीं
कौन, कब, कौन सी सरकार में आ जाएगा - राहत इन्दौरी
शाएरे-अस्र की तक़दीर न कुछ पूछ ’फ़िराक़’
जो कहीं का भी न रक्खेगा वो फ़न मुझको दिया - फ़िराक़ गोरखपुरी
मुद्दतें गुजरी, तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गये हों तुझे, ऐसा भी नहीं - फ़िराक़ गोरखपुरी
रस में डूबा हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुबह-ए-चमन क्या कहना - फ़िराक़ गोरखपुरी
हो जिन्हें शक, वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं - फ़िराक़ गोरखपुरी
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया - फ़िराक़ गोरखपुरी
वक़्त से आगे निकल जाएँगे जब चाहेंगे
दिल-गिरफ़्ता अभी रफ़्तार सँभाले हुए हैं - सुल्तान अख़्तर
कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है - कैफ़ी आज़मी
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे - शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
कश्तियाँ सब की किनारे पे पहुँच जाती हैं
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है - बेदम शाह वारसी
बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है
हाए क्या चीज़ ग़रीब-उल-वतनी होती है - हफ़ीज़ जौनपुरी
ईद का दिन है गले आज तो मिल ले ज़ालिम
रस्म-ए-दुनिया भी है मौक़ा भी है दस्तूर भी है - क़मर बदायुनी
शब को मय ख़ूब सी पी सुब्ह को तौबा कर ली
रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई - जलील मानिकपूरी
ज़िंदगी क्या है अनासिर काज़मी में ज़ुहूर-ए-तरतीब
मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परेशाँ होना - ब्रिज नारायण चकबस्त
ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं
पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है - बशीर बद्र
किस ने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी
झूम के आई घटा टूट के बरसा पानी - आरज़ू लखनवी
गर्मी-ए-हसरत-ए-नाकाम से जल जाते हैं
हम चराग़ों की तरह शाम से जल जाते हैं - क़तील शिफ़ाई
काम अब कोई न आएगा बस इक दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा - अली सरदार जाफ़री
यार को मैं ने मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर ताल'ए-बेदार ने सोने न दिया - आतिश
दी शब-ए-वस्ल मोअज़्ज़िन ने अज़ाँ पिछली रात
हाए कम-बख़्त को किस वक़्त ख़ुदा याद आया - दाग़ देहलवी
और होंगे तेरी महफ़िल से उभरने वाले
हज़रत-ए-'दाग़' जहाँ बैठ गए बैठ गए - दाग़ देहलवी
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुँचे - जिगर मुरादाबादी
अपने मरकज़ की तरफ़ माइल-ए-परवाज़ था हुस्न
भूलता ही नहीं आलम तिरी अंगड़ाई का - अज़ीज़ लखनवी
मकतब-ए-इश्क़ का दस्तूर निराला देखा
उस को छुट्टी न मिली जिस को सबक़ याद हुआ - मीर ताहिर अली रिज़वी
क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो - मियाँ दाद ख़ां सय्याह
उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे - मोमिन
नाला-ए-बुलबुल-ए-शैदा तो सुना हँस हँस कर
अब जिगर थाम के बैठो मेरी बारी आई - माधव राम जौहर
भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं - माधव राम जौहर
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है - मिर्ज़ा रज़ा बर्क़
ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तेरे नाम पे रोना आया - शकील बदायुनी
मुझको थकने नहीं देता ये जरूरत का पहाड़
मेरे बच्चे मुझे बूढा नहीं होने देते - मेराज फ़ैजाबादी
ज़िंदगी तुझ से हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझ को मगर इतना तो नहीं - मुज़फ़्फ़र वारसी
कुछ न कहने से भी छिन जाता है एजाज़-ए-सुख़न
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है - मुज़फ़्फ़र वारसी
दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं - वाजिद अली शाह अख़्तर
रमल मुसम्मन सालिम मख़्बून मक़्सूर मुसक्किन 16 रुक़्नी
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़इलान
2122 1122 1122 1122 2122 1122 1122 1121
ये सहर कैसी है पुरनूर कि जम्हूर है मसरूर हर इक बाग़ में मामूर है सामाने-बहार
गुल झमकता है चमन जोर महकता है टपकता है हर एक शाख़े-तरोताज़ा से फैज़ाने-बहार - शहीद लखनवी
रमल सालिम मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन 10 रुक्नी
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 1122 22
चेहरा-अफ़रोज़ हुई पहली झड़ी हमनफसो शुक्र करो
दिल कि अफ़्सुर्दगी कुछ कम तो हुई हमनफसो शुक्र करो
आज फिर देर की सोई हुई नद्दी में नई लहर आई
देर के बाद कोई नाव चली हमनफसो शुक्र करो - नासिर काज़मी
रमल मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
फ़इलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
1122 1122 1122 22
हवस-ए-गुल का तसव्वुर में भी खटका न रहा
अजब आराम दिया, बेपर-ओ-बाली ने मुझे - ग़ालिब
रमल मुसम्मन मश्कूल सालिम
फ़इलातु फ़ाइलातुन // फ़इलातु फ़ाइलातुन
1121 2122 // 1121 2122
ये अजीब माजरा है, कि ब-रोज़-ए-ईद-ए-क़ुर्बां
वही ज़ब्ह भी करे है, वही ले सवाब उल्टा - इंशा अल्लाह ख़ान
कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के
वो बदल गये अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के - अहसान बिन 'दानिश'
मेरी ज़िंदगी है ज़ालिम तेरे ग़म से आश्कारा
तेरा ग़म है दर-हक़ीक़त मुझे ज़िंदगी से प्यारा - शकील बदायुनी
यही ज़िन्दगी मुसीबत यही ज़िन्दगी मुसर्रत
यही ज़िन्दगी हक़ीक़त यही ज़िन्दगी फ़साना - मुईन अहसन जज़्बी
कहीं शेर ओ नग़्मा बन के, कहीं आँसुओं में ढल के
वो मुझे मिले तो लेकिन, कई सूरतें बदल के - ख़ुमार बाराबंकवी
मेरी दस्ताने हसरत, वो सुना सुना के रोये
मुझे आजमाने वाले, मुझे आजमा के रोये - सैफ़ुद्दीन सैफ़
इन्हीं पत्थरों पे चल कर, अगर आ सको तो आओ
मेंरे घर के रास्ते में, कोई कहकशाँ नहीं है - मुस्तफ़ा ज़ैदी
रजज़ मुरब्बा मतवी मख़्बून
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212
इस इश्क ने रुस्वा किया
मैं क्या बताऊँ क्या किया - वाज़िद अली शाह अख़्तर
रजज़ मुरब्बा मतवी मख़्बून
मुफ़तइलुन मुफ़ाइलुन
2112 1212
ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं
तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं
मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं - फ़िराक़ गोरखपुरी
रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212
दिन रात फ़िक्रे-जौर में यूँ रन्ज़ उठाना कब तलक
मैं भी जरा आराम लूँ तुम भी जरा आराम लो - मोमिन
ये दिल ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया आवारगी
इस दश्त मे इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी - मोहसिन नक़वी
कल चौदवी की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा – इब्ने इंसां
हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए
बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए - अकबर इलाहाबादी
रजज़ मुसम्मन सालिम मुजाइफ़
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन // मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212 // 2212 2212 2212 2212
फिरते हैं कब से दर-ब-दर अब इस नगर अब उस नगर इक दूसरे के हम-सफ़र मैं और मिरी आवारगी
ना-आश्ना हर रह-गुज़र ना-मेहरबाँ हर इक नज़र जाएँ तो अब जाएँ किधर मैं और मिरी आवारगी
हम भी कभी आबाद थे ऐसे कहाँ बर्बाद थे बे-फ़िक्र थे आज़ाद थे मसरूर थे दिल-शाद थे
वो चाल ऐसी चल गया हम बुझ गए दिल जल गया निकले जला के अपना घर मैं और मिरी आवारगी - जावेद अख़्तर
रजज़ मुसम्मन मतव्वी मख़्बून
मुफ़्तइलुन मुफ़ाइलुन // मुफ़्तइलुन मुफ़ाइलुन
2112 1212 // 2112 1212
दिल में समा के फिर गई आस बंधा के फिर गई
आज निगाह-ए-दोस्त ने काबा बना के ढा दिया - फ़ानी बदायुनी
शहर तलब करे अगर तुम से इलाज-ए-तीरगी
साहिब-ए-इख़्तियार हो आग लगा दिया करो - पीरज़ादा क़ासीम
अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए
इश्क़ ओ हवस हैं सब फ़रेब आप से क्या छुपाइए - अहमद मुश्ताक़
ज़र्ब-ए-ख़याल से कहाँ टूट सकेंगी बेड़ियाँ
फ़िक्र-ए-चमन के हम-रिकाब जोश-ए-जुनूँ भी चाहिए - शकेब जलाली
कूचे में उस के बैठना हुस्न को उस के देखना
हम तो उसी को समझे हैं बाग़ भी और बहार भी - नज़ीर अकबराबादी
वादे की रात मरहबा, आमदे-यार मेहरबाँ
जुल्फ़े-सियाह शबफ़शाँ, आरिजे़-नाज़ महचकाँ - फ़िराक़ गोरखपुरी
शाम भी थी धुआँ-धुआँ हुस्न भी था उदास-उदास
याद सी आके रह गयीं दिल को कई कहानियाँ - फ़िराक़ गोरखपुरी
कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तेरा ख़याल भी
दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी
मेरी तलब था एक शख़्स वो जो नहीं मिला तो फिर
हाथ दुआ से यूँ गिरा भूल गया सवाल भी - परवीन शाकिर
चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर दिया - परवीन शाकिर
जिस को भी शैख़ ओ शाह ने हुक्म-ए-ख़ुदा दिया क़रार
हम ने नहीं किया वो काम हाँ ब-ख़ुदा नहीं किया - जौन एलिया
मैं भी बहुत अजीब हूँ इतना अजीब हूँ कि बस
ख़ुद को तबाह कर लिया और मलाल भी नहीं - जौन एलिया
अपने सभी गिले बजा पर है यही कि दिलरुबा
मेरा तेरा मुआमला इश्क़ के बस का था नहीं - जौन एलिया
पुरसिश-ए-ग़म का शुक्रिया, क्या तुझे आगही नहीं
तेरे बग़ैर ज़िन्दगी, दर्द है ज़िन्दगी नहीं
ज़ख़्म पे ज़ख़्म खाके जी, अपने लहू के घूँट पी
आह न कर, लबों को सी, इश्क़ है दिल्लगी नहीं - अहसान बिन 'दानिश'
चोट पे चोट खाए जा दिल की तरफ कभी न देख
इश्क पे एतमाद रख हुस्न की बेरुखी न देख
इश्क का नूर नूर है हुस्न की चाँदनी न देख
तू खुद ही आफताब है जर्रों में रोशनी न देख - जिगर मुरादाबादी
तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू
या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
कार-ए-जहाँ दराज़ है अब मेरा इंतज़ार कर - अल्लामा इक़बाल
शामे-फ़िराक अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फ़िर बहल गया जां थी कि फिर संभल गई - फैज़ अहमद फैज़
कामिल मुसद्दस सालिम
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
11212 11212 11212
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
था सितारा टूट के आसमान में आएगा
अभी पेड़ को किसी सख़्त रुत का है सामना
अगर उठ सका तो बड़ी उठान में आएगा - मुसव्विर सब्ज़वारी
कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
11212 11212 11212 11212
ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही
न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही - सिराज औरंगाबादी
कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल कोई क्या किसी से लगाए दिल
वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल वो दुकान अपनी बढ़ा गए - बहादुर शाह ज़फ़र
वो जो हम में तुम करार था तुम्हे याद हो कि न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हे याद हो कि न याद हो - मोमिन
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जो किसी के काम न आ सके मैं वो एक मुश्त -ए-गुब़ार हूँ - मुज़्तर खैराबादी
(ये शेर आम तौर पर बहादुर शाह ज़फ़र के नाम से मशहूर है)
मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूँ तो किसी के हर्फ़-ए-दुआ में हूँ
मैं नसीब हूँ किसी और का मुझे माँगता कोई और है
कभी लौट आएँ तो पूछना नहीं देखना उन्हें ग़ौर से
जिन्हें रास्ते में ख़बर हुई कि ये रास्ता कोई और है - सलीम कौसर
वो निगाह उठ के पलट गयी, वो शरारे उड़ के निहाँ हुए
जिसे दिल समझते थे आज तक वो 'फ़िराक़' उठता धुआँ है अब - फ़िराक़ गोरखपुरी
मेरे फ़िक्र-ओ-फ़न को नई फ़जा नए बाल-ओ-पर की तलाश है
जो क़फ़स को यास के फूँक दे मुझे उस शरर की तलाश है - वामिक जौनपुरी
मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे
मैं हूँ दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे - शकील बदायुनी
मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चराग़ राह में जल गए - मजरूह सुल्तानपुरी
शब-ए-इंतज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई
कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया - मजरूह सुल्तानपुरी
कभी दिन की धुप में झूम के, कभी शब के फूल को चूम के
यूं ही साथ साथ चले सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो - बशीर बद्र
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो - बशीर बद्र
जहाँ हरसिंगार फ़ुज़ूल हों जहाँ उगते सिर्फ़ बबूल हों
जहाँ ज़र्द रंग हो घास का वहाँ क्यूँ न शक हो बहार पर - विकास शर्मा 'राज़'
मुझे काम तुझ से है ऐ जुनूँ न कहूँ किसी से न कुछ सुनूँ
न किसी की रद्द-ओ-क़दह में हूँ न उखाड़ में न पछाड़ में - इंशा अल्लाह ख़ान
कभी ऐ हकीकत-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सजदे तड़प रहे, हैं मेरी जबीने-नियाज़ में - अल्लामा इक़बाल
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आदरणीय अजय तिवारी जी, आदाब. इस बेहतरीन अनुसंधान परक कार्य के लिए आपको हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद. सादर.
आदरणीय राज़ साहब, आपकी त्वरित प्रतिक्रिया ने इसे सार्थकता दी. हार्दिक आभार.
जनाब अजय तिवारी साहिब आदाब,बहुत उम्दा और शानदार आलेख,यक़ीनन नए सीखने वालों के लिए इसमें तमाम बहूर की जानकारी के साथ साथ उम्दा अशआर का इंतिख़ाब सोने पर सुहागा का काम कर रहा है,आपके क़लम से निकलने वाले आलेख नई नस्ल के लिए बहतरीन तुहफ़ा हैं,मेरी तरफ़ से आपको इस शाहकार के लिए ढेरों मुबारकबाद ।
'अल्लाह करे ज़ोर-क़लम और ज़ियादा'
आदरणीय समर साहब, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से मेरा श्रम-सार्थक हुआ. हार्दिक आभार.
आदरणीय अजय तिवारी जी
सादर अभिवादन
इतनी महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए आपको कितना भी शुक्रिया अदा किया जाए, कम ही होगा. सादर.
जनाब अजय तिवारी जी आदाब, इस शानदार जानकारी को साझा करने के लिए आपको बहुत बधाईयाँ और आभार। सादर।
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