लो फिर चुनाव आ गये.
हम हर दल के नेता को भा गए.
‘दल-दल’ से निकल कर सब नेता,
शहर-गाँव में आ गये.
कोई मोबाइल, लैपटॉप दे रहा.
कोई दे रहा दाल घी,
खुले आम दरबार लगा है,
चाहे जितना खा और पी.
पांच साल हमने भोगा है,
कुछ दिन तुम भी लो भोग.
चुनावी वादें है, वादों का क्या,
समय के साथ भूल जाते है लोग.
गरीबों का हक हम खा गये,
लो फिर चुनाव आ गये.
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Naval Kishor Soni on January 30, 2017 at 5:48pm — 6 Comments
आओ प्रिय बैठो पास ,
क्यों रहती हो तुम उदास ,
दिल में तुम हो मेरे खास,
देखो हरी-हरी ये घास,
जगा रही है मन में प्यास,
चितवन देख तुम्हारी आज,
लगती मुझको तुमसे आस,
पर तुमको क्यों आती लाज,
प्रेम को समझो तुम भी…
ContinueAdded by Naval Kishor Soni on January 27, 2017 at 5:00pm — 2 Comments
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