Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 20, 2013 at 3:06pm — 11 Comments
समय के इस कशाकश में, बदलना सीख जायेंगे
गिरेंगे फिर उठेंगे, खुद ही चलना सीख जायेंगे ।
नदी नालों ने ली है जान कुछ लाचार धारों की
करो मजबूत पैरों को, ये पलना सीख जायेंगे ।
कटे पंखों से उडती है जिगर वाली वो गौरेया,
नये मौसम में पर फिर से निकलना सीख जायेंगे ।
नहीं पहचानते बच्चे अभी तक लाल अंगारा,
हथेली पर रखेंगे तो ये जलना सीख जायेंगे ।
'सलिल' छोड़ो ये वैशाखी चलो थामो कलम-कागज,
सियासत डगमगायेगी, बदलना सीख जायेंगे ।
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 13, 2013 at 3:26pm — 10 Comments
हो रहा है फिर उजाला इस शहर में,
जल उठी है मोमबत्ती मेरे घर में ।
आँधियों के पैर कतराने लगे हैं,
है समंदर आस का अब हर नजर में ।
देखकर कोंपल नयी खुश हो गये हम,
शेष है आशा घनी बूढ़े शजर में ।
शाम से महसूस होती है थकावट,
लौट आती है जवानी, नव सहर में ।
यूँ मिला किरदार जीवन का 'सलिल' को,
गीत गम का गुनगुनाया भी बहर में ।
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 11, 2013 at 6:32pm — 8 Comments
जिस तरह दिनकर चमकता
व्योम में,
अलविदा कहता निशा को,
बादलों के झुण्ड को
पीछे धकेले ।
काश होता एक सूरज
ख़ुशी का भी ।
कोई तापता धूप सुबह की,
कोई बिस्तर डाल देता दोपहर के घाम में ।
खुशनुमा गरमी भी होती
कम व ज्यादा,
पूष से ज्येष्ठ तक ।
और पसीना भी निकलता,
इत्र सा ।
काश कल्पा हो उठे साकार,
एक 'खुशकर' हो भी जाये
दिवाकर सा ।।
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 8, 2013 at 7:30pm — 6 Comments
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