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हर चहरे पर चहरा कोई जीता है
और बदलने की भी खूब सुभीता है
सांप, सांप को खाये, तो क्यों अचरज हो
इंसा भी जब ख़ूँ इंसा का पीता है
अर्थ लगाने की है सबको आज़ादी
चुप कह के, क़ुरआन, बाइबिल गीता है
भेड़, बकरियों, खर , खच्चर , हर सूरत में
अब जंगल में जीता केवल चीता है
बादल तो बरसा था सबके आँगन में
उल्टा बर्तन रीता था, वो रीता है
फर्क हुआ क्या नाम बदल के सोचो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 23, 2017 at 8:57am — 6 Comments
22 22 22 22 22 2
छिपे हुये फिर सारे बाहर निकले हैं
फिर शब्दों के लेकर ख़ंज़र निकले हैं
मोम चढ़े चहरे गर्मी में जब आये
सबके अंदर केवल पत्थर निकले हैं
आइनों से जो भी नफ़रत करते थे
जेबों मे सब ले के पत्थर निकले हैं
बाहर दवा छिड़क भी लें तो क्या होगा
इंसाँ दीमक जैसे अन्दर निकले हैं
अपनी गलती बून्दों सी दिखलाये, पर्
जब नापे तो सारे सागर निकले हैं
औंधे पड़े हुये हैं सागर…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 21, 2017 at 9:48am — 16 Comments
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मंज़र न जाने कौन उसे क्या दिखा गया
या आइना था, जो उसे पत्थर बना गया
तू भी तवाफ ए दश्त में चलता, ऐ शह’र ! तो
कहता यही, सुकून मेरे दिल को आ गया
हँसने की कोशिशों से निकल आये अश्क़ क्यूँ
ये किसका दर्द रूह में मेरी समा गया
गिनते रहे वो रोटियाँ थाली में डाल कर
भूखा उसी समय ही जाँ अपनी लुटा गया
लाठी नुमा रहा था जो अंधे के साथ साथ
पत्थर समझ के राह का, कोई हटा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 7, 2017 at 12:54pm — 20 Comments
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