सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ आभार ?
क्या लिखूं ?
जिसमें समा जाए -
-नहाई देह की खुशबू
सुबह मेरी जो महकाती रही है !
-और होंठो की मधुर मुस्कान
जो बिखरी मेरे होंठो पे ऐसे खिलखिलाकर ,
भर गई मेरे ह्रदय में
उष्णता अनमोल !
मरुथल में खिले जैसे
कुछ हँसी के फूल !
योग्य संभवतः नही पर
धन्य हूँ पाकर
दिए तुमने हैं जो उपहार !
सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ…
ContinueAdded by Arun Sri on April 17, 2012 at 7:30pm — 11 Comments
Added by Arun Sri on April 17, 2012 at 11:59am — 23 Comments
उन्हें हक है कि मुझको आजमाएं
मगर पहले मुझे अपना बनाएं
खुदा पर है यकीं तनकर चलूँगा
जिन्हें डर है खुदा का सर झुकाएं
जुदा होना है कल तो मुस्कुराकर
चलो बैठे कहीं आँसू बहाएं
तुम्हारे आफताबों की वज़ह से
अभी कुछ सर्द है बाहर हवाएं
तिरा दरबार है मुंसिफ भी तेरे
कहूँ किससे यहाँ तेरी खताएं
खता उल्फत की करने जा रहा हूँ
कहो अय्याम से पत्थर…
ContinueAdded by Arun Sri on April 3, 2012 at 11:00am — 20 Comments
मैंने देखा है -
हलांकि जार-जार टूटे हुए ,
हवादार
फिर भी उमस में डूबे हुए झोपडो में
जो चेहरे रहते है ,
इस जानलेवा भागम भाग में भी
वो चेहरे ठहरे रहते हैं !
ये ठहरा हुआ वक्त का मरहम
और फिर भी उनके जख्म
गहरे के गहरे रहतें हैं !
टूटी हुई छत से टपकती उदास धूप
नहीं सुखा पाती
सिसकती हुई छाँव की सीलन !
जिनके छिल चुके होंठ
नहीं उठा पाते
गूंगी हँसी का बोझ तक
लेकिन वो उठाए…
ContinueAdded by Arun Sri on April 2, 2012 at 10:37am — 10 Comments
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